जंसवत शहीदे -आज़म
जंसवत शहीदे -आज़म
जसवंत सिंह की बीजेपी से विदाई हो गई है और विदाई भी ऐसी वैसी नही पार्टी ने बड़ा ही बेआबरू कर के उन्हे निकाला हैं । ऐसा सलूक तो आज के ज़माने में किसी स्कूली बच्चे के साथ भी नही किया जाता है। लेकिन जसवंत सिंह के साथ बीजेपी ने किया और जसवंत सिंह ने उसे बर्दाशत भी कर लिया, आप सोच रहे होंगे कि बर्दाशत ना करते तो और करते क्या , तो आप भी सही हैं। बीजेपी की मुख़ालफत करने वाले जसवंत सिंह के साथ हुए ऐसे सलूक पर बीजेपी को कोसने में कोई कोर कसर नही छोड़ रहे। अगर पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान कि अगर बात की जाए तो वहा के मीडिया ने तो जसवंत को शहादत का दर्जा तक दिलवा दिया , एक ऐसा शहीद जिसे सच सामने लाने के लिए उसके अपनों ने ही बलि चढ़ा दी । ये बात भी खूब ज़ोर शोर से उठाई जा रही है कि जसवंत की संघ से नज़दीकी ना होना भी उनकी पार्टी से विदाई की वजह बनी । लेकिन एक बात जो कोई समझ नही रहा कि जसवंत को दरअसल उनका लालच ले डूबा।
..... ज़रा सोचिए, जसवंत सिंह क्या आपको इतनी कच्ची गोलियां खेले हुए लगते हैं कि जिस पार्टी और विचारधारा के लिए उन्होंने एक उम्र गुज़ार दी उसे समझने में उनसे इतनी बड़ी गल्ती हो गई कि , उसके बिल्कुल उल्ट जाकर उन्होंने अपनी किताब लिखी। या क्या आपको लगता हैं कि जसंवंत सिंह में इतना बूता हैं कि उन्होंने अपना राजनैतिक भविष्य दावं पर लगाने का फैसला लिया सिर्फ अपने विचारों के लिए । दरअसल इन दोनों ही तर्कों पर विश्वास करना मुश्किल हैं क्योंकि जसवंत सिंह एक मंझे हुए राजनेता हैं , एक ऐसे राजनितिज्ञ जो वित्त विदेश औऱ रक्षा जैसे अहम मंत्रालय संभाल चुके हैं और अपने राजनीतिक भविष्य पर तो वो बीजेपी से निकाले जाने के बाद भी विराम लगाना नहीं चाहते तो फिर एक किताब के लिए वो इतना बड़ा दांव कैंसे लगा सकते हैं आप खुद सोचिए।
.....सच तो ये हैं कि जसवंत के मन में अब पार्टी में अहम भूमिका में आने की इच्छा हिचकोले भर रही थी। लोकसभा चुनाव में जिस तरह पार्टी को हार मिली उस पर मंथन के लिए पत्र लिखकर आग्रह करने वाले जसवंत ही थे और तब भी मकसद उनका यही था कि हार पर मंथन से वो अपने लिए अमृत हासिल कर सके। जसवंत को उम्मीद थी हार कि वजहों में पार्टी की कट्टरवाद छवि का ज़िक्र ज़रुर आएगा। पार्टी का नेतृ्त्व बदलना भी तय ही मान रहे थे जसवंत । उन्हे लगा ऐसे में सबको तलाश एक ऐसे नेतृत्व की होगी जो धर्मनिर्पेक्ष हो। तो खुद को सबसे बड़ा धर्मनिर्पेक्ष साबित कर दिया जसवंत सिंह ने खुद को अपनी किताब..... जिन्ना, भारत विभाजन के आईने में। और किताब के विमोचन के लिए वक्त तय किया गया ठीक चिंतन बैठक से पहले का। अब समझ गए होंगे आप जसवंत सिंह का सारा खेल
दरअसल जसवंत सिंह ने अपनी तरफ से कौ़ड़ी तो बड़ी दूर की चली लेकिन उनका दांव उल्टा पड़ गया और अडवाणी कैंप ने उन्हे पार्टी से बाहर का रास्ता दिख दिया। जसवंत से भूल बस ये हुई कि जिस लालजी ( लालकृष्ण अडवाणी ) को वो अपना समझते थे उन्ही को वो सही से नहीं समझ पाए। जसवंत को नही पता था कि उनका यशवंत सिंहा और अरुण शौरी कैंप में जाना आडवाणी को नागवार गुज़रा है और ना ही जसवंत को इस बात का अंदाजा था कि पीएम इन वेटिंग अभी अपना इंतज़ार खत्म नही करना चाहते इसी लिए वो अपनी हर चुनौती को जड़ से मिटाने में देर नही करेगे।
जसवंत सिंह की बीजेपी से विदाई हो गई है और विदाई भी ऐसी वैसी नही पार्टी ने बड़ा ही बेआबरू कर के उन्हे निकाला हैं । ऐसा सलूक तो आज के ज़माने में किसी स्कूली बच्चे के साथ भी नही किया जाता है। लेकिन जसवंत सिंह के साथ बीजेपी ने किया और जसवंत सिंह ने उसे बर्दाशत भी कर लिया, आप सोच रहे होंगे कि बर्दाशत ना करते तो और करते क्या , तो आप भी सही हैं। बीजेपी की मुख़ालफत करने वाले जसवंत सिंह के साथ हुए ऐसे सलूक पर बीजेपी को कोसने में कोई कोर कसर नही छोड़ रहे। अगर पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान कि अगर बात की जाए तो वहा के मीडिया ने तो जसवंत को शहादत का दर्जा तक दिलवा दिया , एक ऐसा शहीद जिसे सच सामने लाने के लिए उसके अपनों ने ही बलि चढ़ा दी । ये बात भी खूब ज़ोर शोर से उठाई जा रही है कि जसवंत की संघ से नज़दीकी ना होना भी उनकी पार्टी से विदाई की वजह बनी । लेकिन एक बात जो कोई समझ नही रहा कि जसवंत को दरअसल उनका लालच ले डूबा।
..... ज़रा सोचिए, जसवंत सिंह क्या आपको इतनी कच्ची गोलियां खेले हुए लगते हैं कि जिस पार्टी और विचारधारा के लिए उन्होंने एक उम्र गुज़ार दी उसे समझने में उनसे इतनी बड़ी गल्ती हो गई कि , उसके बिल्कुल उल्ट जाकर उन्होंने अपनी किताब लिखी। या क्या आपको लगता हैं कि जसंवंत सिंह में इतना बूता हैं कि उन्होंने अपना राजनैतिक भविष्य दावं पर लगाने का फैसला लिया सिर्फ अपने विचारों के लिए । दरअसल इन दोनों ही तर्कों पर विश्वास करना मुश्किल हैं क्योंकि जसवंत सिंह एक मंझे हुए राजनेता हैं , एक ऐसे राजनितिज्ञ जो वित्त विदेश औऱ रक्षा जैसे अहम मंत्रालय संभाल चुके हैं और अपने राजनीतिक भविष्य पर तो वो बीजेपी से निकाले जाने के बाद भी विराम लगाना नहीं चाहते तो फिर एक किताब के लिए वो इतना बड़ा दांव कैंसे लगा सकते हैं आप खुद सोचिए।
.....सच तो ये हैं कि जसवंत के मन में अब पार्टी में अहम भूमिका में आने की इच्छा हिचकोले भर रही थी। लोकसभा चुनाव में जिस तरह पार्टी को हार मिली उस पर मंथन के लिए पत्र लिखकर आग्रह करने वाले जसवंत ही थे और तब भी मकसद उनका यही था कि हार पर मंथन से वो अपने लिए अमृत हासिल कर सके। जसवंत को उम्मीद थी हार कि वजहों में पार्टी की कट्टरवाद छवि का ज़िक्र ज़रुर आएगा। पार्टी का नेतृ्त्व बदलना भी तय ही मान रहे थे जसवंत । उन्हे लगा ऐसे में सबको तलाश एक ऐसे नेतृत्व की होगी जो धर्मनिर्पेक्ष हो। तो खुद को सबसे बड़ा धर्मनिर्पेक्ष साबित कर दिया जसवंत सिंह ने खुद को अपनी किताब..... जिन्ना, भारत विभाजन के आईने में। और किताब के विमोचन के लिए वक्त तय किया गया ठीक चिंतन बैठक से पहले का। अब समझ गए होंगे आप जसवंत सिंह का सारा खेल
दरअसल जसवंत सिंह ने अपनी तरफ से कौ़ड़ी तो बड़ी दूर की चली लेकिन उनका दांव उल्टा पड़ गया और अडवाणी कैंप ने उन्हे पार्टी से बाहर का रास्ता दिख दिया। जसवंत से भूल बस ये हुई कि जिस लालजी ( लालकृष्ण अडवाणी ) को वो अपना समझते थे उन्ही को वो सही से नहीं समझ पाए। जसवंत को नही पता था कि उनका यशवंत सिंहा और अरुण शौरी कैंप में जाना आडवाणी को नागवार गुज़रा है और ना ही जसवंत को इस बात का अंदाजा था कि पीएम इन वेटिंग अभी अपना इंतज़ार खत्म नही करना चाहते इसी लिए वो अपनी हर चुनौती को जड़ से मिटाने में देर नही करेगे।
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