सिपाही की माँ मोहन राकेश (THEATRE ARTISTE OF INDIA)
सिपाही की माँ
पात्र
बिशनो
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मुन्नी
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कुन्ती
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दीनू
| 1 लडक़ी | 2 लडक़ी |
मानक
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सिपाही
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देहात के घर का आँगन, अँधेरा और सीलदार आँगन के बीचोबीच एक खस्ताहाल चारपाई पड़ी है। एक और वैसी ही चारपाई दीवार के साथ रखी है। दायें कोने में दो-तीन मिट्टी की हँडियाँ पड़ी हैं। सामने एक लकड़ी का टूटा हुआ दरवाज़ा है, जो घर के अन्दर खुलता है। दरवाज़े पर एक अँगोछा और चारपाई पर एक फटी हुई धोती सूख रही है। बायीं ओर बाहर जाने का रास्ता है, जिसमें किवाड़ नहीं हैं।
परदा उठने पर बिशनी चारपाई के पास मोढ़े पर बैठी चरखे पर सूत कातती दिखाई देती है। उसके चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ी हैं और बाल सब स$फेद हो चुके हैं। मुन्नी, उसकी चौदह बरस की लडक़ी, बाहर की चौखट से सटकर खड़ी है। उसकी हरे रंग की सलवार-कमीज बहुत मैली हो रही है। कुछ क्षण चरखे की आवाज़ और कबूतरों की गुटरगूँ सुनाई देती है। बीच-बीच में बिशनी थोड़ा खाँस लेती हैं। फिर घोड़ागाड़ी के दूर से आने और रुकने का शब्द सुनाई देता है।
मुन्नी : (पीछे की ओर मुडक़र उत्तेजित स्वर से) डाकवाली गाड़ी आ गयी, माँ! मैं अभी चिट्ठी पूछकर आती हूँ।
मुन्नी बाहर चली जाती है। बिशनी आँखें मूँदकर हाथ जोड़ लेती है। कबूतरों की गुटरगूँ का स्वर पहले तेज़ होकर फिर मन्द हो जाता है।
बिशनी आँखें खोलकर दरवाज़े की ओर देखती है। मुन्नी निराश और थकी-सी लौट आती है।
बिशनी : क्यों री, डाकवाली गाड़ी ही थी?
मुन्नी : हाँ, डाकवाली गाड़ी ही थी!
घोड़ा-गाड़ी के चलने और क्रमश: दूर होने का शब्द सुनाई देता है। मुन्नी बिशनी के मोढ़े के पास फ़र्श पर बैठ जाती है। बिशनी के चेहरे की रेखाएँ गाढ़ी हो जाती हैं।
बिशनी : (ठंडी साँस लेकर) आज भी चिट्ठी नहीं आयी! जाने भाग में क्या लिखा है?
मुन्नी : आज सिरफ चौधरी का पिलसन का मनीआडर आया है और कोई चिट्ठी नहीं आयी।
बिशनी : ये मुए जाने चिट्ठी रास्ते में रख लेते हैं कि क्या करते हैं। मेरा मानक तो ऐसा नहीं कि दो-दो महीने चिट्ठी ही न लिखे। पहले हर पन्द्रहवें रोज चिट्ठी आ जाती थी। अबकी न जाने कौन पहाड़ रास्ते में खड़ा हो गया है? कम से कम अपनी राजी-खुशी तो लिख देता।
मुन्नी : माँ, मेरा दिल कहता है कि अगले मंगल को भैया की चिट्ठी ज़रूर आएगी।
बिशनी : तेरा दिल तो हर मंगल को कहता है, पर चिट्ठी आने का नाम नहीं लेती। जाने भाग में क्या खोट है जो चिट्ठी के लिए इतना तरसना पड़ता है! इस बार यह घर आ ले, फिर मैं इससे पूछूँगी...।
मुन्नी : पिछली चिट्ठी में भैया ने लिखा था कि वे ब्रम्मा की लड़ाई पर जा रहे हैं। माँ, शायद उन्हें लड़ाई में चिट्ठी लिखने की फुरसत ही न मिलती हो।
बिशनी : इतनी भी फुरसत नहीं मिलती कि माँ को चार हरफ लिखकर डाल दे? उसे यह नहीं पता कि मेरी चिट्ठी जाती है तो माँ के कलेजे में जान पड़ती है! माँ के कौन दो-चार हैं जिनके सहारे वह परान लेकर बैठी रहेगी? नदीदे को यह बात तो सोचनी चाहिए।
मुन्नी बिशनी के घुटने पर बाँहें फैलाकर उन पर सिर रख देती है।
मुन्नी : तुम फिकर क्यों करती हो, माँ? देख लेना अगले मंगल को चिट्ठी ज़रूर आएगी।
कुछ क्षण नि:स्तब्धता। बिशनी मुन्नी को घुटने से हटाकर फिर चरखा चलाने लगती है। मुन्नी उठकर सूखी हुई धोती को चारपाई से समेटने लगती है।
मुन्नी : (धोती तह करते हुए बीच में रुककर) ब्रम्मा यहाँ से कितनी दूर होगा, माँ?
बिशनी : चौधरी कहता था कि कई सौ कोस दूर है। जाने चौधरी को भी पता है या नहीं? जब जो उसके मुँह में आता है कह देता है।
मुन्नी : चौधरी यह भी कहता है कि वहाँ गाड़ी-मोटर नहीं जाती। पानीवाले जहाज में बैठकर वहाँ जाते हैं।
बिशनी : यह तो मानक भी कहता था कि कलकत्ते से ब्रम्मा पानीवाले जहाज में बैठकर जाते हैं। मानक कलकत्ते के समुन्दर में पानीवाले जहाज देखकर आया था।
मुन्नी : ब्रम्मा से चिट्ठी भी तो फिर, माँ, जहाज में ही आती होगी। अगर हमारी चिट्ठीवाला जहाज डूब गया हो तो...?
बिशनी : ऐसी काली जबान न बोल। मुँह अच्छा न हो तो बात तो आदमी अच्छी करे। मानक कहता था कि जहाज इत्ता बड़ा होता है कि हमारे जैसे चार गाँव एक जहाज में आ जाएँ।...इत्ता बड़ा जहाज कैसे डूब सकता है?
मुन्नी : (संकोच के साथ) माँ, पता नहीं सच है या झूठ, पर चौधरी कहता था कि लड़ाई में हर रोज कोई न कोई जहाज डूब जाता है।
बिशनी : चौधरी एक लड़ाई क्या हो आया है, दुनिया-भर की सारी अकल उसके पेट में आ गयी है। वह यहाँ ही बैठा सब कुछ जानता है। अपनी तिरिया के चरित्तर का पता नहीं, जहाज डूबने का पता है!
मुन्नो धोती तह करके अन्दर ले जाती है। बाहर से पड़ोसिन कुन्ती आँगन में आती है। अधेड़ होने पर भी उसके चेहरे पर स्वास्थ्य की लाली झलकती है।
मुन्नी : बिशनदेई, आज भी कोई चिट्ठी नहीं आयी?
बिशनी : आ कुन्ती!
चरखा-पूनी अलग हटा देती है। कुन्ती उसके नज़दीक चारपाई पर आ बैठती है।
कुन्ती : कहते हैं, आजकल ब्रम्मा में बड़े जोर की लड़ाई हो रही है।
बिशनी : वहाँ से कौन ब्रम्मा होकर आया है? लड़ाई का हाल वहाँ वालों को पता है कि यहाँ वालों को पता है? चौधरी रोज घर बैठा खबरें घड़ता रहता है, मानक आएगा तो पता चलेगा कि यह कितना विदवान है। आज यह जो जी में आये कह ले, सब सच है।
कुन्ती : बेचारा जल्दी घर वापस आ जाए और आकर बहन के हाथ पीले करे। सब सहेलियाँ तो इसकी एक-एक करके चली गयीं। धन्नो भी बैसाख में चली जाएगी। बस दो महीने में ही सब कुछ करना-धरना है। ये सारा शहर ढूँढ़ आये हैं, पर कहीं दस गज मलमल नहीं मिली। सब चीज़ें जैसे विलायत चली गयी हैं।...तूने अभी इसके लिए कोई वर-घर नहीं देखा?
बिशनी : वर-घर देखकर ही क्या करना है, कुन्ती? मानक आये तो कुछ हो भी। तुझे पता ही है, आजकल लोगों के हाथ कितने बढ़े हुए हैं।
कुन्ती : पर तू देख, चौदह की तो हो गयी है, अब घर में रखकर और कितनी बड़ी करेगी? मेरी धन्नो को अभी तेरहवाँ चल रहा है, पर लोगों ने जान खा ली थी कि लडक़ी मुटियार हो गयी है, अब जल्दी से इसे कहीं विदा करो।...तू मानक के आने तक देखभाल तो कर। और जाने मानक को आने में अभी कितने दिन लगते हैं? लड़ाई का कुछ पता है?
विशनी : नहीं, वह चार-छै महीने में ज़रूर आ जाएगा। वह कह गया था कि जल्दी से जल्दी छुट्टी लेकर मिलने के लिए आएगा। उसे गये भी अब सात महीने हो गये हैं।
कुन्ती : हाँ, शायद चार-छै महीने में आ जाए। पर बिशनदेई, लड़ाई का मुँह शेर का मुँह है। शेर का मुँह किसने सूँघकर देखा है? लडक़ी तो देखते-देखते ताड़ हुई जा रही। तू कहे तो मैं कहीं खोज-खबर करती हूँ। मानक जाने साल में आता है कि छै महीने में आता है कि...।
दीनू कुम्हार, हड्डियों का चलता-फिरता ढाँचा-सा, बाहर से हाँफता हुआ आता है। उसके सिर के और दाढ़ी के बाल आधे पक चुके हैं। हाथ मिट्टी में सने हैं।
दीनू : मुन्नी की माँ, आज तो हद हो गयी!
बिशनी : किस बात की हद हो गयी? इतना हाँफ क्यों रहा है?
दीनू : बताने की बात नहीं, तू बाहर निकलकर अपनी आँखों से देख...।
बिशनी : कुछ बताएगा भी, बात क्या है?
दीनू : बात क्या है, तमाशा है। सच कहता हूँ मुन्नी की माँ, बेसरमी की हद हो गयी।
बिशनी : क्या फिर वह चौधरी की राँड़...?
दीनू : नहीं, उसकी बात नहीं है। दो जवान छोकरियाँ आज कहीं से आयी हैं। उनका ऐसा बेसरमी का पहिरावा है कि तुमसे क्या कहूँ? रंग काला है पर बिल्कुल मेमों की तरह टिटफिट चलती हैं। और घर-घर जाकर आटा-दाल माँग रही हैं। इतनी ज़िन्दगी चली गयी, पर ऐसी बेसरमी कभी नहीं देखी।
दीनू बाहर की ओर झाँककर देखता है। मुन्नी अन्दर से आ जाती है।
दीनू : (मुडक़र) वे तेरे घर की तरफ ही आ रही हैं।...मुन्नी को अन्दर भेज दे। मैं जाकर चौधरी को खबर सुना दूँ।
दीनू बाहर चला जाता है। बिशनी, कुन्ती और मुन्नी उत्सुक आँखों से बाहर की ओर देखती हैं। दो बर्मी लड़कियाँ बाहर से आती हैं। वे जाँघों तक लम्बे मैले फ्रॉक पहने हैं। दोनों के हाथों में एक-एक थैला है।
कुन्ती : (बिशनी के कान में फुसफुसाकर) ये लड़कियाँ क्रिस्टान हैं।
बिशनी उसका मतलब न समझकर प्रश्न भरी नज़र से उसकी ओर देखती है।
कुन्ती : (उसी स्वर में) क्रिस्टान होती हैं जो मरदों को घरों में रखती हैं और आप बाहर घूमती हैं।
1 लडक़ी : थोड़ा दाल-चावल दे दीजिए माँजी, परमात्मा आपका भला करेगा।
2 लडक़ी : हम रिफ्यूजी लोग हैं माँजी, बहुत दूर से भूखे-प्यासे आ रहे हैं।
1 लडक़ी : हम लोग रंगून से आ रहे हैं। हज़ारों लोग वहाँ से घरबार छोडक़र चले आये हैं। हम एक घर की दस औरतें यहाँ से तीन मील दूर एक पुरानी धरमशाला में पड़ी हैं। हमारे दो भाई रास्ते में मारे गये हैं। थोड़ा दाल-चावल दे दीजिए माँजी, आपकी जान की दुआ...!
कुन्ती : (बिशनी के कान के पास) ये लड़कियाँ क्रिस्टान नहीं हैं। इनके लच्छन अच्छे नज़र नहीं आते।
बिशनी : (लड़कियों के चेहरे पर दृष्टि जमाये हुए) हाय री, तुम इस तरह भीख क्यों माँग रही हो? देखने में तो तुम अच्छे घर की नज़र आती हो...?
1 लडक़ी : पहले जब घर-बार था तब और बात थी, माँजी! अब घर-बार उजड़ गया है तो भीख का ही आसरा है। जापानी जहाज़ों ने बम मार-मारकर सारा शहर उजाड़ दिया है। रोज़ वहाँ गोला-बारी होती है। यहाँ तो आप लोग स्वर्ग में रहती हैं, माँजी! लड़ाई की वजह से हमारा मुल्क तो बिल्कुल तबाह हो गया है! फ़ौज को छोडक़र और कोई वहाँ नहीं रहा...।
मुन्नी : (ज़रा आगे आकर) माँ, यह कहती है इनके मुलक में बहुत लड़ाई होती है। इससे पूछो, ब्रम्मा इनके मुलक से कितनी दूर है?
2 लडक़ी : हमारे मुल्क का नाम ही बर्मा है, बहनजी! हमारा शहर रंगून बर्मा में ही है।
बिशनी और मुन्नी : (एक साथ) तुम लोग ब्रम्मा से आयी हो?
1 लडक़ी : हाँ माँजी, हम बर्मा से ही आयी हैं। वहाँ रहनेवाले हज़ारों-लाखों की जानें चली गयी हैं। जिसको जिधर रास्ता मिलता है वह उधर भागकर जान बचाने की कोशिश करता है। बहुत लोग भरे हुए घर छोडक़र चले आये हैं। माँजी, आज हम लोग आप लोगों के ही आसरे हैं। जो कुछ थोड़ा-बहुत आप लोगों के घरों से मिल जाता है उसी से...।
बिशनी : (बात काटकर) क्यों री, ब्रम्मा में बहुत लड़ाई हो रही है?
1 लडक़ी : वहाँ दिन-रात आग बरसती है, माँजी! हम लोग फिर भी खुशकिस्मत हैं जो जान लेकर निकल आये हैं। तेरह दिन तक हम लोग भूखे-प्यासे जंगली रास्ते में चलते रहे हैं।
मुन्नी : तुम लोग ब्रम्मा से पैदल चलकर आयी हो?
1 लडक़ी : जी हाँ, जान बचाने का यही एक रास्ता था! रास्ते में जंगल में बड़ी-बड़ी दलदलें पड़ती हैं। हममें से एक औरत एक दलदल में फँसकर वहीं रह गयी...।
मुन्नी : माँ, ये कहती हैं कि वहाँ से पैदल आयी हैं और चौधरी कहता था कि वहाँ पानी वाले जहाज़ से जाते हैं?
1 लडक़ी : जी, असली रास्ता जहाज़ का ही है। मगर उस रास्ते में बहुत ख़तरा है। जापानी लोग जहाज़ों को रास्ते में डुबो देते हैं। और हम लोगों को जहाज़ मिलते भी नहीं। जहाज़ों पर सिर्फ़ फ़ौजी लोग आते-जाते हैं।
बिशनी : (सिहरकर) जब जहाज़ डूब जाते हैं तो फौजी लोग क्यों जहाज़ों पर आते हैं? सरकार इतनी मूरख है कि फ़ौजियों को डूबने के लिए भेज देती है?
1 लडक़ी : फ़ौजी लोग समुन्दर में जाकर लड़ते हैं, माँजी! जहाज़ों-जहाज़ों में लड़ाइयाँ होती हैं। उधर से जापानी जहाज़ गोले चलाते हैं और इधर से अँग्रेज़ों के जहाज़। ऊपर से हवाई जहाज़ मार करते हैं। बड़ी भयानक लड़ाई होती है!
बिशनी के चेहरे की रेखाएँ गाढ़ी हो जाती हैं। वह चरखे को अपनी ओर खींचने का प्रयत्न करती है, पर उसके हाथ जैसे नि:शक्त हो रहे हैं।
मुन्नी : तुम जिस रास्ते आयी हो, उस रास्ते से फ़ौजी नहीं भागकर आ सकते?
1 लडक़ी : नहीं, फ़ौजी वहाँ लडऩे के लिए हैं, वे नहीं भाग सकते। जो फ़ौजी छोडक़र भागता है, उसे गोली मार दी जाती है...।
बिशनी : (सिहरकर) हाय, नहीं।...फ़ौजियों को भगाने की क्या ज़रूरत है? उन्हें अपनी मियाद पर छुट्टी मिल जाती है।...जिसे आना होगा वह छुट्टी लेकर आएगा, भागकर क्यों आएगा?...वे इतने अनजान थोड़े ही हैं?
2 लडक़ी : आपके बच्चों की बड़ी उमर होगी, माँजी! हमें दो मुट्ठी चावल दीजिए।
कुन्ती : यहाँ हमारे अपने खाने को चावल नहीं है और इन लोगों को चावल चाहिए...।
बिशनी : मुन्नी!
मुन्नी सामने आ जाती है।
बिशनी : जा, अन्दर हँडिया से कटोरी भर चावल ले आ।
मुन्नी अन्दर चली जाती है। कुन्ती असन्तोषपूर्ण दृष्टि से लड़कियों को देखती रहती है। कुछ क्षण ख़ामोशी रहती है। बिशनी सिर झुकाए कुछ सोचती रहती है।
बिशनी : (सिर उठाकर) क्यों री, ब्रम्मा से यहाँ तक कितने दिन का पैदल रास्ता है?
1 लडक़ी : दिनों का कोई हिसाब नहीं, माँजी! पहुँच जाएँ तो महीना-बीस दिन में पहुँच जाएँ और न पहुँच पायें तो कभी भी न पहुँच पायें। एक तो रास्ते में इतने घने जंगल हैं, फिर जंगली जानवर हैं और फिर पता नहीं कहाँ दुश्मन की फ़ौज का मोर्चा हो। जंगल के चप्पे-चप्पे में लड़ाई चलती है, माँजी! हमने रास्ते में सैकड़ों सिपाहियों की गली-सड़ी लाशें देखी थीं। यहाँ हिंदुस्तानी सिपाहियों की लाशें पड़ी मिलतीं तो वहाँ जापानी सिपाहियों की। (सिहरकर) उनकी हालत देखकर दिल दहल जाता था...।
बिशनी : (विह्वल स्वर में) हाय, बस करो...!
अपने पल्ले में आँखें छिपा लेती है। मुन्नी अन्दर से चावल लेकर आती है और एक लडक़ी उन्हें अपने झोले में डलवा लेती है।
1 लडक़ी : अच्छा माँजी, परमात्मा आपको सुखी रखे!
दोनों लड़कियाँ बाहर चली जाती हैं। कुन्ती चारपाई सरकाकर बिशनी के मोढ़े के बहुत पास आ जाती है।
कुन्ती : (बिशनी के कन्धे पर हाथ रखकर) बिशनदेई!
बिशनी पल्ले से आँखें पोंछकर सिर ऊपर उठाती है।
कुन्ती : तू इस तरह दिल क्यों हलका कर रही है? क्या पता है ये ब्रम्मा से आयी हैं या कहाँ से आयी हैं? मुझे तो इनका चरित्तर ऐसा-वैसा ही लगता है। हाय रे राम! लड़कियाँ हैं कि साँड़नियाँ!
मुन्नी बिशनी के पास फ़र्श पर बैठ जाती है।
मुन्नी : (बिशनी के घुटने को सहलाते हुए) माँ, मैं जो तुमसे कहती हूँ कि अगले मंगल को भैया की चिट्ठी ज़रूर आएगी। जितनी हमें फिकर है, भैया को भी तो वहाँ उतनी ही फिकर होगी।
बिशनी : (आँखें पोंछती हुई) मैं कब कहती हूँ कि उसे फिकर नहीं? पर इतना तो लिख दे कि माँ मैं यहाँ हूँ, अच्छी तरह से हूँ...।
मुन्नी : और क्या पता माँ, कि भैया आप छुट्टी लेकर आ रहे हों और इसलिए उन्होंने चिट्ठी न लिखी हो...?
बिशनी : (ठंडी साँस लेकर) क्या पता?
मुन्नी बिशनी के घुटने के साथ सटकर उसकी छाती पर सिर रख देती है।
मुन्नी : मेरा दिल कहता है कि भैया आप आएँगे।
बिशनी कुछ न कहकर उसके सिर पर हाथ फेरने लगती है।
कुन्ती : (अपनी ही सोच से जागकर) ये लड़कियाँ इतनी बड़ी हो जाती हैं, फिर भी इनके घरवाले इनका ब्याह नहीं करते?
बिशनी : क्या मालूम?
मुन्नी की ठुड्डी उठाकर पल-भर उसका चेहरा देखती रहती है। फिर उसका माथा चूमकर उसे साथ सटा लेती है।
बिशनी : तेरा दिल ठीक कहता है, बेटी! चिट्ठी न आयी तो वह आप ही आएगा!
मुन्नी लाड़ से माँ के गले में बाँहें डाल देती है। बिशनी उसे चूमकर और साथ सटा लेती है।
परदा गिरता है।
दूसरा दृश्य
वही आँगन। समय रात। दोनों चारपाइयाँ आँगन में बिछी हैं। दायीं ओर की चारपाई पर मुन्नी हथेलियों पर चेहरा टिकाये बैठी है। उस चारपाई पर ओढऩे के लिए एक फटी हुई लोई रखी है। दूसरी चारपाई पर घिसी हुई दरी बिछी है और ऊपर दोहरा सूती खेस पड़ा है। बिशनी जलती हुई ढिबरी लिये अन्दर से आँगन में आती है।
बिशनी : (पास आकर) तू अभी सोयी नहीं?
मुन्नी : (चौंककर) मुझे नींद नहीं आयी।...अभी सो जाती हूँ।
लोई खींचकर अपनी टाँगों पर कर लेती है।
बिशनी : इतनी रात चली गयी और तुझे अभी नींद नहीं आयी!
मुन्नी : तुम भी तो अभी तक जाग रही हो।
बिशनी : मेरी उमर में तो वैसे ही नींद नहीं आती।...अब सो जा, सवेरे उठकर गोबर लाना है।
बिशनी अपनी चारपाई पर आ बैठती है। मुन्नी लेट जाती है। कुछ क्षण नि:स्तब्धता रहती है।
मुन्नी : (करवट बदलकर) माँ, आज तारो ससुराल से वापस आ गयी है।
बिशनी : (अन्यमनस्क भाव से) अच्छा!
मुन्नी : उसके घरवाले ने इस बार उसे सच्चे मोतियों के कड़े बनवा दिये हैं। वह आज गाँव में सबको दिखाती फिर रही थी। उसके कड़ों के मोती तारों की तरह चमकते हैं। बन्तो के कड़े भी उसके सामने कुछ नहीं हैं।
बिशनी : अच्छा, अच्छा! तेरा भैया आएगा तो तेरे लिए उससे भी अच्छे कड़े और चूडिय़ाँ लाएगा। अब सो जा, नहीं तो सवेरे तेरी नींद नहीं खुलेगी।
मुन्नी अच्छी तरह लोई ओढक़र करवट बदल लेती है। बिशनी ढिबरी बुझाकर कोने में रख देती है और आप भी खेस ओढक़र लेट जाती है। उसके ढिबरी बुझाते ही प्रकाश का रंग पीले से हलका नीला हो जाता है। साथ टिड्डियों की चिक-चिक का शब्द सुनाई देने लगता है जो क्रमश: काफ़ी तेज़ हो जाता है। बिशनी करवट बदलती है। प्रकाश हलके से गहरा नीला हो जाता है और दूर एक कुत्ते के रोने की आवाज़ सुनाई देती है। फिर दूर गोली चलने का शब्द सुनाई देता है और कई व्यक्तियों के कराहने की आवाज़ें आती हैं। बिशनी चौंककर उठ बैठती है। उसके उठने के साथ ही प्रकाश का रंग फिर हलका नीला हो जाता है।
बिशनी : मानक! (इधर-उधर देखकर) मानक!
कुछ ऐसा शब्द सुनाई देता है जैसे दूर आँधी चल रही हो।
: (घबराए हुए स्वर में) मानक!
बाहर से एक आहत व्यक्ति की आवाज़ सुनाई देती है-'माँ!' बिशनी चारपाई से उठ पड़ती है।
: (अस्तव्यस्त भाव से) तो सचमुच तू ही है, मानक?...कहाँ है, बेटे?
सुनसान में झिल्लियों के बोलने का-सा शब्द सुनाई देता है और फिर जैसे कोई भागता हुआ आता है। बिशनी अस्तव्यस्त भाव से चारों ओर देखती रहती है। फ़ौजी लिबास पहने एक घायल युवक डगमगाता-सा बाहर से आकर बिशनी के पैरों के पास गिर जाता है। बिशनी तड़पकर उसके पास ज़मीन पर बैठ जाती है।
: मानक!
उसका सिर गोदी में लेकर आवेगवश उस पर झुक जाती है। मानक कठिनता से सिर उठाता है।
मानक : माँ!
बिशनी : (उसका सिर हाथों में लेकर विह्वल स्वर में) तू ऐसा क्यों हो रहा है, बेटे?...क्या हुआ है तुझे?
मानक : मैं घायल हूँ, माँ! मुझे बहुत गोलियाँ लगी हैं। और...और दुश्मन अब भी मेरे पीछे लगा हुआ है।
बिशनी : दुश्मन? कौन दुश्मन तेरे पीछे लगा हुआ है? तेरा कौन दुश्मन है?
मानक सीधा होने की चेष्टा करता है, पर सफल नहीं हो पाता।
मानक : वह...वह...उसे...उसको मैंने कई गोलियाँ मारी थीं। मगर वह मरा नहीं। वह ज़िन्दा है।...वह मेरे पीछे लगा हुआ है।...वह मुझे मारना चाहता है।...उसने मेरा सारा शरीर ज़ख़्मी कर दिया है।...मैं दौड़ता हूँ तो वह पीछे दौड़ता है। मैं रेंगता हूँ तो वह पीछे रेंगता है। वह मुझे नहीं छोड़ेगा। वह बड़ा ख़तरनाक है...पानी?
बिशनी : तू उठ, चारपाई पर लेट जा। मैं तेरे लिए दूध गरम करती हूँ।
मानक : दूध नहीं, पानी। और यहीं। वह अभी यहाँ आ जाएगा। जल्दी। उधर देख। अँधेरे में। वह आ तो नहीं रहा?
बिशनी व्याकुलतापूर्वक बाहर की ओर देखती है।
बिशनी : नहीं, बेटे! कोई नहीं है। तू यूँ ही घबरा रहा है। उठ, आराम से चारपाई पर लेट जा...।
मानक : नहीं।...पानी!
बिशनी पल-भर असमंजस में रहकर उसे छोडक़र उठ खड़ी होती है और अन्दर चली जाती है। दो क्षण बाद वह पीतल के गिलास में पानी लिये हुए बाहर आती है। उसके हाथ काँप रहे हैं।
बिशनी : यह ले बेटे, पानी। आराम से पीना। छोटा-छोटा घूँट करके। निरे हाल पानी पेट में जाकर लगता है। पहले थोड़ा कुछ खा लेता...।
मानक : नहीं। मेरी भूख मर गयी है, माँ! मुझे अब भूख नहीं लगती। पानी...!
बिशनी गिलास लिये हुए उसके पास बैठ जाती है। मानक गिलास उसके हाथ से लेकर ग़टाग़ट पानी पी जाता है। उसी समय किसी का हास्य-स्वर सुनाई देता है। मानक के हाथ से गिलास गिर जाता है। वह बाहर की ओर देखता है। उधर अँधेरे में एक बन्दूक का कुन्दा चमकता है। मानक सरककर माँ के नज़दीक हो जाता है। बिशनी उसे बाँहों में समेट लेती है।
मानक : यह वही है। वह देख, माँ! वह आ गया है। वह देख...।
अँधेरे में बन्दूक का कुन्दा आगे की ओर बढ़ता है। साथ फिर हास्य-स्वर सुनाई देता है और फ़ौजी लिबास में एक और आकृति प्रकट होती है। बिशनी मानक को साथ सटा लेती है। आनेवाला सिपाही पास आकर फिर हँसता है।
सिपाही : तू इसे गोद में लिये बैठी है?...देखती नहीं, यह मुर्दा है?
बिशनी सिर से पाँव तक सिहर जाती है। मानक उठने के लिए जद्दोज़हद करता है।
मानक : यह झूठ कहता है!...मैं मुर्दा नहीं हूँ। मैं हिलडुल सकता हूँ, बात कर सकता हूँ...मैं मुर्दा नहीं हूँ।
बिशनी : (उसे और साथ सटाकर, आश्वस्त स्वर में) हाँ बेटे! तेरी जान के साथ तेरी माँ की जान है। मैं जीती हूँ तो तुझे कैसे कुछ हो सकता है?
सिपाही बन्दूक का कुन्दा मानक के पास ले आता है।
सिपाही : इसे कैसे कुछ हो सकता है? मैं अभी इसका शरीर गोलियों से छलनी कर दूँगा। फिर मैं इसकी लाश ले जाकर जंगल में चील और कौओं के आगे डाल दूँगा...।
हँसता है और बन्दूक का कुन्दा मानक के बहुत निकट कर देता है। बिशनी कुन्दा हाथ से पकड़ लेती है। मानक खड़ा होने की चेष्टा करता है, पर लुढक़कर बिशनी की गोद में गिर जाता है। बिशनी उसे अच्छी तरह छाती से लगा लेती है। सिपाही बन्दूक का कुन्दा उसके हाथ से छुड़ाकर उसे घूरकर देखता है।
: तू इसे बचाना क्यों चाहती है? तू इसकी क्या लगती है?
बिशनी : मैं इसकी माँ हूँ। मैं तुझे इसे नहीं मारने दूँगी।
सिपाही : तू इसकी माँ है? (उसे और भी घूरकर देखकर) पर तू देखने में तो इस वहशी की माँ नहीं लगती।...तुझे पता है, यह लड़ाई में वहशियों की तरह गोलियाँ चलाता है। इसने न जाने कितने सिपहियों की जान ली है!...यह इनसान नहीं, जानवर है। और तू कहती है कि तू इसकी माँ है!
बिशनी : मैं इसकी माँ हूँ। मेरा बेटा वहशी नहीं है। इसने किसी की जान नहीं ली। यह किसी की जान नहीं ले सकता। यह तो मरता हुआ कबूतर भी आँखों से नहीं देख सकता। मैं इसे लड़ाई पर नहीं जाने दूँगी। यह घर में मेरे पास रहेगा...।
सिपाही : यह घर में रहेगा?...मगर यह तो हज़ारों का दुश्मन है। हज़ारों इसके दुश्मन हैं। वे इसको खोज रहे हैं। वे इसकी जान लेना चाहते हैं। (मानक को पैर से ठोकर मारकर) अब इसकी जान नहीं बच सकती। मैदान में हज़ारों सिपाही मर रहे हैं। यह वहाँ जाएगा तो भी मारा जाएगा और यहाँ रहेगा तो भी...।
फिर मानक को ठोकर मारने लगता है, पर बिशनी उसका पाँव पकड़ लेती है।
बिशनी : नहीं, तू इसे नहीं मार। देख, इसका शरीर कितना घायल है! तू भी तो आदमी है। तेरा भी घर-बार होगा। तेरी भी माँ होगी। तू माँ के दिल को नहीं समझता? मैं अपने बच्चे को अच्छी तरह से जानती हूँ। यह दिल का बहुत भोला है। इसकी किसी के साथ दुश्मनी नहीं है।
सिपाही हँसता है।
सिपाही : इसकी किसी के साथ दुश्मनी नहीं है?...यह देख (बटन खोलकर अपना लहू से तरबतर सीना दिखाता है), ये सब घाव उसी के किये हुए हैं। मैं इन घावों से कब का मर चुका होता। लेकिन मैं सिर्फ़ इसे मारने के लिए ज़िन्दा हूँ। इसे मारे बिना मैं नहीं मरूँगा।
बिशनी : तू बात क्यों नहीं समझता? मैं इसकी माँ हूँ। मैं इसे अच्छी तरह जानती हूँ। यह किसी दुश्मनी से लड़ाई में नहीं गया। इसे मैंने लड़ाई में भेजा था।...इसकी बहन अब ब्याहने जोग हो गयी है। छह महीने-साल में हमें उसका ब्याह करना है। हमारे घर की हालत बहुत ख़राब है। अगर लडक़ी के ब्याह की चिन्ता न होती तो हम लोग आधा पेट खाकर रह लेते, पर मैं कभी इसे लड़ाई पर न भेजती। इस लडक़े के सिवा घर में कोई कमानेवाला नहीं है। मैंने सोचा था कि लडक़ी ब्याही जाएगी तो फिर इसे लड़ाई पर नहीं जाने दूँगी। फिर मैं इसका भी ब्याह कर दूँगी और इसे अपने पास घर में रखूँगी। मुझे क्या पता था कि लड़ाई में जाकर इसकी ऐसी हालत हो जाएगी? आज यह इस हाल में घर आया है। मैं इसे आज अपने से कैसे अलग कर सकती हूँ? इसकी जगह तू होता तो तेरी माँ तुझे अपने से अलग होने देती?
सिपाही : मेरी माँ...? (ज़रा-सा हँसकर) मेरी माँ अब पागल हो गयी है। वह रोज़ मेरी मौत का इन्तज़ार करती है। वह हँसकर कहती है कि थोड़े दिनों में मेरे बेटे की लाश घर आएगी। मेरी बीवी ने अभी से बेवा का स्वाँग बना लिया है। उसने मुझे लिखा है कि जिस दिन वह मेरे मरने की ख़बर सुनेगी उस दिन गले में फाँसी लगाकर मर जाएगी। उसके पेट में छह महीने का बच्चा है। उसके साथ ही वह भी मर जाएगा। (फिर से सीना खोलकर दिखाता है) और तेरे लडक़े ने देख मेरा क्या हाल किया।...यह अभी भी मेरे खून का प्यासा है। इसकी आँखों को देख। इसकी आँखों में तुझे वहशियाना चमक दिखाई नहीं देती?
बिशनी : नहीं-नहीं, इसकी आँखें ऐसी नहीं हैं। इस समय इसकी आँखें ऐसी लगती हैं। पर इनका असली रंग ऐसा नहीं है...।
सिपाही : तू इसकी आँखों का रंग नहीं पहचानती। तू इसकी माँ है, पर तू इस रंग का मतलब नहीं जानती। इसकी आँखों में दुश्मनी है। जब तक मैं सामने हूँ, इसकी आँखों का रंग नहीं बदलेगा। देख, यह कैसे आँखों में खून भरकर मुझे देख रहा है!
मानक सहसा अपने को झटककर उठ खड़ा होता है। वह सिपाही का गला दबाने के लिए उस पर झपटना चाहता है, पर सिपाही झट से बन्दूक का कुन्दा फिर तान लेता है। बिशनी जल्दी से बन्दूक के कुन्दे के आगे आ जाती है।
बिशनी : नहीं, तू इसे नहीं मारेगा। तुझे तेरी माँ की सौगन्ध, तू इसे नहीं मारेगा।
सिपाही : मैं इसे नहीं मारूँगा तो यह मुझे मार देगा। तू यही चाहती है?
विशनी : नहीं, यह तुझे नहीं मारेगा। मैं इसकी माँ हूँ। मैं इसे जानती हूँ। यह तुझे कभी नहीं मारेगा...।
मानक : (वीभत्स स्वर में) मैं इसे नहीं मारूँगा? (रौद्र भाव से आगे बढ़ता हुआ) नहीं! मैं इसे ज़रूर मारूँगा, मैं अभी इसके टुकड़े-टुकड़े कर दूँगा।
आगे बढक़र सिपाही को धक्का देता है जिससे वह लडख़ड़ाकर पीछे गिर जाता है और बन्दूक उठा लेता है और उसका कुन्दा सिपाही के सीने की ओर तान देता है।
: मैं वहशी हूँ! मैं जानवर हूँ। मैं वहशी और जानवर से भी बढक़र हूँ। इस तरह मेरी तरफ़ क्यों देख रहा है? उठ, उठकर मुझे ठोकर लगा...!
उसी तरह हँसता है जैसे वह सिपाही हँस रहा था। बिशनी जल्दी से बन्दूक के कुन्दे के सामने आ जाती है।
बिशनी : नहीं मानक, तू इसे नहीं मारेगा! यह भी हमारी तरह गरीब आदमी है। इसकी माँ इसके पीछे रो-रोकर पागल हो गयी है। इसके घर में बच्चा होनेवाला है। वह मर गया तो इसकी बीवी फाँसी लगाकर मर जाएगी...।
मानक बिशनी को झटककर बीच में से हटा देता है।
मानक : मैं इसे नहीं छोड़ूँगा। यह दुश्मन है। मैं इसका अभी मार दूँगा, अभी। यहीं...।
बिशनी : नहीं मानक, तू इसे नहीं मारेगा...।
फिर बीच में आने का प्रयत्न करती है, पर मानक उसे फिर झटककर हटा देता है। बिशनी चारपाई पर गिरकर हाथों में मुँह छिपा लेती है। सिपाही पाश्र्व की ओर हटता है। मानक उसके साथ-साथ आगे बढ़ता है।
मानक : मैं इसे अभी मार दूँगा। अभी इसकी बोटी-बोटी अलग कर दूँगा...।
सिपाही और मानक की आकृतियाँ धीरे-धीरे पाश्र्व में जाकर विलीन हो जाती हैं। बिशनी हाथों में मुँह छिपाये हुए चिल्ला उठती है।
बिशनी : मानक! मानक!
एक साथ चार-छह गोलियाँ चलने और उसके साथ सिपाही के कराहने का शब्द सुनाई देता है। सहसा ख़ामोशी छा जाती है। बिशनी फिर उसी तरह चिल्लाती है।
: मानक! मानक!
मुन्नी जल्दी से करवट बदलकर उठ बैठती है।
मुन्नी : (घबराए हुए स्वर में) माँ!
बिशनी : (उसी तरह) मानक!
मुन्नी जल्दी से उठकर ढिबरी जला देती है। प्रकाश का रंग हलके नीले से फिर पीला हो जाता है। मुन्नी बिशनी की चारपाई पर आ बैठती है।
मुन्नी : क्या बात है, माँ?
बिशनी आँखों से हाथ उठाकर चुँधियायी-सी नज़र से चारों ओर देखती है।
बिशनी : (कुछ खोजती-सी) मानक!
मुन्नी : तुम रोज भैया के ही सपने देखती हो, माँ? मैंने तुमसे कहा था, अगले मंगल को भैया की चिट्ठी ज़रूर आएगी।
बिशनी : (जैसे आत्मगत) चिट्ठी आएगी!...और वह आप...?
मुन्नी : थोड़े दिनों में भैया आप भी आएँगे। तुम आप ही कहती थीं कि वे जल्दी आएँगे और मेरे लिए कड़े और चूडिय़ाँ लाएँगे...।
बिशनी : कड़े और चूडिय़ाँ?...ओ मुन्नी!
उसे अपने साथ सटा लेती है और आँखों से टप-टप पानी बरसने लगता है।
मुन्नी : भैया मेरे लिए जो कड़े लाएँगे, वे तारो और बन्तो के कड़ों से भी अच्छे होंगे न, माँ?
बिशनी आँखें बन्द करके नकारात्मक भाव से सिर हिलाती है, पर शीघ्र ही अपने को सँभाल लेती है।
बिशनी : हाँ बेटी, तेरे कड़े सबके कड़ों से अच्छे होंगे।
मुन्नी : सुच्चे मोतियों के कड़े होंगे न, माँ?
बिशनी : हाँ बेटी, सुच्चे मोतियों के कड़े...!
उसका माथा चूमकर उसे अलग हटा देती है।
: अब सो जा, अभी बहुत रात बाकी है।
मुन्नी अपनी चारपाई पर चली जाती है। बिशनी उठकर ढिबरी बुझा देती है। उसके डिबरी बुझाते ही गहरा अँधेरा छा जाता है। अँधेरे में बिशनी के बुदबुदाने का स्वर सुनाई देता है।
: ताती वा ना लगाई, पार ब्रह्म सहाई।
राखनहारे राखिआ, प्रभु व्याधि मिटाई...।
परदा गिरता है।
समाप्त
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