दादर की खिड़की वाली लड़की( DADAR KI KHIDKI WALI LADKI)
दादर की खिड़की वाली
लड़की
तकरीबन 14 साल के
बनवास के बाद मुम्बई फिर आना हुआ... रहने के लिये यहां कुछ करने के लिये ....एक
बड़े चैनल में नौकरी लग गई थी ..इसलिये आने पर किसी को कोई परेशानी भी नहीं हुई ।अकेला
आया था पर अब अकेला नहीं था शादी हो चुकी थी और एक बेटा भी था । चैनल परेल में था
तो लोगों ने सलाह दी कि पास में घर ले लो ।यहां सड़कों में बहुत वक्त बरबाद होता
है ..मैंने बात मान कर महालक्ष्मी में एक रूम ले लिया जिसमें हर सुख सुविधा मौजूद
थीं जैसे टीवी एसी फ्रिज..वगैराह वगैराह..और जगह की किमत को देखते हुए 25,000
भाड़ा सबको ठीक लगा ।लेकिन 3 महीने में मेरा दिल भर गया ।इतनी जल्दी घर पहुंचकर
करता क्या दिमाग में अलग अलग कुछ गंदे कुछ खौफनाक ख्याल आने लगे।
तब मुझे एहसास हुआ मुझे एसी नहीं ,खुली हवा
चाहिए है और मैंने माकान मालिक से झूठ बोला कि मेरा ट्रांसफर हो गया है इसलिये
मुझे जाना होगा। अब तक देवता के रूप में पेश होने वाले पंडितजी कि मैने अलग तरह की
वाणीं सुनी। लेकिन हमारी ज़ुबान में भी जहां लखनऊ की नज़ाकत है वहीं दिल्ली का
अनुभव भी है और मुंबई में बरसात शुरू होते ही मैं जोगेशवरी शिफ्ट हो गया।
बाद में मुझे पता
चला कि पंडितजी का वो कमरा 18,000 भाड़े में गया यानि मुंबई में जो दिखता है वो
बिकने वाली टीवी की कहावत को ग़लत साबित कर दिया क्योंकि यहां पर दिखता कुछ है और
बिकता कुछ है ।
शहर के जिन पात्रों
को ढ़ूढ़ने के लिये मैं जोगेशवरी गया वो मकसद बरसात के कारण पूरा नहीं हो रहा था,
तभी मेरा एक दोस्त
जिसके लिये हमने कभी कुछ नहीं किया है हनुमान बन कर सामने आया..वो भी उसी ग्रुप
में दूसरे चैनल में काम करते थे..
बरसात में ऑफिस तक
ले जाने की जिम्मेदारी ले ली और रोज़ सुबह मेरे जोगेशवरी के निवास पर आ कर मुझे
लेकर जाने लगे और एक बार फिर मुझे बॉम्बे से बदली मुंबई देखने का मौका मिला...
गाड़ी की पीछे वाली
सीट से बदली हुई पर अपनी रफ्तार में चलती हुई मुम्बई दिखने लगी । फेएट गाड़ियां
सिर्फ टैक्सी तक सीमित हो गई थी।
नई नई गाड़ियां टूटी
और पतली सड़कों पर अपने को बचाती हुई और अपना रास्ता ढ़ूढ़ती हुई घंटों कतार पर
खड़ी नज़र आने लगी और ऊंची ऊंची इमारते जिनकी परमिशन 14 मालों की थी और बिल्डरों
ने 24 माले बनाकर लोगों का एक अपना आशियाना बनाने के ख्व्वाब को एक दर्द भरी हकीकत
में बदल दिया था। यह सब मैं कार की खिड़की से देख रहा था और कार की खिड़की से इस
तरह की कई कहानियां दिख रही थी।
मुंबई की अमीरी और गरीबी दोनों आमने सामने एक
दूसरे को मुंह चिढ़ाते हुए नज़र आती थीं कि तभी एक ऑटो वाला अपने शीशे से पीछे की
सीट पर बार बार छुप कर कुछ देखता दिखा ।पीछे मुड़ कर देखा तो युवा अबस्था के
मोहब्बती जोड़े ऑटो की सीट में ही अपने मिलन का अंजाम देने में उतावले थे
खैर यह अब बहुत आम
बात हो चुकी है ऐसा दृश्य आपको भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक की सड़कों पर
दिख जायेगा क्योंकि आज़ादी की एक परिभाषा कुछ लोग इसे ही मानते हैं।
गाड़ी आगे बढ रही थी
.. और मुम्बई में भी बदलाव दिख रहा था ..बाला साहेब
के बाद शिव सेना का दबदबा कम हो रहा था ..राज ठाकरे अपने अस्तिव के लिये जद्दोजहद
कर रहे थे कांग्रेस और एनसीपी तकरीबन हाशिये पर थे और पहली बार बीजेपी अपने बूते
पर सत्ता पर काबिज़ हो चुकी थी पर मेरे गुज़रे हुए मुम्बई के साल बरसात की बूंद के
साथ मेरे पास आने की कोशिश कर रहे थे।
लेकिन गाड़ी का वाइपर और अंदर का एसी उन्हे मेरे
पास आने नहीं दे रहा था या मैं उन्हे अपने पास लाना नहीं चाह रहा था क्योंकि मुम्बई
में रातों की ज़िन्दगी दिन के उजाले से बदल जाती है एकदम मेरी जिन्दगी की तरह और
मैंने एक लंबी सांस लेकर आंख बंद कर ली ।
आंख खुली तो हम
माहिम पार कर चुके थे और दादर के जाम में गाड़ी आगे रेंग रही थी । दादर के पुल के
पास से गुज़रा तो देखा पुल के पिलर जिनकी चौड़ाई तकरीबन एक फुट है उनपर लोगों ने
भगवान की तस्वीर के साथ अपना बिस्तर लगा रखा है। एक ही शहर जहां कुछ लोग अपना बना
बनाया आलीशान बंगला सिर्फ वास्तु के चलते कभी रहने नहीं आते वहीं ऐसे भी लोग हैं
जो एक फुट में अपने साथ भगवान को भी जगह देते हैं ।
ज़रा बाहर निकलते ही
सीधे हाथ पर एक दीवार पर बोर्ड लटका था, जिसपर लिखा था टिना यहां ब्रा और पैंटी
उचित मूल्य पर मिलती है। जिस शहर में इंसानों का कोई मूल नहीं वहां ब्रा और पैंटी
का उचित मूल्य पर मिलना अपने आप में बड़ी बात है ।
ट्रैफिक बहुत था
गाड़ी रूकी हुई थी सुबह के वक्त दादर पर इस तरह का जाम आम बात है ।यह सब्जी मंडी
है जहां मुंबई से लगे आसपास के गांव के लोग सब्जियां लेकर मंडी पहुंचते हैं जहां
से लोकल विक्रयता या महंगे शहर में सस्ती तरकारियों की लालच में आम मुंबईकर भी
मंडी पहुंच जाते और सड़क पर जाम लग जाता है।
बोर्ड को देखकर अपने
आप पर हंसी आ गई और नज़र बोर्ड के बाजू की बिल्डिंग की एक खिड़की पर जा पहुंची ।
खिड़की से लगी दीवार पर एक शीशा था और शीशे को देखकर एक लड़की अपने चहेरे को
निखारने पर लगी थी ।खड़ा नाक नख्शा,गोरा रंग सर पर क्रीम रंग की चुनरी न जाने अपने
चहेरे पर क्या लगा रही थी ।
जैसे ही उस पर नज़र
पड़ी तो लगा पूरा दादर जैसे शांत हो गया है एक तनाव भरे शहर में अचानक इतनी शांति
लगने लगी, लगता था कि उसे पता है कि उसके अंदर कुछ ख़ास है और ख़ास को वो और निखार
रही है अपने में खुश या अपनों से खुश
,उम्मीदों के शहर मुम्बई में उम्मीद की अफसारा। इतना खुश अपने को देखकर मैने बस
कहानियों में पढ़ा था। जिसमे एक रानी अपने शीशे से रोज़ पूछती है,’बता क्या कोई है मुझसे ज्यादा सुंदर” अगर मैं कवि या लेखक होता तो हिंदी और उर्दू के
ज़रूर भारी भारी शब्दों से उसका तस्कीरा करता लेकिन तभी एक्सिलेटर पर पिंटूजी का
पैर पड़ा और हमारी गाड़ी जाम से निकलते हुए ऑफिस के गेट पर घूस गई..
पूरे दिन ऑफिस में
रह रह कर दादर की खिड़की वाली लड़की की शक्ल नज़र आ रही थी समझ में नहीं आ रहा था
या मेरे अंदर कोई लेखक जन्म ले रहा था या फिर वो ही कालेज के दिनों वाला मैं
दोबारा बनते जा रहा हूं। न जाने कब ऑफिस खत्म हुआ और दूसरा दिन आ गया और आज भी
हमारी गाड़ी उसी खिड़की के सामने थी और वो लड़की आज भी उसी तरह सजसंवर रही थी ।
यह सिलसिला तकरीबन
दो हफ्ते चला,वो ही सुनहरी चुनरी, उसी तरह से सजना संवरना उसका बरकरार था।
मुझे अपने कॉलेज के दिन लौट लौट कर बार बार याद
आ रहे थे जब हम अपने किसी भी दोस्त की एकतरफा मुहब्बत के लिये रेड लाइन बस में बैठ
कर दिल्ली के एक कोने से दूसरे कोने तक बिना किसी सरोकार के बस में चले जाते थे ।
आज भी मेरी जिन्दगी
वैसे ही चल रही थी बीच में दो चार दिन के लिये दिल्ली जाना हुआ वापस आया तो एडिट
रात भर चला और ऑफिस की मेल भेजते भेजते सुबह होने लगी थी और मैंने टैक्सी न लेकर
लोकल से सफर करने को बेहतर समझा पर ट्रेन जैसे ही दादर स्टेशन पर पहुंची न जाने
किस ताकत ने मुझे एकदम नीचे उतार दिया और मेरे कदम उसी दादर के पुल की तरफ बढ़ने
लगे और याद आने लगा दिल्ली का वो हादसा जब मैं और मेरा दोस्त अपने एक दूसरे दोस्त
की दोस्त को तलाशते हुए लोधी कालोनी के उसके फलैट में जा पहुंचे थे बिना फ्रिक
किये की इसका अंजाम क्या होगा लेकिन तभी बैंड बाजे की गूंज ने मुझे हकीकत का सामना
करा दिया ऐसा लग रहा था कोई बारात रूखस्त हो रही है तभी मेरे सामने से धीरे धीरे
एक सजी हुई कार निकली जिसमें दुल्हन के लिबास में वो ही लड़की थी वही नाक नख्शा
वही कद वैसा ही चेहरा, शायद उसने मुझे देख लिया था शायद वो कुछ कहने वाली थी शायद
मैंने इसको कहीं देखा है हां बहुत नज़दीक से देखा है । मैं कुछ करता कुछ कहता कुछ
हिम्मत जुटाता तभी बैंड बाले मेरे सामने आगये और वो कार आगे बढ़ गई और मैं दादर की
मंडी में अकेला खड़ा रह गया था एक बार फिर ।
ज़ोर ज़ोर से सब्ज़ियों के भाव लगने लगे थे और
मुझे अपनी जिन्दगी की सारी नाकाम मुहब्बतें तिलक नगर से लेकर खान मार्केट तक की याद
आने लगी थी।
पूरा दिन सोता रहा
पता नहीं क्या हो रहा था, कहां वो चेहरा देखा था कौन थी वो सच में मैं उसे जानता
हूं या फिर यह सब मेरा वहम है ।
तभी मेरे दरवाज़े की
घंटी बजी आंख खोली तो सुबह के सात बज रहे थे। लगता है आज काम वाली जल्दी आ गई है
दरवाज़े पर पहुंचा तो कोई नहीं था अखबार वाला अख़बार डाल कर गया था अखबार उठा कर
मेज पर रखकर ज़रा सोफे पर बैठा तो आंखे बंद हो गई और फिर वो सारी बातें और वो
लड़की मेरी नज़रों के सामने आने लगी। पंखे की हवा से मुम्बई मिरर का पन्ना ज़ोर
ज़ोर आवाज़ कर रहा था अपने आप से गुस्से में अखबार उठाया तो पहले पेज की खबर देखकर
रूक गया उसमें लिखा था दादर से पुणे जाने वाली बारात की दुल्हा दुल्हन की कार पनवेल
के रास्ते में अपना संतुलन खो बैठी और ट्रक ट्रॉली से जा टकराई और कार में बैठे
चारों यात्रियों की मौके पर ही मुत्यु हो गई। तस्वीर में सिर्फ कार दिख रही थी शायद
वो ही कार थी जो मैने कल सुबह देखी थी जिसमें वो लड़की बैठी थी ।मेरी आंखों से
आंसू बहने लगे मैं समझ नहीं पा रहा था कि एक खिड़की वाली लड़की से मैं इस तरह कैसे
जुड़ गया।मैं सुन था,खामोश था और अखबार मेरी आंखों के सामने रखा था।
तभी एक बार फिर घंटी
बजी मैने बैठे बैठे कहा आजाओ दरवाज़ा खुला है,मेरी नज़रे अखबार पर ही थी।दरवाजा
खुलता है कोई अंदर आता है और सीधे किचन में चला जाता था ।मैं अखबार ही देख रहा था
बिना कुछ देखे समझे किचन के अंदर से आवाज़ आती है भइया दूध नहीं है मैं बोलता हूं
कमरे से मेरा पर्स लेकर आओ मैं पैसे देता हूं वो पर्स लेकर आती है मैं पैसे निकाल
कर देता हूं पर्स को अखबार के पास रखता हूं फिर अखबार पर मेरी नज़र जाती है फिर
पास में पड़े पर्स पर मेरी नज़र जाती है
मैं एकदम से पर्स उठा लेता हूं ..और जल्दी से पर्स को खोलता हूं उसमें रखी तस्वीर
को देखकर रोने लगता हूं दादर की खिड़की वाली लड़की और इस फोटो में कोई फर्क नहीं
था यह तो वो ही शक्ल है, इस शक्ल को मैं कैसे भूल सकता हूं.. सात साल पहले कभी उसके बिना एक पल भी अकेले
रहने का भी नहीं सोच सकता था और अब मैं उसे ऐसे भूला की उसकी शक्ल तक याद नहीं रही
वो तस्वीर मेरी मां की थी ..सात साल पहले वो इस दुनिया से हम सब को छोड़ कर चली गई
थी कितना रोया था तब मैं पर सात में मेरा जीवन इतना बदल गया रिश्तों में इतने उतार
चढ़ाव आ गये कि मै अपनी मां की शक्ल तक भूल गया... पर मेरी मां शायद मुझे नहीं भूल
पाई ।
मैं रोना चाहा रहा था पर रो नहीं सका दादर की वो
खिड़की अब बंद रहती है मुझे लगता मैने अपना बिता हुआ कल इसी बंद खिड़की के पीछे
बंद कर दिया है।अब अकसर वहां से गुज़रते हुए मेरी आंखे नम हो जाती हैं
समाप्त...................................................................................................
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