जिन्दगी का रिश्ता

जिन्दगी का रिश्ता ..जिन्दगी से कुछ ऐसा हुआ की जिन्दगी को ही भुला दिया .ज़िन्दगी जो दायरों और मिनारों और चौखटों से कभी बाहर नहीं आई ..वो आज कूचों और मौहल्लों में सफर करती नज़र आ जाती है..। कुछ सोच कर करना कुछ मुनासिब तरीके से पेश करना शायद इसका शऊर ज़िन्दगी को कभी हुआ ही नहीं... जिन्दगी कितने लंबे ग्रंथ में कही जा सकती है या फिर कितने कम शब्दों में बयान की जा सकती है इसका एहसास एक जिन्दगी गुज़ारने के बाद ही होता है.पर हां ज़िन्दगी होती बड़ी दिलचस्प है ..क्योंकि एक जिन्दगी से कई ज़िन्दगियां जुड़ी होती हा और हर जुड़ी हुई ज़िन्दगी से कई और और ज़िन्दगिया... हर का तार एक दूसरे से .. दिलचस्प ये नहीं कि हर तार एक दूसरे तार से जुड़ा होता है दिलचस्प ये कि हर तार एक दूसरे से जु़ड़े नही रहना चाहता पर फिर भी जुड़ा रहता है .. जैसे पानी की वो धारा जो किनारे पर सिर्फ दम तोड़ने आती है ...पानी की मुख्य धारा से अलग हो कर मिट्टी को सीचने के लिए और फिर अपने साथियों से हमेशा हमेशा के लिए जुदा होकर फसाना बन हो जाती है ... धारा जिन्दगी नहीं बन सकती पर ज़िन्दगी को धारा की ज़रूरत हमेशा रहती है । क्योंकि ज़िन्दगी को हर वक्त कोई न कोई चाहिए जो उसे नम रखे ... ग़मगीन रखे..हां ग़म का रिश्ता ज़िन्दगी से जुड़ा ही रहता ..या फिर ग़म और ज़िन्दगी एक साथ चलने के लिए ही आते है ..उस महफिल में शिरकत करते है जहां उन जैसे या तो हाज़ारों मिल जायेगे या फिर उन जैसा कोई नहीं...
हम अपने जैसी जिन्दगी खोजने में भी माहिर है ..या ज़िन्दगी हमें हम जैसी दूसरी ज़िन्दगी से मिला ही देती है ...वो ज़िन्दगी जो हमारे साथ चलती है .और चलने का वादा करती है ..और ज़िन्दगी वादे निभाते और तोड़ते हुए आगे चल ही देती है ..।
हम कुछ भी करे ज़िन्दगी का रिशता बना ही रहता है ..एक ज़िन्दगी तक....

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