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Showing posts from June, 2010

आंधी

एक आंधी कुछ इस तरह से आती है साथ अपने गर्द और राख लाती है पीछे अपने अंधकार और मातम छोड़ जाती है जिसने देखा वो थर्ऱा गया जिसने सुना वो कांप गया जो गया वो लौट कर न आया जो बचा वो लौट कर जा न सका उस मंज़र को शब्दों मे बयां कैसे करूं उस रात को कलम से कैसे लिखूं रोने की आवाज़े शोर में खो गईं चीख पुकारे हवाओं मे उड गई वो आंधी इस बार सब कुछ ले गई

असगर नदींम सरवर की नज्म

असगर नदींम सरवर की नज्म भारत पाक रिश्ते पर मुसाफ़िर साठ बरसों के अभी तक घर नहीं पहुँचे कहीं पर रास्ते की घास में अपनी जड़ों की खोज में तारीख़ के घर का पता मालूम करते हैं मगर तारीख़ तो बरगद का ऐसा पेड़ है जिसकी जड़ें तो सरहदों को चीर कर अपने लिए रस्ता बनाती हैं मुसाफ़िर साठ बरसों के बहुत हैरान बैठे हैं... मुसाफ़िर साठ बरसों के अभी तक घर नहीं पहुँचे कहीं पर भी नहीं पहुँचे. कि सुबहे-नीम वादा में धुंधलका ही धुंधलका है कि शामे-दर्दे-फ़ितरत में कहीं पर एक रस्ता है नहीं मालूम वो किस सम्त को जाकर निकलता है मुसाफ़िर साठ बरसों के बहुत हैरान बैठे हैं.

बरसात कुछ लाती है

बरसात कुछ लाती है अकसर बरसात में वो घड़ी याद आती है एक मां अपने बेटे के साथ जाल लेकर आती हैं सुमंद्र के किनारे लहरों में वो जाल फेंके खड़े रहते हैं गिरती बूंदों से अपनी किस्मत की दुआ करते हैं इस बरसात में झोली अपनी भर जाएगी ये बारिश मेरे दुख, बहा ले जाएगी लहरें भी झूम के मस्त होती है हर बहाव में कुछ न कुछ भेजती है.. कोई बचता है कोई गीत गाता है कोई देख कर ही लुत्फ उठाता है ।। मुझे एक और घड़ी याद आती है कड़ी- बल्ली ,पत्थर की छत टपकती है घर की बिल्ली दुबक कर कहीं बैठती है कमरो में हर वक्त छतरी खुली रहती है मेरी चप्पल अकेले ही सैर पर निकल जाती है कोई बचता है कोई गीत गाता है कोई देख कर ही लुत्फ उठाता है ।। मुझे एक और घड़ी याद आती है हाथों मे हाथ डाले कोई चलता है कोई इधर चलता है कोई उधर चलता है पायचें उठाए ,जूते लिए बचकर कोई निकलता फिर भी मोटर गाड़ी छीटे मार कर भाग जाती है न जाने तब गाली कहां से मुंह में आती है हर बार बरसात कुछ लाती है कोई बचता है कोई गीत गाता है कोई देख कर ही लुत्फ उठाता है ।।

शहज़ादा गुलरेज़ की नज्म

शहज़ादा गुलरेज़ की नज्म कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की बहुत खूबसूरत मगर सांवली सी मुझे अपने ख्वाबों की बांहों में पा कर। कभी नींद में मुस्कुराती तो होगी उसी नींद में कसमसा-कसमसा कर सरहाने से तकिया गिराती तो होगी वही ख्वाब दिन की मंडेरों पर आकर उसे दिल ही दिल में लुभाते तो होगें कई तार सीने की खामोशियों में मेरी याद से झनझनाते तो होगें कभी चौक पर सोचते सोचते कुछ चलो खत लिखे दिल में आता तो होगा मगर उंगलियां कांप जाती तो होगीं कलम हाथ से छूट जाता तो होगा कलम फिर उठा लेती होंगी उमंगे कि धड़कन कोई गीत गाती तो होगी कोई वहम उसको सताता तो होगा वो लोगों की नज़रों से छुपती तो होगी मेरे वास्ते फूल कढ़ते तो होगें मगर सुई उंगली में चुभती तो होगी कहीं के कहीं पांव पड़ते तो होगें मसहरी से आंचल उलझता तो होगा प्लेटें कभी टूट जाती तो होंगी कभी दूध चूल्हे पे जलता तो होगा गरज़ अपनी मासूम नादानियों पर वह नाज़ुक बदन झेंप जाती तो होगीं शहज़ादा गुलरेज़....