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दुर्भावों का उन्मूलन

कई बार सदाचारी समझे जाने वाले लोग आश्चर्यजनक दुष्कर्म करते पाए जाते हैं । उसका कारण यही है कि उनके भीतर ही भीतर वह दुष्प्रवृति जड़ जमाए बैठी रहती है । उसे जब भी अवसर मिलता है, नग्न रूप में प्रकट हो जाती है । जैसे, जो चोरी करने की बात सोचता रहता है, उसके लिए अवसर पाते ही वैसा कर बैठना क्या कठिन होगा । शरीर से ब्रह्मज्ञानी और मन से व्यभिचारी बना हुआ व्यक्ति वस्तुत: व्यभिचारी ही माना जाएगा । मजबूरी के प्रतिबंधों से शारीरिक क्रिया भले ही न हुई हो, पर वह पाप सूक्ष्म रूप से मन में तो मौजूद था । मौका मिलता तो वह कुकर्म भी हो जाता । इसलिए प्रयत्न यह होना चाहिए कि मनोभूमि में भीतर छिपे रहने वाले दुर्भावों का उन्मूलन करते रहा जाए । इसके लिए यह नितान्त आवश्यक है कि अपने गुण, कर्म, स्वभाव में जो त्रुटियॉं एवं बुराइयॉँ दिखाई दें, उनके विरोधी विचारों को पर्याप्त मात्रा में जुटा कर रखा जाय और उन्हें बार-बार मस्तिष्क में स्थान मिलते रहने का प्रबंध किया जाए । कुविचारों का शमन सद्विचारों से ही संभव है ।