अकसर सोचता हूं।।

अकसर सोचता हूं

इससे पहले की हम बेवाफा हो जाए
क्यों न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाए।।
बंदगी छोड़ दी हमने ऐ फराज़
क्या करें लोग जब खुदा हो जाए।।

शमां हूं फूल हूं या रेत पर कदमों के निशान
आप को हक है मुझे जो चाहे कहे ले।।

सांस भरने को तो जीना नहीं कहते या रब
दिल ही दुखता है न अब आस के दर होती है
जैसे जागी हुई आंखों में चुबन कांच के खव्वाब
रात इस तरह दिवानो की बसर होती है ।।
गम ही दुशमन मेरा
ग़म को ही दिल ढूढ़ता है
एक लम्हे की जुदाई भी अगर होती है।.।

Comments

Udan Tashtari said…
आभार इस प्रस्तुति का.आनन्द आया.
फ्राज़ साहिब की ये रचना बहुत अच्छी लगी धन्यवाद
इससे पहले की हम बेवाफा हो जाए
क्यों न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाए।।
बंदगी छोड़ दी हमने ऐ फराज़
क्या करें लोग जब खुदा हो जाए।।
Manish said…
सांस लेने को ही तो जीना नहीं कहते या रब - क्या बात है...
KULDEEP SINGH said…
bahut badhiya lika hay apane
Anonymous said…
hi nice writing ...but where r u & not writing since long

keep on writing ..... we r waiting

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