भारतेंदु के नाटक(theatreartisteofindia)2


कर्पूर मंजरी - सट्टकभारतेंदु हरिश्चंद्र

दोहा
भरित नेह नव नीर नित, बरसत सुरस अथोर।
जयति अपूरब घन कोऊ, लखि नाचत मन मोर ।

(सूत्रधार आता है)
सूत्रधार : (घूमकर) हैं क्या हमारे नट लोग गाने बजाने लगे? यह देखो कोई सखी कपड़े चुनती है, कोई माला गूंधती है, कोई परदे बांधती है, कोई चन्दन घिसती है; यह देखो बंसी निकली, यह बीन की खोल उतरी, यह मृदंग मिलाए गए, यह मंजीरा झनका, यह धुरपद गाया गया। (कुछ ठहर कर) किसी को बुलाकर पूछे तो (नेपथ्य की ओर देख कर) अरे कोई है? पारिपाश्र्वक आता है।
पारि. : कहो, क्या आज्ञा है?
सूत्र. : (सोच कर) क्या खेलने की तैयारी हुई?
पारि. : हां, आज सट्टक न खेलना है।
सूत्र. : किस का बनाया?
पारि. : राज्य की शोभा के साथ अंगों की शोभा का; और राजाओं में बड़े दानी का अनुवाद किया।
सूत्र. : (विचार कर) यह तो कोई कूट सा मालूम पड़ता है (प्रगट) हां हां राजशेखर का और हरिश्चन्द्र का।
पारि. : हां, उन्हीं का।
सूत्र. : ठीक है, सट्टक में यद्यपि विष्कम्भक प्रवेशक नहीं होते तब भी यह नाटकों में अच्छा होता है। (सोच कर) तो भला कवि ने इस को संस्कृत ही में क्यों न बनाया, प्राकृत में क्यों बनाया?
पारि. : आप ने क्या यह नहीं सुना है?
जामैं रस कछु होत है, पढ़त ताहि सब कोय।
बात अनूठी चाहिए, भाषा कोऊ होय ।
और फिर
कठिन संस्कृत अति मधुर भाषा सरस सुनाय।
पुरुष नारि अन्तर सरिस, इन में बीज लखाय ।
सूत्र. : तो क्या उस कवि ने अपना कुछ वर्णन नहीं किया?
पारि. : क्यों नहीं, उस समय के कवियों ने चन्द्रमा अपराजितन ही ने उसका बड़ा बखान किया है।
निरभर बालक राज कवि, आदि अनेक कबीस।
जाके सिखए तें भए, अति प्रसिद्ध अवनीस ।
धवल करत चारहु दिसा, जाको सजस अमन्द।
सो शेखर कबि जग विदित, निज कुल कैरव चन्द ।
सूत्र. : पर भला आज तुम को किस ने खेलने की आज्ञा दी है?
पारि. : अवन्ती देश के राजा चारुधान की बेटी उसी कवि की प्यारी स्त्री ने, और यह भी जान रक्खो कि इस सट्टक में कुमार चन्द्रपाल कुन्तल देश की राजकुमारी को ब्याहेगा। तो अब चलो अपने-अपने स्वांग सजैं, देखो तुम्हारा बड़ा भाई देर से राजा की रानी का भेस धर कर परदे के आड़ में खड़ा है।
(दोनों जाते हैं)

पहिला अंक
स्थान: राजभवन
(राजा, रानी, विदूषक और दरबारी लोग दिखाई पड़ते हैं)
राजा : प्यारी, तुम्हें बसन्त के आने की बधाई है, देखो अब पान बहुत नहीं खाया जाता, न सिर में तेल देकर कस के गूंधी जाती है, वैसे ही चोली भी कस के नहीं बांधी जाती, न केसर का तिलक दिया जा सकता है, इसी से प्रगट है कि बसन्त ने अपने बल से सरदी को अब जीत लिया।
रानी : महाराज! आपको भी बधाई है, देखिए, कामी जन चन्दन लगाने और फूलों की माला पहिरने लगे, और दोहर पाएंते रक्खी रहती है, तौ भी अब ओढ़ने की नौबत नहीं आती।
(नेपथ्य में दो बैतालिक गाते हैं।)
जै पूरब दिसि कामिनी कंत।
चंपावति नगरी सुख समन्त ।
खेलत जीत्यौ जिन राढ़ देश।
मोहत अनंग लखि जासु भेस ।
क्रीड़ा मृग जाको सारदूल।
तन बरन कान्ति मनु हेम फूल ।
सब अंग मनोहर महाराज।
यह सुखद होइ रितुराज साज ।
मन्द मन्द लैं सिरिस सुगधहि सरस पवन यह आवै।
करिं संचार मलय पर्वत पैं बिरहिन ताप बढ़ावै ।
कामिनि जन के बसन उड़ावत काम धुजा फहरावै।
जीवन प्रान दान सो बितरत वायु सबन मन भावै । 1 ।
देखहु लहि रितुराजहि उपबन फूली चारु चमेली।
लपटि रही सहकारन सों बहु मधुर माधवी बेली ।
फूले बर बसन्त बन बन मैं कहुं मालती नबेली।
तापैं मदमाते से मधुकर गूंजत मधुरस रेली । 2 ।
राजा : प्यारी, हम लोग तो आपस में बसन्त की बधाई एक दूसरे को देते ही थे अब इन दोनों कांचनचन्द्र और रत्नचन्द्र बन्दियों ने हम दोनों को बधाई दी। अब तुम इस बसन्तोत्सव की ओर दृष्टि करो। देखो कोइल कैसे पंचम सुर में बोलती है, हवा के झोंके से लता कैसी नाच रही है। तरुन स्त्रियों के जी में कैसा इस का उत्साह छा रहा है और सारी पृथ्वी इस बसन्त की वायु से कैसी सुहानी हो रही है!
रानी : महाराज! बन्दी ने जैसा कहा है हवा वैसी ही बह रही है, देखिए यह पवन लंका के कनगूरों की पद्धति में यद्यपि कैसा चंचल है पर अगस्त मुनि के आश्रम में उन के भय से धीरा चलता है, इस के झोंके से चन्दन कपूर कंकोल और केले के पत्ते कैसे झोंका खा रहे हैं, जंगलों में जहां तहां सांप नाचते हैं और ताम्रपर्णी नदी की लहरों को यह स्पर्श करता है तो उन्हें दूना कर देता है।
देखिये, कोयल मानों कामदेव की आज्ञा से इस चैत के त्यौहार में पुकार रही है कि तरुणिओं झूठा-मान छोड़ो, अपने प्यारे को प्यार की चितवन से देखो, और दौड़-दौड़ के प्रीतम को गले लगाओ, यह चार दिन की जवानी तो बहती नदी है, फिर यह दिन कहां और यह समय कहां?
विदूषक : अरे कोई मुझे भी पूछो, मैं भी बड़ा पंडित हूं, जब मैंने अपना मकान बनाया था तो हजारों गदहों पर लाद लाद कर पोथियों नेव में भरवाई गई थीं और हमारे ससुर जनम भर हमारे यहां पोथी ही ढोते-ढोते मरे, काले अक्षर दूसरों को तो कामधेनु हैं पर हमको भैंस हैं।
विचक्षणा : इसी से तो तुम्हारा नाम लबार पाण्डे़ है।
वि. : (क्रोध से) हत तेरी की, दाई माई कुटनी लुच्ची मूर्ख! अब हम ऐसे हो गए कि मजदूरिनैं भी हमैं हंसै!
विच. : तुम्हारी माई कुटनी है तभी तुम ऐसे सपूत हुए, तुम से तो वे भाट अच्छे जो अभी गीत गा गए हैं, तुम्हैं इतनी भी समझ नहीं है कि कुछ बनाओ और गाओ, यह सेखी और तीन काने।
विदू. : अब हम इन के सामने गावेंगे, इनका मुंह है कि हमारी कविता सुनें हां अगर हमारे दोस्त महाराज कुछ कहें तो अलबत्ते गाऊं।
राजा : हां, हां मित्र पढ़ो, हम सुनते हैं।
विदू. : ‘लाठी पर तमूरा बजा कर गाता है।’
आयो आयो बसन्त आयो आयो बसन्त। बन में महुआ टेसू फुलन्त ।
नाचत है मोर अनेक भांति, मनु भैंस का पड़वा फूलफालि
बेला फूले बन बीच बीच, मानो दही जमायो सींच सींच ।
बहि चलत भयो है मन्द पौन, मनु गदहा का छान्यो पैर ।
तारीफ और वाह वाह करते जाइए नहीं न गाया जायगा,
देखिए संगीत साहित्य दोनों एक ही साथ करना मेरा काम है।
(गाता है)
गेंदा फूले जैसे पकौरि। लड्डू के फले फल बौरि बौरि ।
खेतन में फूले भातदाल। घर में फूले हम कुल के पाल ।
आयो आयो बसन्त आयो आयो बसन्त ।
(सब लोग हंसते हैं)
राजा : भला इनकी कविता तो हो चुकी अब विचक्षणे! तुम भी कुछ पढ़ो।
विदू. : हां हां, हमारी बोली पर हंसती है तो यह पढ़ै बड़ी बोलने वाली इस को सिवाय टें टें करने के और आता क्या है, क्या ऐसी बदमाश स्त्री राजा के महल में रहने के योग्य है? यह रात दिन महारानी का गहना चुरा कर अपने मित्रों को दिया करती है और उस पर हमारे काव्य पर हंसती है, सच है बन्दर आदी का स्वाद क्या जाने, हमारे काव्य पर रीझने वाले महाराज हैं, तू क्या रीझेगी, अब देखते न हैं तू कैसा काव्य पढ़ती है।
रानी : हां हां सखी विचक्षणे! हम लोगों के आगे तो तू ने अपना बनाया काव्य कई बेर पढ़ा है, आज महाराज के सामने भी तो पढ़, क्योंकि विद्या वही जिसकी सभा में परीक्षा ली जाय और सोना वही जो कसौटी पर चढे़ और शस्त्र वही जो मैदान में निकले।
विचक्षणा : महारानी की जो आज्ञा (पढ़ती है)
फूलैंगे पलास बन आगि सी लगाइ कूर,
कोकिल कुहकि कल सबद सुनावैगो ।
त्यौंही सखी लोक सबै गावैगो धमार धीर।
हरन अबीर बीर सब ही उड़ावैंगो ।
सावधान होहुरो वियोगिनी सम्हारि तन,
अतन तनकही मैं तापन तें तावैगो ।
धीरज नसावत बढ़ावत बिरह काम,
कहर मचावत बसन्त अब आवैगो ।
राजा : वाह वाह! सचमुच विचक्षणा बड़ी ही चतुर है और कविता-समुद्र के पार हो गई है, यह तो सब कवियों की राजा होने योग्य है।
रानी : (हंस कर) इस में कुछ सन्देह है हमारी सखी सब कवियों की सिरताज तो हुई।
विदू. : (क्रोध से) तो महारानी स्पष्ट क्यों नहीं कहती कि यह दासी विचक्षणा बहुत अच्छी है और कपिंजल ब्राह्मण बहुत निकम्मा है।
विचक्षणा : हैं हैं! एकबारगी इतने लाल पीले हो गए, जो जैसा है उसका गुण तो उस के काव्य ही से प्रकट हो गया, तुम्हारे काव्य की उपमा तो ठीक ऐसी है जैसे लम्बस्तनी के गले में मोती की माला, बड़े पेट वाली को कामदार कुरती, सिर मुण्डी को फूलों की चोटी और कानी को काजल।
विदू. : सच है, और तुम्हारी कविता ऐसी है सफेद फर्श पर गोबर का चोंथ, सोने की सिकड़ी में लोहे की घण्टी और दरियाई की अंगिया में मूंज की बखिया।
विचक्षणा : खफा मत हो, अपनी ओर देखो, आप आप ही हो, एक अक्षर नहीं जानते तिस पर भी हीरा तौलते हो, और हम सब पढ़ लिख कर भी अब तक कपास ही तौलती हैं।
विदू. : बकबक किये ही जायगी तो तेरा दाहिना और बायां युधिष्ठिर का बड़ा भाई उखाड़ लेंगे।
विचक्षणा : और तुम भी जो टें टें किये ही जाओगे तो तुम्हारी भी स्वर्ग काट के एक ओर के पोंछ की अनुप्रास मूड़ देंगे और लिखने की सामग्री मुंह में पोत कर पान के मसाले का टीका लगा देंगे।
राजा : मित्र! इस के मुंह मत लगो, यह कविताई में बड़ी पक्की है।
विदू. : (क्रोध से) तो साफ साफ क्यों नहीं कहते कि हरिश्चन्द्र और पद्माकर इसके आगे कुछ नहीं है।
(क्रोध करके इधर उधर घूमता है)
विचक्षणा : चल, उसी खूंटी पर लटक जिस पर मेरा लहंगा रक्खा है।
विदूषक : (क्रोध कर और सिर हिला के) और तू भी वहां जा जहां मेरी बुड्ढी मां के दाँत गए। छिः! हम भी बड़े बड़े दरबार से निकाले गए पर ऐसी अंधेर नगरी और चौपट राजा कहीं नहीं। यहां चरणामृत और शराब एक ही बरतन में भरे जाते हैं।
विचक्षणा : भगवान करे इस दरबार से तुझे वह मिले जो महादेव जी के सिर पर है और तुझे वह शास्त्र पढ़ाया जाय जो कांटों को मर्दन करता है।
विदूषक : लौंडिया फिर टें टें किये ही जाती है, खजाना लूट लूट के खाली कर दिया, इस पर भी मोढ़े पर बैठने वाली और गलियों में मारी मारी फिरने वाली, हम कुलीन ब्राह्मणों के मुंह लगती है। जा तुझको सर्वदा वही फांकना पड़े जो महादेव जी अंग में पोतते हैं और तेरे हाथ सदा वही लगे जिसमें धरम बंधता है।
विचक्षण : तेरे इस बोलने पर तो ऐसा जी चाहता है कि पान के बदले चरनदास जी से तेरा मुंह लाल कर दूं। फिट।
विदू. : (बड़े क्रोध से ऊंचे स्वर से) ऐसे दरबार को दूर ही से नमस्कार करना चाहिए जहाँ लौंडियां पण्डितों के मुंह आवैं। यदि हमें इसी उचक्की की बात सहनी हो तो हम बसुंधरा नाम की अपनी ब्राह्मणी ही की न चरनसेवा करें जो अच्छा अच्छा और गर्म-गर्म खाने को खिलावे (ऐसा कहता हुआ क्रोध से चला जाता है) (सब लोग हंसते हैं)।
रानी : महाराजा कपिंजल बिना सभा ऐसी हो गई जैसे बिना काजल का शृंगार।
नेपथ्य में
नहीं नहीं हम नहीं आवेंगे। विचक्षणा को खसम और राजा को मुसाहब कोई दूसरा खोज लो या आज ये हमारा काम वही गलितयौवना और चिपटे नाक कान वाली करेगी।
विचक्षणा : महारानी! आपके आग्रह से यह कपिंजल और भी अकड़ा जाता है, जैसे सन की गांठ भिगाने से उलटी कड़ी होती है, उसको जाने दीजिए इधर देखिए यह गवांरिनों के गीतों और चांचर से मोहित सूर्य यद्यपि धीरे चलता है तो भी अब कितना पास आ गया है।
(विदूषक घबड़ाया हुआ आता है)
विदूषक : आसन! आसन!!
राजा : क्यों?
विदूषक : भैरवानन्द जी आते हैं।
राजा : क्या वही भैरवानन्द जो आज कल के बड़े प्रसिद्ध हैं?
विदूषक : हां, हां।
(भैरवानन्द आते हैं)
भै. न. : जंत्र न मंत्र न ज्ञान न ध्यान न जोग न भोग केवल गुरु का प्रसाद, पीने को मदिरा औ खाने को मांस, सोने को स्त्री मसान का बांस, लाख लाख दासी सब कड़े-कड़े अंग सेवा में हाजिर रहैं पीए मद्य भंग, भिच्छा का भोजन औ चमड़े का बिछौना, लंका-पलंका सातो दीप नवो खण्ड गौना, ब्रह्मा विष्णु महेश पीर पैगम्बर जोगी जती सती बीर महाबीर हनूमान रावन माहिरावन आकाश पाताल जहाँ बांधू तहां रहे जो जो कहूँ सो सो करे, मेरी भक्ति गुरु की शक्ति फुरो मंत्र ईश्वरोवाच, दोहाई पशुपति नाथ की, दोहाई कामाक्षा की, दोहाई गोरखनाथ की।
राजा : महाराज! प्रणाम!
भै. न. : राजा! विष्णु और ब्रह्मा तप करते करते थक गए पर सिद्धि मद्य और स्त्री ही में है यह महादेव जी ही ने जाना है तो वह कापालिकों के परम कुलगुरु शिव तेरा कल्याण करै।
राजा : महाराज, आसन पर विराजिए।
भै. न. : हम रमते लोगों को बैठने से क्या काम, तब भी तेरी खातिर से बैठते हैं। (बैठता है)-बोल, क्या दिखावें?
राजा : महाराज! कुछ आश्चर्य दिखाइए।
भैरवानन्द : क्या आश्चर्य दिखावें?
सूरज बांधू चन्दर बांधू बांधू अगिन पताल।
सेंस समुन्दर इन्दर बांधू औ बांधू जम काल ।
जच्छ रच्छ देवन की कन्या बल लाऊं बांध।
राजा इन्दर का राज डोलाऊं तो मैं सच्चा साध ।
नहीं तो जोगड़ा। और क्या।
राजा : (विदूषक के कान में) मित्र, तुम ने कहीं कोई बड़ी सुन्दर स्त्री देखी हो तो बुलवावें?
विदूषक. : (स्मरण करके) हां! दक्षिण देश में विदर्भ नामक नगर है वहां मैंने एक लड़की बड़ी सुन्दर देखी थी, वही बुलाई जाय।
भैरवानन्द : बोल! बुलाई जाय?
राजा : हां! महाराज! पूर्णमासी का चन्द्रमा पृथ्वी पर उतारा जाय।
भैरवानन्द : (ध्यान करता है)।
(परदे के भीतर से खिंची हुई की भांति एक सुन्दर स्त्री आती है और सब लोग बड़ा ही आश्चर्य करते हैं)
राजा : (आश्चर्य से) आहाहा! जैसे रूप का खजाना खुल गया, नेत्र कृतार्थ हो गए, यह रूप, यह जोबन, यह चितवन, यह भोलापन, कुछ कहा नहीं जाता, मालूम होता है कि वह नहा कर बाल सुखा रही थी उसी समय पकड़ आई है, अहा! धन्य है इसका रूप!!! इसकी चितवन कलेजे में से चित्त को जोराजोरी निकाले लेती है, इसकी सहज शोभा इस समय कैसी भली मालूम पड़ती है, अहा! इसके कपड़े से जो पानी की बूंदें टपकती हैं वह ऐसी मालूम होती हैं मानों भावी वियोग के भय से वस्त्र रोते हैं, काजल आंखों से धो जाने से नेत्र कैसे सुहाने हो रहे हैं, और बहुत देर तक पानी में रहने से कुछ लाल भी हो गए हैं, बाल हाथों में लिए हैं उससे पानी की बूँदें ऐसी टपकती हैं मानो चन्द्रमा का अमृत पी जाने से दो कमलों ने नागिनी को ऐसा दबाया है कि उनके पोंछ से अमृत बहा जाता है, भीगे वस्त्र से छोटे-छोटे इसके कठोर कुच अपनी ऊंचाई और श्यामताई से यद्यपि प्रत्यक्ष हो रहे हैं तौ भी यह उन्हैं बांह से छिपाना चाहती है, और वैसे ही गोरी गोरी जांघैं इस के चिपके हुए भीगे वस्त्र से यद्यपि चमकती हैं तो भी यह उनको दबाए देती है, वरंच इसी अंग उघरने से यह लजाकर सकपकाती सी भी हो रही है और योगबल से खिंच आने से जो कुछ डर गई है, इस से और भी चैकन्नी हो होकर भूले हुए मृगछौने की भाँति अपने चंचल नेत्र नचाती है।
स्त्री : (चकपकानी सी होकर एक एक को देखती है) (आप ही आप) यह कौन पुरुष है जिसका देह गम्भीर और मधुर छबि का मानो पुंज है, निश्चय यह कोई महाराज है और यह भी महादेव के अंग में पार्वती की भांति निश्चय इसकी प्यारी महारानी हैं, (विचार करके) यद्यपि यह एक स्त्री के बगल में बैठा है तौ भी मुझे ऐसी गहरी और तीखी दृष्टि से क्यों देखता है (राजा की ओर देखती है।)
राजा : (विदूषक से कान में) मित्र! अभी तो इसने अपने कानों को छूने वाली चंचल चितवन से मुझे देखा तो ऐसा मालूम हुआ कि मानो मुझ पर किसी ने अमृत की पिचकारी चलाई वा कपूर बरसाया वा चांदनी से एक साथ नहला दिया था मोती का बुक्का छिड़क दिया।
विदूषक : सच्च है, अहाहा! वाह रे इस के रूप की छबि! इसकी कमर एक लड़का भी अपनी मुट्ठी में पकड़ सकता है, और नेत्र की चंचलता देखकर पुरुष क्या स्त्री भी मोह जाती है, देखो यद्यपि इस ने स्नान के हेतु गहना उतार दिया है तो भी कैसी सुहानी दिखाई पड़ती है। सच्च है, सुन्दर रूप को तो गहना ऐसा है जैसा निर्मल जल को काई।
राजा : ठीक है, इसकी छबि तो आप ही कुन्दन की निन्दा करती है। तो गहने से इसे क्या, इसका दुबला शरीर काम की परतंचा उतारी हुई कमान है, और इसके गोरे गोरे गोल गालों में कनफूल की परछाहीं ऐसी दिखाती है जैसे चांदी की थालों में भरे हुए मजीठे के रंग में चंद्रमा का प्रतिबिम्ब, इसके कर्णावलम्बी नेत्र मेरे मन को अपनी ओर खींचे ही लेते हैं।
विदूषक : (हंस कर) जाना जाना! बहुत बड़ाई मत करो।
राजा : (हंस कर) मित्र! हम कुछ झूठ नहीं कहते, तुम्ही देखो, यह बिना आभूषण भी अपने गुणों से भूषित है। जो स्त्रियाँ ऐसी सुन्दर हैं उन पर पुरुष को आसक्त कराने में कामदेव को अपना धनुष नहीं चढ़ाना पड़ता, देखो इसकी चितवन में मिठास के साथ स्नेह भी झलकता है, इसके कान में नीले कमल के फूल झूलते हुए ऐसे सुहाते हैं मानो चन्द्रमा में से दोनों ओर से कलंक निकला जाता है।
रानी : अजी कपिंजल! इनसे पूछो तो यह कौन हैं या मैं ही पूछती हूं। (स्त्री से) सुन्दरी, यहाँ आओ, मेरे पास बैठो और कहो तुम कौन हो?
राजा : आसन दो।
विदूषक : यह मैंने अपना दुपट्टा बिछा दिया है, बिराजौ स्त्री बैठती है,।
विदूषक : हां, अब कहो।
स्त्री : कुन्तल देश में जो विदर्भनगर है, वहां की प्रजा का बल्लभ, बल्लभराज नामक राजा है।
रानी : (आप ही आप) वह तो मेरा मौसा है।
स्त्री : उसकी रानी का नाम शशिप्रभा है।
रानी : (आप ही आप) और यही तो मेरी मौसी का भी नाम है।
स्त्री : (आंख नीची करके) मैं उन्हीं की बेटी हूँ।
रानी : (आप ही आप) सच है, बिना शशिप्रभा के और ऐसी सुन्दर लड़की किस की होगी। सीप बिना मोती और कहाँ हो (प्रगट) तो क्या कर्पूरमंजरी तू ही है?
स्त्री : (लाज से सिर झुका कर चुप रह जाती है)।
रानी : तो आओ आओ बहिन मिल तो लें।
(कर्पूरमंजरी को गले लगा कर मिलती है)
कर्पूरमंजरी : बहिन, यह आज हमारी पहली भेंट है।
रानी : भैरवानन्द जी की कृपा से कर्पूरमंजरी का देखना हमें बड़ा ही अलभ्य लाभ हुआ। अब यह पन्द्रह दिन तक यहीं रहे-फिर आप जोगबल से पहुँचा दीजिएगा।
भैरवानन्द : महारानी की जो इच्छा।
विदूषक : मित्र! अब हम तुम दो ही मनुष्य यहां बेगाने निकले, क्योंकि ये दोनों तो बहिन ही हैं और भैरवानन्द इन दोनों के मिलाने वाले ठहरे, यह सरस्वती की दूसरी कुटनी भी एक प्रकार की रानी ही ठहरी रह, गए हम।
रानी : विचक्षणा! अपनी बड़ी बहन सुलक्षणा से कह कि भैरवानन्द जी की पूजा करके उनको यथा योग्य स्थान दे।
विचक्षणा : जो आज्ञा।
रानी : महाराज! अब हम महल में जाते हैं, क्योंकि बहिन को अभी कपड़ा पहराना और सिंगार करना है।
राजा : इसको सिंगारना तो मानो चंपे के थाल में कस्तूरी भरना है, पर सांझ हो चुकी है अब हम भी तो चलते हें।
नेपथ्य में दो बैतालिक आते हैं,
प. वै. : राग गौरी, भई यह सांझ सबन सुखदाई।
मानिक गोलक सम दिन मनि मनु संपुट दियो छिपाई ।
अलसानी दृग मूंदि मूंदि कै कमल लता मन भाई।
पच्छी निज निज चले बसेरन गावत काम बधाई ।
दू. वै. : रा ग पूरबी, देखो बीत चल्यो दिन प्यारे, आइ गई रतियां
हो रामा। दीपक बरे निकस चले तारे हो, हिलत नहीं पतियां
हो रामा । दासिन महलन सेज बिछाई हो मान गईं मतियां
रामा। काम छोड़ि घर फिरै सबैं नर हो, लगीं तिय छतियां हो
रामा ।
(जवनिका गिरती है।)
पहला अंक समाप्त हुआ।


दूसरा अंक

स्थान राजभवन
(राजा और प्रतिहारी आते हैं)
प्र. : इधर महाराज इधर।
राजा : (कुछ चलकर सोच से) हा! उस समय यह यद्यपि कुच नितम्ब भार से तनिक भी न हिली, परन्तु त्रिबली केतरंग भय श्वास से चंचल थे, और गला तिरछा था, मुखचन्द्र हिलने से वेणी ने कंचुकी का आलिंगन किया था, सो छबि तो भुलाए भी नहीं भूलती।
प्रतिहारी : (आप ही आप) क्या अब तक वही गेंद वही चैगान! अच्छा देखो, हम इनका चित्त बसन्त के वर्णन से लुभाते हैं। (प्रत्यक्ष) महाराज! इधर देखिए, कोकिल के कण्ठ खोलने वाले भ्रमरों की झंकार में माधुर्य उत्पन्न करने वाले और बिरहियों के चित्त पंचम स्वर से घूर्णित करने वाले चैत के दिन अब कुछ बड़े होने लगे।
राजा : (सुनकर अनुराग से) सच है, तभी न लावन्य जल से पूरित अनेक विलास हास के छके सबकी सुंदरता जीतने वाले उस के नील कमल से नेत्रों को स्मरण करके शृंगार को जगाते हुए कामदेव ने वियोगियों पर यह कठिन धनु कान तक तान कर तीर चढ़ाया है, (पागल की भांति) हा! वह हरिननयनी मानो चित्त में घूमती है, उसके गुण नहीं भूलते, सेज पर मानो सोई हुई है, और मेरे साथ ही साथ चलती है, प्रति शब्द में मानो बोलती है, और काव्यों से मानों मूर्तिमान प्रगट होती है, हा! जिसको उसने नेत्र भर नहीं देखा है जब वे बसन्त ऋतु के पंचम गान से मरे जाते हैं तो जिन्हें उसने पूर्णदृष्टि से देखा है उन्हें तो तिलांजुलि ही देना योग्य है। हाय! उसके दूध के धोए सफेद कोए में काली भंवरे सी पुतली कैसे शोभित हैं, जिनकी दृष्टि के साथ ही कामदेव भी हृदय में प्रवृष्ट हो जाता है। (विचार करके) प्यारे मित्र ने क्यों देरी लगाई।
(विचक्षणा और विदूषक आते हैं।)
विदू. : तो विचक्षण तुम सच कहती हो न!
विच. : हां हां सच है, वाह! सच नहीं क्या झूठ कहैंगे!
विदू. : हमको तुम्हारी बात का विश्वास नहीं आता कि तुम बड़ी हंसोड़ हौ।
विच. : वाह! हंसी की जगह हंसी होती है, काम की बात में हंसी कैसी?
विदू. : (राजा को देखकर) अहा! प्यारे मित्र यह बैठे हैं, हा! बिना हंस के मानस, बिना मद के हाथी, तुषार के कमल, दिन के दीपक और प्रातःकाल के पूर्णचन्द्र की भांति महाराज कैसे तनछीन मनमलीन हो रहे हैं।
दोनों : (सामने जाकर) महाराज की जय हो।
राजा : कहो मित्र, तुम्हें विचक्षणा कहां मिली?
विदू. : महाराज! आज विचक्षणा मुझ से मित्रता करने आई थी, इन्हीं बातों में तो इतनी देर लगी।
राजा : क्यों, विचक्षणा तुम से क्यों मित्रता करैगी?
विदू. : क्योंकि आज यह किसी बड़े प्यारे मनुष्य की पति हाथ में लिए है।
राजा : और भला यह केवड़ा कहां से आया?
विच. : केवड़े ही के पत्र पर पत्री लिखी है।
राजा : वसन्त ऋतु में केवड़ा कहां से आया?
विच. : भैरवानन्द जी ने अपने मंत्र के प्रभाव से महारानी के महल के सामने एक लाठी को केवड़े का पेड़ बना दिया, महारानी ने भी आज हिण्डोलनर्तनी चतुर्थी के पर्व में उन्हीं पत्तों से महादेव जी की पूजा की, और दो पत्ता अपनी छोटी बहिन कर्पूरमंजरी को दिया, उस ने भी एक पत्ता मंगला गौरी को चढ़ाया, और दूसरे पत्ते की पुड़िया यह आप के भेंट है जिसमें कस्तूरी के अक्षरों से छन्द लिखे हैं।
(पत्र राजा को देती है)
राजा : (खोल कर पढ़ता है)
जिमि कपूर के हंस सों, हंसी धोखा खाय।
तिमि हम तुम सों नेह करि, रहे हाय पछिताय ।
(इसको बारम्बार पढ़ कर) अहा! यह वही मदन के रसायन अक्षर हैं।
विच. : महाराज! दूसरा छन्द मैंने अपनी प्यारी सखी की दशा में बना के लिखा है; उसे भी पढ़िए।
राजा : (पढ़ता है)
बिरह अनल दहकत नित छाती।
दुखद उसास बढ़त दिन राती ।
गिरत आंसु संग सखि कर चूरी।
तन सम जियन आस भई झूरी ।
विच. : और अब मेरी बहिन ने जो उसका हाल लिखा है वह पढ़िए।
राजा : (पढ़ता है)
तुम बिन तासु उसास गुरु, भए हार के तार।
तन चन्दन पति जात हैं, बिरह अनल संचार ।
तन पीरो दिन चन्दसम, निस दिन रोअत जात।
कबहुं न ताको मुख कमल, मृदु मुसकनि बिकसात ।
राजा. : (लम्बी सांस लेकर) भला कविता में तो वह तुम्हारी बहिन ही है, इसका क्या कहना है।
विदू. : महाराज! विचक्षणा पृथ्वी की सरस्वती और इसकी बहिन त्रैलोक्य की सरस्वती, भला इसका क्या पूछना है, पर हम भी अपने मित्र के सामने कुछ पढ़ना चाहते हैं।
जबसों देखी मृगनयनि, भूल्यो भोजन पान।
निसदिन जिय चिन्तत वहै, रुचत और नहिं आन ।
मलय पवन तापत तनहि, फूल माल न सुहात।
चन्दन लेप उसीर रस, उलटो जारत गात ।
हार धार तरवार से, सूरज सों बढ़ि चन्द।
सबहीं सुख दुखमय भयो, परे प्रान हू मन्द ।
राजा : प्रान न मन्द होंगे, अभी थोड़ी ही देर में लड्डू से जिला दिए जायंगे। अब यह कहो कि रनिवास में फिर क्या क्या हुआ?
विदू. : विचक्षणा, कहो न क्या क्या हुआ?
विच. : महाराज! स्नान कराया, वस्त्र पहिनाया, तिलक लगाया, आभूषण साजे और मनाकर प्रसन्न किया।
राजा : कैसे?
विच. : गोरे तन कुमकुम सुरंग, प्रथम न्हवाई बाल।
राजा : सोतो जनु कचंन तप्यो, होत पीं सों लाल ।
विच. : इन्द्रनीलमणि पैजनी, ताहि दई पहिराय।
राजा : कमल कली जुग घेरि कै, अलि मनु बैठे आय ।
विच. : सजी हरित सारी सरिस, जुगल जंघ कहं घेरि।
राजा : सो मनु कदली पात निज, खंभन लपट्यो फेरि ।
विच. : पहिराई मनि किंकिना, छीन सुकटि तट लाय।
राजा : सो सिंगार मण्डप बंधी, बन्द्रनमाल सुहाय ।
विच. : गोरे कर कारी चुरी, चुनि पहिराई हाथ।
राजा : सों सांपिन लपटी मनहुं, चन्दन साखा साथ ।
विच. : निजकर सों बांधन लगी, चोली तब वह बाल।
राजा : सो मनु खींचत तीर भट, तरकस ते तेहि काल ।
विच. : लाल कंचुकी में उगे, जोबन जुगल लखात।
राजा : सो मानिक संपुट बने, मन चोरी हित गात ।
विच. : बड़े बड़े मुक्तान सों, गल अति सोभा देत।
राजा : तारागन आए मनौ, निज पति ससि के हेत ।
विच. : करनफूल जुग करन में, अतिही करत प्रकास।
राजा : मनु ससि लै द्वै कुमुदिनी, बैठ्यो उतरि अकास ।
विच. : बाला के जुग कान में, बाला सोभा देत।
राजा : òवत अमृत ससि दुहुं तरफ, पियत मकर करि हेत।
विच. : जिय रंजन खंजन दृगनि, अंजन दियो बनाय।
राजा : मनहु सान फेर्‌यौ मदन, जुगल बान निज लाय ।
विच. : चोटी गुथी पाटी सरस, करिकै बांधे केस।
राजा : मनहु सिंगार इकत्र ह्वै , बंध्यो यार के वेस ।
विच. : बहुरि उढ़ाई ओढ़नी, अतर सुबास बसाय।
राजा :फूल लता लपटी किरिन, रवि ससि की मनुआय ।
विच. : एहि विधि सो भूषित करी, भूषण बसन बनाय।
राजा : काम बाग झालरि लई, मनु बसन्त ऋतु पाय ।
विदू. : महाराज! मैं सच कहता हूं।
दृग काजर लहि हृदय वह, मनिमय हारन पाय।
कंचन किंकिनि सों सुभग, ता जुग जंघ सुहाय ।
राजा : (उसकी बात का अनादर करके)
छिः। दृग पग पोंछन को किए, भूषन पायंदाज।
विच. : (क्रोध से) वाह! हम तो गहिने का वर्णन करते हैं और आप उसकी निन्दा करते हैं।
अबि सुन्दर हू कामिनी, बिनु भूषन न सुहाय।
फूंल बिना चम्पक लता, केहि भावत मन भाय ।
राजा : (हंसकर) मूढ़।
बिनु भूषन सोहही, चतुर नारि करि भाव।
चहिअत नहिं अंगूर को, मिश्री मधुर मिलाव ।
विच. : महाराज ठीक है, जो नेत्र कान को छुए लेते हैं उनमें अंजन क्या, और जो मुख चन्द्रमा की निन्दा करता है उसको तिलक क्या, वैसे ही यद्यपि रूप के समुद्र से शरीर में काई से गहिनों की कौन आवश्यकता है, पर यह केवल लोक की चाल है, फूली हुई पीत चमेली को किसने गहिने से सजाया है।
राजा : कपिजंल सुनो, गहिना और कपड़ा तो नाचने वालियों का भूषण है, रूप वही है जो सहज ही चित्त चुरावै, सुभाव ही स्त्री की शोभा है, और गुण ही उसका भूषण है, रसिक लोग कभी ऊपर की बनावट नहीं देखते।
विच. : महाराज! मैं रानी की आज्ञा से केवल उसकी सेवा ही नहीं करती, कर्पूरमंजरी को मेरे प्रेम से मुझ पर विश्वास भी है। इसीसे मैं भी उसे बहुत चाहती हूँ और आप से सच निवेदन करती हूँ कि वह निस्सन्देह विरह से बहुत ही दुखी है। क्योंकि-
मदन दहन दहकत हिए, हाथ धर्‌यो नहिं जात।
करसों ससि की ओट कैं, बितवत सों नित रात ।
मैं तो इतना ही कहे जाती हूँ बाकी सब कपिंजल कहेगा।
(जाती है)
राजा : कहो मित्र और कौन काम है?
विदू. : आज हिण्डोल चतुर्थी के दिन रानी और कर्पूरमंजरी झूला झूलने आवैंगी और महाराज इसी केले के कुंज में छिपकर देखेंगे यही काम है। (कुछ सोचकर) अहा! महारानी बड़ी चतुर हैं तौ भी हमने कैसा छकाया, पुरानी बिल्ली को भी दूध के बदले मट्ठा पिलाया।
राजा : मित्र तुम्हारे बिना और कौन हमारा काम ऐसा जी लगा के करै, समुद्र को चन्द्रमा के सिवाय और कौन बढ़ा सकता है।
(दोनों केले के कुंज में जाते हैं)
विदू. : मित्र इन ऊँचे चबूतरे पर बैठो।
राजा : अच्छा।
(दोनों बैठते हैं)
विदू. : कहो पूर्णिमा का चन्द्र दिखाई पड़ा (एक ओर हाथ से दिखाता है)?
राजा : (देखकर के) अहा! यह तो सचमुच प्यारी का मुखचन्द्र दिखाई पड़ा।
गयो जगत रमनी गरब, पर्‌यो मन्द नभ चन्द।
सकुचि कमल जल मैं दुरे, भई कुमुद छबि मन्द ।
झूलनि मैं किंकिन वजन, अंचल पट फहरान।
को जोहत मोहत नहीं, प्यारी छबि इहि आन ।
विदू. : आप सूत्रधार थे इससे आप ने बहुत थोड़े में कहा, हम भाष्यकार हैं इससे हम विस्तारपूर्वक कहते हैं।
फूली फूलबेली सी नवेली अलबेली बधू,
झूलत अकेली काम केली सी बढ़ति है।
कहैं पद्माकर झमंकी की झकोरन सों,
चारों ओर सोर किंकिनीन को कढ़ति है ।
उर उचकाई मचकीन की झकोरन सों,
लंककि लचाय चाय चौगुनी चढ़ति है।
रति बिपरीत की पुनीत परिपाटी सुतौ,
हौसनि हिण्डोरे की सुपाटी मैं पढ़ति है । 1 ।
छाइहौं मलारे औ जमाइहौं हिये में छबि,
छाइहौं छिगुनि कुंज कुंजहीं के कोरे मैं।
कहैं पद्माकर पियाइहौं पियाला मुख,
मुख सों मिलाइहौं सुगंध के झकोरे मैं ।
नेह सरसाइहौं सिखाइहौं जो सासन मैं,
पाइहौं परी सो सुख मैंन के मरोरे मैं।
उर उर सरझाइहौं हिए सों हिए लाइहौं,
झुलाइहौं कबैंधो प्रानप्यारी हिण्डोरे मैं । 2 ।
रहसि रहसि हंसि हंसि के हिण्डोरे चढ़ीं,
लेत खरी पेंगें छबि छाजें उसकन मैं।
उड़त दुकूल उघरत भुज मूल बढ़ी,
सुखमा अतूल केस फूलन खसन मैं ।
बोझल ह्वै देखि देखि भये अनिमेख लाल,
रीझत विसूर श्रम सीकर मसन मैं।
ज्यौं, ज्यौं, लचि लचि लंक लचकत भावती की,
त्यौं त्यौं पिय प्यारो गहैं आंगुरी दसन मैं । 3 ।
झूलत पाट की डोरी गहे, पटुली पर बैठन ज्यों उकुरू की।
देवजू दै मचकी कटि बाजत, किंकिनि केहर गोल उरू की ।
सीखन के विपरीत मनों ऋतु पावस ही चटसार सुरू की।
खोंटी पटैं उचटैं तिय चोंटी चमोटी लगै मानों काम गुरू की ।
भूलति ना वह झूलनि बाल की, फूलनि भाल की लाल पटी की।
देव कहै लटकै कटि चंचल चोली दृगंचल चाल नटी की ।
अंचल की फहरान हिये, रहि जान पयोधर पीन तटी की।
किंकिनि की झमकानि झुलावनी, झूकनि झुकि जानि कटी की । 5 ।
राजा : हाय हाय! कर्पूरमंजरी झूले से क्यों उतरी? झूला क्या खाली हुआ, हमारे मन के साथ देखने वालों के नेत्र भी खाली हुए।
विदू. : क्या बिजली की भांति चमक कर छिप गई?
राजा : नहीं, बरन छलावे की भांति दिखाई पड़ी और फिर अन्तर्धान हो गई। ख्स्मरण कर के,
गोरी सो रंग उमंग भर्‌यो चित, अंग अनंग को मंत्र जगाए।
काजर रेख खुभी दृग मैं दोउ, भौंहन काम कमान चढ़ाए ।
आवनि बोलनि डोलनी ताकी, चढ़ी चित में अति चोप बढ़ाए।
सुन्दर रूप सो नैनन में बस्यो, भूलत नाहिनै क्यों हूं भुलाए ।
विदू. : मित्र, यही पन्ने का कुंज है, यहाँ बैठ के आप आसरा देखिए, अब सांझ भी हुआ चाहती है।
(दोनों बैठते हैं)
राजा : मित्र, अब तो उसका बिरह बहुत ही तपाता है।
विदू. : तो हमारा लाठी पकड़े दम भर बैठे रहो तब तक ठण्ढाई की तयारी लावें।
(कुछ आगे बढ़ कर) वाह! क्या विचक्षणा नहीं आती है?
राजा : ज्यौं ज्यौं संकेत का समय पास आता है, त्यौं त्यौं उत्कण्ठा कैसी बढ़ती जाती है!
(लम्बी सांस लेकर)
ससि सम मुख दृग कुमुद से, करपद कमल समान।
चम्पा सो तन तदपि वह, दाहत मोहि सुजान ।
विदू. : अहा! विचक्षणा तो ठण्ढाई लिए ही आती है।
(विचक्षणा आती है।)
विच. : अहा! प्यारी सखी को बिरह का ताप कैसा सता रहा है!
विदू. : (पास जाकर) यह क्या है?
विच. : ठण्ढाई।
विदू. : किसके लिए?
विच. : प्यारी सखी के वास्ते।
विदू. : तो आधी हम को दो।
विच. : क्यौं?
विदू. : महाराज के वास्ते।
विच. : कारण?
विदू. : ”कर्पूरमंजरी के वास्ते“ कारण।
विच. : तुम क्या नहीं जानते महाराज का वियोग?
विदू. : तो तुम क्या नहीं जानती कर्पूरमंजरी का वियोग?
(दोनों हंसते हैं)
विच. : तो महाराज कहां हैं?
विदू. : तुम्हारी आज्ञानुसार पन्ने के कुंज में।
विच. : तो तुम भी वहां जाके बैठो! दम भर में ठण्ढाई के बदले दोनों को दर्शन ही से तरावट पहुंच जायगी।
विदू. : तो वहां जाओ जहां से फिर न बहुरो।
(विचक्षणा को ढकेलता है)
(दोनों आपस में धक्का मुक्की करते हैं)
विच. : छोड़ो छोड़ो! रानी की आज्ञानुसार कर्पूरमंजरी आती होगी।
विदू. : रानी जी की क्या आज्ञा है?
विच. : महारानी ने तीन पेड़ लगाये हैं।
विदू. : किस के?
विच. : कुरवक, तिलक और अशोक के।
विदू. : फिर?
विच. : महारानी ने कहा है कि सुन्दर स्त्रियों के आलिंगन से कुरवक, देखने से तिलक और पैर के छूने से अशोक फूलता है, इस से तुम जाकर मेरे कहे अनुसार सब काम अभी करो, सो वह आती होगी।
विदू. : तो पन्ने के कुंज से प्यारे मित्र को लाकर इन तमालों की आड़ में बैठावें।
(राजा को लाकर तमाल के पास बैठाता है)
विदू. : मित्र सावधान होकर अपने मन रूपी समुद्र के चन्द्रमा को देखो।
राजा : (देखता है)
(सजी सजाई कर्पूरमंजरी आती है)
कर्पूर. : कहां है विचक्षणा?
विच. : (पास जाकर) सखी, रानी की आज्ञा पूरी करो।
राजा : मित्र, कौन सी आज्ञा?
विदू. : घबराओ मत, चुपचाप बैठे बैठे देखा करो।
विच. : यह कुरवक का पेड़ है।
कर्पूर. : (आलिंगन करती है)
राजा : करत अलिंगन ही अहो, कुरवक तरु इक साथ।
फूल्यो उमगि अनन्द सों, परसि पियारी हाथ ।
विदू. : मित्र, यह अद्भुत इन्द्रजाल देखो, जिससे छोटा सा कुरवक का पेड़ कैसा एक साथ फूल उठा! सच है, दोहद के ऐसे ही विचित्र गुण होते हैं।
विच. : और सखी यह तिलक का पेड़ है।
कर्पू. : (देर तक उसी की ओर देखती है)
राजा : अहा, काजर भीनी काम निधि दीठि तिरीछी पाय।
भर्‌यो मंजरिन तिलक तरु, मनहु रोम उलहाय ।
विच. : सखी, अब इस अशोक की पारी है।
कर्पूर. : (वृक्ष को लात मारती है।)
विच. : नूपुर बाजत पद कमल, परसत तुरत अशोक।
फूल्यौ तजि सब सोक निज,प्रगटि कुसुम कल थोक ।
विदू. : मित्र, महारानी ने यह दोहद आप ही क्यौं न किया, आप इस का कारण कुछ कह सकते हैं?
राजा : तुम्ही जानो।
विदू. : मैं कहूं, पर जो आप रूठ न जायं?
राजा : भला इसमें रूठने की कौन बात है, निस्सन्देह जो जी में आवे कह डालो।
विदू. : जदपि उतै रूपादि गुन, सुन्दर मुख तन केस।
पै इत जोबन नृपति की, महिमा मिली विसेस ।
राजा. : जदपि इत जोबन नवल, मधुर लरकई चारु।
पै उत चतुराई अधिक, प्रगटन रस व्यौहारु ।
विदू. : सच है जवानी और चतुराई में बड़ा बीच है।
(नेपथ्य में बैतालिक गाते हैं)
(राग चैती गौरी)
मन भावनि भई सांझ सुहाई। दीपक प्रकट कमल सकुचाने
प्रफुलित कुमुदिनि निसि ढिग आई।। ससि प्रकाश पसरित तारागण
उगन लगे नभ में अकुलाई। साजत सेज सबै जुवती जन पीतम
हित हिय हेत बढ़ाई। फूले रैन फूल बागन में सीतल पौन चली
सुखदाई। गौरी राग सरस सुर सब मिलि गावत कामिनि काम
बधाई ।
राजा : मित्र, देखो सन्ध्या हुई।
विदू. : तभी न बन्दियों ने सांझ के गीत गाए।
कर्पूर. : सखी अंधेरा होने लगा, अब चलो।
विच. : हां, चलना चाहिए।

(जवनिका गिरती है)इति द्वितीय अंक।



तीसरा अंक

स्थान राजभवन
(राजा और विदूषक आते हैं)
राजा : (स्मरण करके)। उसकी मधुर छबि के आगे नया चन्द्रमा, चम्पे की कली, हलदी की गांठ, तपाया सोना और केसर के फूल कुछ नहीं हैं। पन्ने के हार और मालती की माला से शोभित उसका कण्ठ जी से नहीं भूलता और उसके कर्णावलम्बी नेत्र मेरे जी में अब तक खटकते हैं।
विदू. : मित्र, स्त्रीजितों की भांति तुम क्यों व्यर्थ बकते हौ?
राजा : मित्र, स्वप्न में हमने ऐसा ही मनुष्य रत्न देखा है।
विदू. : कैसा?
राजा : मैंने देखा है कि वह कमलबदनी हंसती हुई मेरी सेज के पास आकर नीलकमल घुमाकर मुझे मारने चाहती है और जब मैंने उसका अंचल पकड़ा है तो वह चंचल नेत्रों को नचाकर अंचल छुड़ाकर भाग गई और मेरी नींद भी खुल गई।
विदू. : (आप ही आप) तो कुछ हम भी कहैं। (प्रकट) मित्र, मैंने भी एक सपना देखा है!
राजा : (आशा से) हां मित्र, कहो कहो।
विदू. : हमने देखा है कि देवगंग के सोते में सोते सोते हम महादेव जी के सिर पर खेलने वाली नदी में जा पहुँचे हैं और फिर शरद ऋतु के मेघों ने हमको पेट भर के पीया है और तब हम हवा के घोड़े पर आकाश की सैर करते फिरते हैं।
राजा : (आश्चर्य से) हां, फिर?
विदू. : फिर उसी मेघ में गुब्बारे की भांति बैठे बैठे ताम्रपर्णी नदी में पहुंचे हैं और जब सूर्य चित्रा नक्षत्र में गये तब समुद्र के ऊपर जाके वह मेघ बड़ी बड़ी बूंद से बरसने लगा और एक सीप ने मुंह खोल कर हमें भली भांति पीया है और उसके पेट में जाते ही हम छ माशे के मोती हो गये।
राजा : (आश्चर्य से) फिर?
विदू. : फिर हम समुद्र की लहरों से टक्कर लड़े और सैंकड़ों सीपों में घूमते फिरे। अन्त में घिस घिसा कर सुन्दर गोल मटोल चमकीले मोती बन गए और हम को पूर्व जन्म का स्मरण ज्यों का त्यों बना रहा।
राजा : (आश्चर्य से) फिर क्या हुआ?
विदू. : फिर समुद्र से वह सीप निकाल कर फाड़ी गई, तब हम एक दाने से चैंसठ होकर बाहर निकले और लाख अशरफी पर एक सेठ के हाथ बिके और जब उसने उन मोतियों को बिधवाया तो हमको बड़ी पीड़ा हुई।
राजा : (आश्चर्य से) फिर क्या हुआ?
विदू. : फिर उस सेठ ने दस दस छोटे मोतियों के बीच हमें पिरोकर एक माला बनाई। तब हमारा दाम करोड़ों अशरफी से भी बढ़ गया और सोने के डिब्बे में रख के सागरद ा सेठ ने पंजाब देश के कर्णउझ नगर के राजा श्री वज्रायुध के हाथ हमें बेच डाला।
राजा : (घबड़ाकर) फिर क्या हुआ?
विदू. : फिर उसकी रानी के सुन्दर गले में थोड़ी देर तक हम झूला झूलते रहे, पर जब राजा ने उसका आ¯लगन किया तो कठोर स्तर के धक्कों से पिस कर हम ऐसे चिल्लाये कि नींद खुल गई।
राजा : (हंसता है) समझा, यह तुम हमारा परिहास करते हो।
विदू. : परिहास नहीं, ठीक कहते हैं। राज्य से छुटा हुआ राजा, कुटुम्ब में फँसी बालरण्डा, भूखा गरीब ब्राह्मण, और बिरह से पागल पे्रमी लोग मन के ही लड्डू से भूख बुझा लेते हैं। भला मित्र, हम यह पूछते हैं कि यह सब किसका प्रभाव है?
राजा : प्रेम का।
विदू. : भला रानी से इतना स्नेह होते भी कर्पूरमंजरी पर इतना प्रेम क्यौं करते हौ और फिर रानी रूप आदिक में किससे कमती है?
राजा : यह मत कहो। किस-किस मनुष्य से ऐसी प्रेम की गांठ बंध जाती है कि उसमें रूप कारण नहीं होता। ऐसे प्रेम में रूप और गुण तो केवल चवाइयों के मुंह बंद करने के काम आता है।
विदू. : तो प्रेम नाम आप के मत से किसका?
राजा : नव यौवन वाले स्त्री पुरुषों के परस्पर अनेक मनोरथों से उत्पन्न सहज चित्त के विकार को प्रेम कहते हैं।
विदू. : और उसमें गुण क्या क्या हैं?
राजा : परस्पर सहज स्नेह अनुराग के उमंगों का बढ़ना, अनेक रसों का अनुभव, संयोग का विशेष सुख, संगीत साहित्य और सुख की सामग्री मात्र को सुहाना कर देना और स्वर्ग का पृथ्वी पर अनुभव करना।
विदू. : और वह जाना कैसे जाता है।
राजा : लगावट की दृष्टि, नेत्रों का चंचल और चोर होना, अंग अंग के अनेक भाव और मुख की आकृति से।
विदू. : हमारी जान में चित्त में जो बिहार के उत्साह होते हैं उसी का नाम प्रेम है और उस को रूप नहीं है तौ भी मनुष्य में प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है। जहाँ कामदेव का इन्द्रजाल यह प्रेम स्थिर है वहाँ आभूषण और द्रव्य से क्या?
राजा : (हंस कर) इसको द्रव्य और आभूषण ही की पड़ी रहती है। अरे!
कहा अभूषन कह वसन, का अनेक सिंगार।
तिय तन सो कछु और ही; जो मोहत संसार ।
खंजनमद गंजन करन; जग रंजन जे आहिं।
मदन लुकंजन सरिस दृग, कह अंजन तिन माहिं ।
धन कुल की मरजाद कछु, प्रेमपन्थ नहिं होत।
राव रंक सब एक से, लगत प्रनय रस सोत ।
धनिक बधू जो छबि लहत; बेदी रतन जराय।
ग्रामवधूटी हूँ सुई, कुंकुम तिलक लगाय ।
”अगियारे तीखे दृगनि, किती न तरुनि जहान।
वह चितवनि कछु और ही, जिहिं बस होत सुआन“ ।
विदू. : यह ठीक है, पर लड़कई में जो रूप रहता है जवानी के सौन्दर्य से उससे कोई सम्बन्ध नहीं। यह क्यों?
राजा : हमारे जान में जन्म लेने वाला विधि दूसरा है और उन्नत कुच उत्पन्न करने वाला दूसरा है। सुन्दरता से भरा अंग, कर्णावलम्बी नेत्र, हारशोभी स्तन, क्षीण मध्यदेश और गोल नितम्ब यही पांच अंग कामदेव के मुख्य सहायक होते हैं।
(नेपथ्य में)
हाय! इस ठण्ढे घर में भी कर्पूरमंजरी पसीने से तर हुई जाती है इस से इसे पंखा झलें।
सखी कुरंगिक! यह हिम उपचार तो मुझ कमल की लता को और भी मुरझा देगा।
कमलनाल विषजाल सम, हार भार अहि भोग।
मलय प्रलय जल अनल मोहि, वायु आयु हर रोग ।
विदू. : प्यारे मित्र ने सुना! तो अब इस अमृत के प्याले की उपेक्षा कब तक करोगे, चलो धूप से सूखती कमलिनी, बिना पानी की केसर की क्यारी, बालक के हाथ में रोली की पुतली, हरने के सींग में फंसी हुई चन्दन की डाल, और अनाड़ी के हाथ पड़ी मोती की सी कर्पूरमंजरी की दशा है, इससे चल कर शीघ्र ही उसको प्राणदान दो, लो न तुम्हारा सपना तो सच्च हुआ, चलो काम की पताका उड़ाओ, मदनमंत्र के हुंकार के साथ ही स्वेद का अभिषेक भी होय, चलो इसी खिड़की से चलें। (खिड़की की ओर चलना नाट्य करते हैं) (भीतरी परदा उठता है और एक घर में कुरंगिका और कर्पूरमंजरी बैठी दिखाई देती हैं)।
कर्पूर. : (राजा को देखकर घबड़ा के) अहा! क्या पूर्णिमा का चन्द आकाश से उतर आया या भगवान शिव जी ने रति की अधीनता पर प्रसन्न होकर फिर से कामदेव को जिला दिया, या वही छलिया आता है जिसने चित्त चुरा कर ऐसा धोखा दिया। सखी! यह कुछ इन्द्रजाल तो नहीं है?
विदू. : (राजा को दिखा कर) हां, सचमुच यह इन्द्रजाल का तमाशा है।
कर्पूर. : (लाज से सिर नीचे कर लेती है)
कुरंगि. : सखी! महाराज खड़े हैं और तू आदर करने को नहीं उठती?
कर्पूर. : (उठा चाहती है)
राजा : बस बस, प्यारी, तुम अपने कोमल अंगों को क्यों दुख देती हो? जहां की तहां बैठी रहो।
कुच नितम्ब के भार सों, लचि न जाय कटि छीन।
रहो रहो, बैठी रहो, करौ न आज नवीन ।
विदू. : हाय हाय! कर्पूरमंजरी को बड़ा पसीना हो रहा है। अच्छा, पंखा झलैं (अपने दुपट्टे से पंखा झलता हुआ जान बूझ कर दिया बुझा देता है)। हहहह! बड़ा आनन्द हुआ। दिया गुल पगड़ी गायब। अब बड़ा आनन्द होगा। महाराज! देखिए कुछ अन्धेर न हो।
राजा : तो सब लोग छत पर चलें, आओ प्यारी तुम हमारा हाथ पकड़ लो और अपनी मन्द चाल से हंसों को लजाओ (स्पर्श सुख नाट्य करके) अहा! तुम्हारे अंग से छू जाते ही कदम्ब की भाँति हमारा अंग पुष्पित हो गया।
(सब लोग चलना दिखाते हैं)
(नेपथ्य में प्रथम बैतालिक)
नव ससि उदय होइ सुखदायक। कुमकुम मुख मण्डित तिय मुख सम, देखहु उग्यो जामिनीनायक। अरुन दिसा प्राची रंग राची, तरुन करुन बिरही जन घायक। रजनी लखि सजनी अनंग अब, तजत किरिन मिस तकि तकि सायक । पत्ररन्ध तें छनि छनि आवत, चंदनि रस सिंगार की वायक। तारागन प्रगटित नभ मण्डल, ससि राजा के संग जनु पायक। बिहरत तरुनि संजोगिन सों मिलि, लहि सब सुख रसिकन के लायक। प्रफुलित कुमुद देखि सरवर मह, गावत काम बधाई गायक ।
(नेपथ्य में चन्द्रमा का प्रकाश होता है)
विदू. : कनकचन्द्र गा चुका अब माणिकचन्द्र गावै।
(नेपथ्य में दूसरा बैतालिक गाता है)
रैन संजोगिन कों सुखदाई।
तजत मानिनी मान चन्द लखि, दूती तिन कहं चलत लिवाई।
कोमल सेज तमोल फूल मधु, सुखद साज सब धरे सजाई।
बिहरहिं कामिनि कामी जन संग, लूटहिं सुख पीतम ढिग पाई ।
विदू. : दिसावधू चन्दन तिलक, नभ सरवर को हंस।
काम कंद सम नभ उदित, यह ससि जगत प्रसंस ।
कुरं. : चन्द उदय लखि कै मदन, कानन लों धनु तानि।
जीत्यौ जग जुव जन सबैं, निसि निज अति बल जानि ।
(कर्पूरमंजरी से) सखी अब तेरा बनाया चन्द्रमा का वर्णन महाराज को सुनाती हूं।
कर्पूर. : (लज्जा नाट्य करती है।)
कुरं. : ससि अति सुन्दर ताहि कहुं दृष्टि नाहि लगि जाय।
तातें दैव कलंक मिस, दियौ दिठौना लाय ।
राजा : वाह वाह! जैसा छन्द वैसे ही बनाने वाले। फिर क्या पूछना है, कोमल मुख से जो अक्षर निकलेंगे वह क्यों न कोमल होंगे पर-
सिर दै कस्तूरी तिलक, सब विधि ससि छबि धारि।
तुमहू तौ मम मन कुमुद, विकसावति सुकुमारि ।
(चन्द्रमा की ओर)
तजौ गरब अब चन्द तुम, भूलौ मत मन माहिं।
क्रोध हंसनि भ्रूभंग छबि, तुम मैं सपनेहु नाहिं ।
(नेपथ्य में कोलाहल)
राजा : यह क्या कोलाहल है?
क.मं. : (भय से) कुरंगिके! देखो तो यह क्या है?
(कुरंगिका बाहर होकर आती है।)
विदू. : जान पड़ता है कि यह सब बात रानी ने जान ली।
कुरं. : हां ठीक है, महारानी हम लोगों को पकड़ने यहाँ आती हैं वही कोलाहल है।
क.मं. : (डर कर) तो हम लोग अब इस सुरंग की राह से महल में जाते हैं जिसमें महारानी महाराज के साथ हमैं न देखें।
(सब जाना चाहते हैं। जवनिका गिरती है)
इति तृतीय अंक

चौथा अंक

(राजा और बिदूषक आते हैं)
राजा : अहा! ग्रीष्म ऋतु भी कैसा भयानक होता है! इस ऋतु में दो बातैं अत्यन्त असह्य हैं-एक तो दिन की प्रचण्ड धूप, दूसरे प्यारे मनुष्य का वियोग।
विदू. : संसार में दो प्रकार के मनुष्य होते हैं-एक सुखी एक दुखी। हम अच्छे न सुखी न दुखी, न संयोगी न वियोगी।
(नेपथ्य में मैना बोलती है)
तो तेरा सिर टूट बेल सा क्यौं नहीं गिर पड़ता?
राजा : मित्र खिलवाड़िन मैना क्या कहती है, सुनो।
विदू. : (क्रोध से) अच्छा दुष्ट दासी देख अभी तुझको पकड़ कर मरोड़ डालते हैं।
(नेपथ्य में मैना बोलती है)
हां हां, निपूते जो हमैं पर न होते तू सब करता।
राजा : (देख कर) क्या मैना उड़ गई? (विदूषक से) कामी जनों की प्यारी इस गरमी की ऋतु में जब निशारूपी मैना जल्दी से उड़ जाती है तो यह मैना क्यों न उड़ै। क्यौं न हो, वा संयोगियों को तो ग्रीष्म भी सुखद ही है। दोपहर तक ठण्डे चन्दन का लेप, तीसरे पहर महीन गीले कपड़े, पु$हारे, खसखाने और सांझ को जल बिहार और हिम से ठण्ढी की हुई मदिरा और पिछली रात ठण्ढी हवा में विहार इत्यादि इस ऋतु में भी सुुख के सभी साज हैं, पर जो करने वाला हो।
विदू. : ऐसा नहीं, मुंह भर के पान, पानी से फूली हुई सुपारी और कपूर की धूर और मीठा भोजन ही गरमी में सुखद होता है।
राजा : छिः, इस गरमी में भी तुझे पान और मीठे भोजन की पड़ी है। गरमी में तो वायु के संयोग से जल, हिम में रखने से मदिरा, चन्दनलेप करने से स्त्री, सुन्दर कण्ठ पाकर फूल और पंचम स्वर से पूरित होकर वंशी यही पांच वस्तु ठण्डी हैं। तथा सिरीस के फूल के गहने, बेल की चोटी, मोतियों के हार, चम्पे की चम्पाकली, नेवारी के गजरे, जल भरी कुमुद की बिना डोरे की माला और हाथ में कमलनाल के कंकण यही सुन्दरियों को रत्नाभरण के बदले योग्य शृंगार हैं।
विदू. : हम तो यही कहेंगे कि दोपहर को चन्दन लगाए, साँझ को नहाए मन्दवायु से कान का फूल हिलाने वाली स्त्री ही गरमी में सुखद होती है।
राजा : (याद करके) देखो, जिन के प्यारे पास हैं उनको गरमी के बड़े दिन एक क्षण से बीतते हैं, पर जो अपने प्यारे से दूर पड़े हैं उनको तो ये दिन पहाड़ से भी बड़े हो जाते हैं, (विदूषक से) मित्र, कुछ उसी की बात कहो।
विदू. : हां मित्र, सुनो, बहुत अच्छी-अच्छी बात कहेंगे। जब से कर्पूरमंजरी को गुप्त घर की सुरंग के दरवाजे पर महारानी ने देख लिया है तबसे सुरंग का मुंह बन्द करके अनंगसेना, क¯लगसेना, बसन्तसेना और विभ्रमसेना, नामक चार सखियों को नंगी तलवार लेकर पूरब में, अनंगलेखा, चन्दनलेखा, चित्रलेखा, मृगांकलेखा, और विभ्रमलेखा इन पांच सखियों को धनुष देकर दक्षिण में, और कुन्दनमाला, चन्दनमाला कुबलमाला, कांचनमाला, वकुलमाला, मंगलमाला और माणिक्यमाला इन सात संखियों को चोखे भाले देकर पश्चिम दरवाजे पर, और अनंगकेलि, कर्पूरकेलि, कंदर्पकेलि और सुंदरकेलि, इन चार सखियों को खंग देकर उत्तर की ओर पहरे के वास्ते रक्खा है और भी हजारों हथियारबन्द सखी चारों ओर फिरा करती हैं, और मदिरावती, केलिवती, कल्लोलवती, तरंगवती और तांबूलवती ये पांच सोने की छड़ी हाथ में लेकर उस सेना की रक्षा करती है।
राजा : वाह रे ठाट बाट! महारानी सचमुच अपने महारानीपन पर आ गईं।
विदू. : मित्र, महारानी के यहाँ से सारंगिका नाम की सखी कुछ कहने को आती है।
(सारंगिका जाती है)
सारंगिका : महाराज की जय हो। महाराज! महारानी ने निवेदन किया है कि आज बटसावित्री का उत्सव होगा सो महाराज छत पर से देखें।
राजा : महारानी की जो आज्ञा।
(सारंगिका आती है)
(राजा और विदूषक छत पर चढ़ना नाट्य करते हैं)
विदूषक : देखिए, मोतियों के गहने से लदी हुई नृत्य में वस्त्र फहराने वाली स्त्रियां हीरे के नगीने से जलकणों में कैसा परस्पर खेल रही हैं, इधर विचित्र प्रबंध से घूमने वाली, फिरकी की भांति नाचने वाली और सम पर पांव रखने वाली स्त्रियां कैसा परस्पर नाच रही हैं, कोई मण्डल बाँधकर पंक्ति से, कोई दूसरी का हाथ पकड़कर और कोई अकेली ही नाचती है। नृत्य के श्रमश्वास के कुचों पर हार कम्पित होकर देखने वालों के नेत्र और मन को अपनी ओर बुलाते हैं, सब देश की स्त्रियों के स्वांग बन कर कुछ स्त्रियाँ अलग ही कौतुक कर रही हैं। यह देखिये जिस ने भीलनी का स्वांग लिया है वह कैसी निल्र्लज्ज और मत्तचेष्ठा करती है? वैसे ही जो गंवारिन बनी है वह अपनी सहज सीधी और भोली चितवन से अलग चित्त चुराती है; कोई गाती है, कोई हंसती है, कोई नकल करती है सब अपने-अपने रंग में मस्त है।
(सारंगिका आती है)
सार. : (आप ही आप) अहा! महाराज तो छत पर पन्ने के बंगले में बैठे हैं (प्रगट) महाराज की जय हो। महाराज! महारानी कहती हैं कि हम सांझ को महाराज का ब्याह करैंगे।
विदूषक : ह हा ह हा! वाह! क्या अच्छी बे समय की रागिनी छेड़ी गई है।
राजा : सारंगिके! सविस्तार कहो, तुम्हारी बात हमारी समझ में नहीं आती।
सारं. : विगत चतुर्दशी को महारानी ने मानिक्य की गौरी बना कर भैरवानन्द जी के हाथ से प्रतिष्ठा कराई थी, सो जब महारानी ने भैरवानन्द जी से कहा कि आप कुछ गुरुदक्षिणा मांगिये तब उन्होंने कहा, ”ऐसी गुरुदक्षिणा दो जिसमें महाराज का कल्याण भी हो और वे प्रसन्न भी हों, अर्थात् लाट देश के राजा चन्द्रसेन की कन्या घनसारमंजरी को ज्योतिषियों ने बताया है कि जिससे इसका विवाह होगा वह चक्रवर्ती होगा। उसका महाराज से विवाह कर दो यही हमें गुरुदक्षिणा दो।“ महारानी ने भी स्वीकार किया और इसी हेतु मुझे आपके पास भेजा है।
विदू. : वाह वाह! सिर पर सांप और काबुल में वैद्य, आज ब्याह और लाट देश में घनसारमंजरी।
राजा : इससे क्या! भैरवानन्द के प्रभाव से सब निकट है।
सारं. : महाराज, आम की बारी वाली चामुण्डा के मन्दिर में महारानी और भैरवानन्द जी आपका ब्याह करैंगे सो आप यहां से कहीं मत टलियेगा।
(जाती है)
राजा : वह बस भैरवानन्द जी का प्रभाव है।
विदू. : सच है, चन्द्र बिना चन्द्रकान्तमणि को और कौन द्रवावै?
(एक ओर बगीचे और मन्दिर का दृश्य)
(भैरवानन्द आता है)
भैरवानन्द : इस बट के मूल में सुरंग के दरवाजे पर चामुण्डा की मूर्ति है तो यहीं ठहरैं। (हाथ जोड़कर) कल्पान्त महास्मशान रूपी क्रीड़ा मन्दिर में ब्रह्मा की खोपड़ी के कटोरे में राक्षसों का उष्ण रुधिर रूपी मद्यपान करने वाली कराली काली को नमस्कार है। (आगे बढ़कर) अभी तक कर्पूरमंजरी नहीं आई?
(सुरंग का मुंह खुलता है और उसमें से कर्पूरमंजरी निकलती है)
क. म. : महाराज प्रणाम करती हूं।
भै. न. : योग्य वर पाओ! आओ, यहां बैठो।
क. म. : (बैठती है)।
भै. न. : अब तक रानी नहीं आई?
(रानी आती है)
रानी : (आगे देख कर) अरे यही चामुण्डा है? और कर्पूरमंजरी भी बैठी है। (भैरवानन्द से) महाराज, ब्याह की सामग्री से आवें।
भै. न. : हां रानी।
रानी : (आगे बढ़ती है।)
भै. न. : (हंस कर) यह खोजने गई है कि हमारे पहरे में से कर्पूरमंजरी कैसे चली आई? तो अच्छा बेटा कर्पूरमंजरी तुम सुरंग की राह से जाकर अपनी जगह पर बैठो, जब रानी देख ले तब चली आना।
क. म. : जो आज्ञा (उसी भांति जाती है)।
रानी : (आगे एक घर में झांक कर) अरे कर्पूरमंजरी तो यही है, वह कोई दूसरी होगी, बेटा कर्पूरमंजरी जी कैसी है?
(नेपथ्य में) सिर में कुछ दर्द है।
रानी : तो चलें (आगे बढ़कर) लाओ जल्दी तैयारी...। (कर्पूरमंजरी सुरंग की राह से आकर अपनी जगह पर बैठती है)
रानी : (देखकर) अरे! यहां भी कर्पूरमंजरी!
भै. न. : बेटा विभ्रमलेखे! ब्याह की सामग्री ले आई?
रानी : हां लाई सही, पर कर्पूरमंजरी के लायक आभूषण लाना भूल गई।
भै. न. : तो जाओ जल्दी ले आओ।
रानी : जो आज्ञा (आगे बढ़कर उसी घर की ओर जाती है)
भै. न. : बेटा कर्पूरमंजरी फिर वैसा ही करो।
क. म. : जो आज्ञा (वैसे ही जाती है)
रानी : (उसी घर के दरवाजे से झांककर) आहा! मैं निस्सन्देह ठगी गई, (प्रगट) अरे ब्याह की तयारी लाओ (कर्पूरमंजरी वैसे ही आती है) (फिर भैरवानाद के पास आकर और कर्पूरमंजरी को देख कर) यह क्या चरित्र है! हा! हमारी चेष्टा इस योगीश्वर ने ध्यान से सब जानी होगी।
भै. न. : रानी! बैठो, महाराज भी आते होंगे।
(राजा और विदूषक ऊपर से उतरते हैं और कुरंगिका आती है)
भै. न. : महाराज विराजिए (सब बैठते हैं)
राजा : (कर्पूरमंजरी को देखकर) यह कामदेव की मूर्ति मान शक्ति है, वा शृंगार की साक्षात लता है, वा सिमटी हुई चन्द्रमा की चांदनी है, वा हीरे की पुतली है, वा वसन्तऋतु की मूल कला है, जिसको इसने एक बार देखा उसके चित्तरूपी देश में कामदेव का निष्कंटक राज हुआ।
विदू. : (धीरे से) वाह रे जल्दी, अरे अब तो क्षण भर में गोद ही में आई जाती है। अब क्या बक बक लगाए हौ, कोई सुनैगा तो क्या कहेगा?
रानी : (कुरंगिका से) तुम महाराज को गहिना पहिनाओ और सुरंगिका घनसार मंजरी को (दोनों सखियां वैसा ही करती हैं)।
भै. न. : उपाध्याय को बुलाओ।
रानी : महाराज का पुरोहित आर्य कपिंजल बैठा ही है फिर किस की देर है?
विदू. : हां हां, हम तो तय्यार ही हैं। मित्र, हम गठबन्धन करते हैं, तुम कर्पूरमंजरी का हाथ पकड़ो और कर्पूरमंजरी, तुम महाराज को पकड़ो (झूठ मूठ के अशुद्ध मंत्र पढ़ता है और वैदिकों की चेष्टा करता है)।
भै. न. : तुम निरे वही हौ कर्पूरमंजरी का घनसार मंजरी नाम हुआ।
राजा : (कर्पूरमंजरी का हाथ पकड़ कर आप ही आप) आहा! इसके कोमल कर स्पर्श से कदम्ब और केवड़े की भांति मेरा शरीर एक साथ रोमांचित हो गया।
विदू. : अग्नि प्रगटाओ और लावा का होम करो (राजा और कर्पूरमंजरी अग्नि की फेरी करते हैं, कर्पूरमंजरी धुँएं से मुंह फेरना नाट्य करती है)।
रानी : अब विवाह हो गया, हम जाते हैं। (जाती है)
भै. न. : विवाह की आचार्य दक्षिणा दीजिए।
राजा : (विदूषक से) हां मित्र! सौ गांव तुमको दिया।
विदू : स्वस्ति स्वस्ति (उठकर बगल बजाकर नाचता है)।
भै. न. : महाराज, कहिए और क्या होय?
राजा : (हाथ जोड़कर) महाराज! अब क्या बाकी है?
कुन्तल नृपकन्या मिली, चक्रवर्ति पद साथ।
सब पूरे मनकाज मम, तुम पद बल ऋषिनाथ ।
तब भी भरतवाक्य सत्य हो।
उन्नत चित्त ह्वै आर्य परस्पर प्रति बढ़ावै।
कपट नेह तजि सहज सत्य व्यौहार चलावै ।
जव न संसरग जात दोस गन इन सो छूटैं।
सबै सुपथ पथ चलै नितही सुख सम्पति लूटैं ।
तजि विविध देव रति कर्म मति एक भक्ति पथ सब गहै।
हिय भोगवती सम गुप्त हरिप्रेम धार नितही बहै ।

। इति ।
दुर्लभ बन्धु भारतेंदु हरिश्चंद्र
प्रथम अंक

पहिला दृश्य
स्थान-वंशपुर की सड़क
(अनन्त, सरल और सलोने आते हैं)
अनन्त : सचमुच न जाने मेरा जी इतना क्यों उदास रहता है, इससे मैं तो व्याकुल हो ही गया हूँ पर तुम कहते हो कि तुम लोग भी घबड़ा गए। हा, न जाने यह उदासी कैसी है, कहाँ से आई है और क्यों मेरे चित्त पर इसने ऐसा अधिकार कर लिया है? मेरी बुद्धि ऐसी अकुला रही है कि मैं अपने आपे से बाहर हुआ जाता हूँ।
सरल : आपका जी क्या यहाँ है, आपका चित्त तो वहाँ है जहाँ समुद्र में आप के सौदागरी के भारी जहाज बड़ी बड़ी पाल उड़ाए हुए धनमत्त लोगों की भाँति डगमगी चाल से चल रहे होंगे और वरुण देवता के विमान की भाँति झूमते और आस पास की छोटी छोटी नौकाओं की ओर दयादृष्टि से देखते आते होंगे और वे बेचारियाँ भी अपने छोटे-छोटे परों से उड़ती हुई और सिर झुका झुकाकर बारंबार उनको प्रणाम करती किसी तरह से लगी बुझी उनका अनुगम करती चली आती होंगी।
सलोने : महाराज! हम सच कहते हैं! जो हमारी इतनी जोखिम जहाज पर होती तो हमारा जी आठ पहर उसी में लगा रहता, प्रति क्षण तिनका उठाकर हम हवा का रुख देखा करते, रात दिन नकशा लिए सड़क, बन्दर और खाड़ियों को ताका करते और थोड़े से खटके में भी अपनी हानि के डर से घबड़ा जाते।
सरल : और मेरा कलेजा तो गरम दूध के फूँकने में भी तूफान की याद करके दहल जाता और सोचता कि हाय यदि कहीं समुद्र में आँधी चली तो जहाजों की क्या गति होगी। बालू की घड़ी देखने से मुझे यह ध्यान बँधता कि मेरा माल से लदा जहाज बालू की चर पर चढ़ गया है और उसके उलट जाने से उसका ऊँचा मस्तूल झुका हुआ ऐसा दिखाई देता है मानो वह अपने प्यारे जलयान की समाधि को गले लगा कर रो रहा है। देवालय के शिखर का ऊँचा पत्थर देखते ही मुझे पहाड़ों की चट्टानें याद आतीं और सोचता कि इन्हीं चट्टानों से ठोकर खाकर मेरा भरा पूरा जहाज टूट गया है, किराना पानी पर फैल गया है और रंग रंग के रेशमी कपड़े समुद्र की लहरों पर लहरा रहे हैं, यहाँ तक कि जो जहाज अभी लाखों रुपये का था छन भर में एक पैसे का भी न रहा। बतलाइए कि जब एक बार इस तरह का सोच जी में आवे तो संभव है कि मनुष्य हानि के डर से उदास न हो जाय?
सलोने : मैं जानता हूँ कि आपको अपनी जोखों ही का सोच है।
अनन्त : इसका नहीं। मैं धन्यवाद करता हूँ कि मेरा माल कुछ एक ही जहाज पर नहीं लदा है, और न सबके सब एक ही ओर भेजे गए हैं, और न एक साल के घाटे नफे से मेरे व्यापार की इतिश्री है, इससे सौदागरी की जोखों के सबब से मैं इतना उदास नहीं हूँ।
सरल : तो कहीं किसी से आँख तो नहीं लगी है?
अनन्त : छिः छिः!
सरल : वह भी नहीं यह भी नहीं तब तो आप का जी झूठ मूठ उदास है, अभी हँसो, बोलो, वू$दो, अभी प्रसन्न हो जाव। संसार में दो प्रकार के लोग होते हैं। कुछ तो ऐसे हैं जो बे समझे बूझे तुच्छ तुच्छ बात पर बड़े बडे़ दाँत निकाल कर खिलखिला उठते हैं और बाजे ऐसे (मुहर्रमी पैदाइश के) होते हैं कि ऐसा उत्तम परिहास जिस पर धर्मराज सा गंभीर मनुष्य हँस पड़े उसपर भी उनका फूला हुआ थूथन नहीं पिचकता।
(बसन्त, लवंग और गिरीश आते हैं)
सलोने : लो गिरीश और लवंग के साथ आपके प्रियबंधु बसन्त आते हैं। अब हमारा प्रणाम लो। हम लोग आपको अपने से अच्छी मण्डली में छोड़ कर जाते हैं।
सरल : भाई यदि ये उत्तम मित्रगण न आ जाते तो मैं आपको अच्छी तरह प्रसन्न किये बिना कभी न जाता।
अनन्त : मेरे हिसाब तो तुम भी बहुत उत्तम मित्र हो। परन्तु तुम्हें किसी आवश्यक काम से जाना है इसी हेतु अवसर पाकर यह बात बनाई है।
सरल : प्रणाम महाशयो।
बसन्त : दोनों मित्रों को प्रणाम। कहो अब हम लोग फिर कब हँसे बोलेंगे। तुम लोग तो अब निरे अपरिचित हो गए। सचमुच क्या चले ही जाओगे।
सरल : हम लोग अवसर के समय फिर मिलेंगे।
(सरल और सलोने जाते हैं)
लवंग : मेरे श्रीमन्त बसन्त लीजिए आपसे और अनन्त गुणकन्त अनन्त से भेंट हो गई अब हम लोग भी जाते हैं, परन्तु खाने के समय जहाँ मिलने का निश्चय किया उसे न भूलिएगा।
बसन्त : नहीं, न भूलूँगा।
गिरीश : भाई अनन्त। आप उदास मालूम पड़ते हो। हुआ ही चाहैं। संसार के कामों में जो जितना विशेष फँसा रहेगा उतना ही विशेष वह उदास रहेगा। मैं सच कहता हूँ कि आपकी सूरत बिलकुल बदल गई है।
अनन्त : मैं संसार को उसके वास्तविक रूप से बढ़कर कदापि नहीं समझता। गिरीश! संसार एक रंगशाला है, जहाँ सब मनुष्यों को एक न एक स्वाँग अवश्यक बनना पड़ता है उनमें से उदासी का नाट्य मेरे हिस्से है।
गिरीश : और मैं विदूषक की नकल करता हूँ। मैं चाहता हूँ कि मेरे बाल भी हँसते खेलते पकें। नित्य मद्य-पीने से मेरे कलेजे में गर्मी पहुंचे न कि आहों के भरने से उसमें शीत आवे। शरीर में रक्त की गर्मी रहते भी लोग क्योंकर मूरत की तरह चुपचाप बैठे रह सकते हैं, जागते हुए लोग भी किस तरह सो जाते हैं, या रोगी की तरह कराह कराह कर दिन बिताते हैं। आप मेरी बात से अप्रसन्न न हूजिएगा, मैं आपको जी से चाहता हूँ तब इतनी धृष्टता की है। बहुतेरे मनुष्य ऐसे होते हैं कि बँधे पानी के तालाब की भाँति उनके मुख का रंग सदा गँदला बना रहता है और यह समझ कर कि लोग हमको बड़ा सोचने वाला, विचारवान, पंडित और गम्भीर कहेंगे व्यर्थ को भी मुंह फुलाए रहते हैं। उनका मुंह देखने से स्पष्ट प्रगट होता है कि वह लोग अपने को बढ़कर लगाते और अपनी बात को वेदव्यास से भी बढ़कर समझते हैं। मेरे प्यारे अनन्त। मैं ऐसे बहुतेरे लोगों को जानता हूँ जो केवल जीभ न हिलाने के कारण समझदार प्रसिद्ध हैं। मैं सच कहता हूँ कि ऐसे लोगों से बोलना ही पाप है क्योंकि इनकी बात के सुनते ही क्रोध आ जाता है और मनुष्य के मुंह से बुरा भला निकल ही आता है। मैं इस विषय में आप से फिर कभी बातचीत करूँगा। देखिए ऐसा न हो कि उसी झूठी बड़ाई की इच्छा आप पर भी प्रबल हो। भाई लवंग चलो अब इस समय बिदा। खाने के पीछे आकर मैं अपना व्याख्यान समाप्त करूंगा।
लवंग : तो खाने के समय तक के लिए जाता हूँ। परन्तु मैं तो उन्हीं गूंगे बुद्धिमानों में से एक हूँ, क्योंकि गिरीश अपनी बकवाद में मुझे तो कभी बोलने ही नहीं देता।
गिरीश : अभी दो बरस मेरी संगति में और रहो तो फिर तुम्हारी जिह्ना का शब्द तुम्हारे कान को भी न सुनाई पड़ेगा।
अनन्त : अच्छा जाओ, मैं भी तब तक बकवाद करना सीख रखता हूँ।
गिरीश : आप बड़ी कृपा कीजिएगा क्योंकि चुप रहने का स्वभाव यों तो पशुओं के लिये योग्य होता है या ऐसी स्त्रियों के लिये जिसे ब्याह करने वाला न मिलता हो।
(गिरीश और लवंग जाते हैं)
अनन्त : कहो भाई इनकी बात में कोई आनन्द था?
वसंत : गिरीश बहुत ही व्यर्थ बकता है। सारे वंशनगर में उससे बढ़कर कोई बक्की न निकलेगा। व्यर्थ की बकवाद की जाल में उसका वास्तविक आशय ऐसा छिपा रहता है जैसे गट्ठे भर भूसे में अनाज का एक दाना। जब दिन भर उसके लिए हैरान हो तब कहीं एक दाना हाथ लगे, वैसे ही जब बहुत सा समय इसकी बात के पीछे नाश करो तब उसका आशय समझ में आवै और इतने कष्ट के पीछे समझने पर भी कुछ उसका फल नहीं...
अनन्त : हुआ, यह रामकहानी दूर करो। अब यह बतलाओ कि वह कौन सी स्त्री है, जिसके लिये तुम गुप्त यात्रा करने वाले हो। देखो, आज मुझसे सब वृत्तान्त कहने का वादा है।
वसंत : भाई अनन्त! तुम अच्छी तरह जानते हो कि मैंने अपनी सब जायदाद किस तरह गंवा दी। समझ कर व्यय न करके सर्वदा बड़ी चाल चला और यही चाल मेरे नाश की कारण हुई। पंरतु मुझे अपनी अवस्था के घट जाने का कुछ भी सोच नहीं है, सोच है तो केवल इस बात का है कि मुझे जो बहुत सा ऋण हो गया है उसे किसी तरह चुका दूँ। भाई अनन्त! तुम्हारा मैं सब प्रकार ऋणी हूँ। रुपये का कहो दया का कहो। इसलिये ऋण चुकाने का मैं जो जो उपाय सोचता हूँ वह तुम से सब स्वच्छ स्वच्छ वर्णन करके अपने चित्त के बोझ को हलका करूंगा।
अनन्त : प्यारे वसन्त! परमेश्वर के वास्ते मुझसे सब वृत्तान्त स्पष्ट वर्णन करो। यदि वह उपाय धर्म का है जैसा कि तुम सदा बरतते आए हो तो निश्चय रक्खो कि मेरा रुपया मेरा शरीर सब कुछ तुम्हारे लिए समर्पण है।
वसंत : छोटेपन में जब मैं पाठशाला में पढ़ता था तब यदि मेरा कोई तीर खो जाता था तो उसके ढूँढ़ने को मैं वैसा ही दूसरा तीर उसी ओर छोड़ता था और ध्यान रखता था कि यह तीर कहाँ गिरता है। इसी भाँति दुहरी जोखम उठाने से प्रायः दोनों मिल जाते थे। इस लड़कपन की बात के छेड़ने से मेरा आशय यह है कि अब मैं जो उपाय किया चाहता हूँ वह भी इसी लड़कपन के खेल की भाँति है। मैं तुम्हारा बड़ा ऋणी हूँ। जो कुछ मैंने तुमसे लिया वह सब एक हठी लड़के भाँति गँवा दिया परन्तु जहाँ तुमने पहिले एक तीर छोड़ा है उसी ओर यदि एक तीर और फेंको तो मैं तुम्हें निश्चय दिलाता हूँ कि अब की मैं उसके लक्ष्य की ओर अच्छी तरह दृष्टि रख कर जैसे होगा वैसे दोनों तीर खोज लाऊँगा। और यदि संयोग से पहिला न मिला तो दूसरा तो अवश्य ही फेर लाऊँगा और पहिले के लिये धन्यवाद के साथ तुम्हारा सदा ऋणी रहूँगा।
अनन्त : भाई तुम तो मुझे अच्छी तरह जानते हो। फिर मेरा जी टटोलने के लिये फेरवट के साथ बात करके व्यर्थ क्यों समय नष्ट करते हो। मुझे इसका दुःख है कि तुमने इस बात में सन्देह किया कि मैं तुम्हारे लिए प्राण दे सकता हूँ। यदि तुम मेरी सर्वस्व हानि किए होते तब भी मुझे इतना दुःख न होता जो इस बात से हुआ। व्यर्थ बात बढ़ाने से क्या लाभ? केवल इतना कहो कि मुझे तुम्हारे हेतु क्या करना होगा, मैं उसके लिये प्रस्तुत हूँ शीघ्र बतलाओ।
वसंत : विल्वमठ में एक प्यारी स्त्री रहती है जो अपने माँ बाप के मर जाने से एक बड़ी रियासत की स्वामिनी हुई है। उसका रूप ऐसा है कि केवल सौन्दर्य के शब्द से उसकी स्तुति हो ही नहीं सकती। उसमें अनगिनत गुण हैं। कुछ दिन हुए उसकी चितवन ने मुझको ऐसे प्रेम सन्तेश दिए थे कि मुझको उसकी ओर से पूरी आशा है। उसका नाम पुरश्री है, वह सचमुच पुुरश्री है, पुरश्री क्या सारे संसार की श्री है। रूप में श्री और गुण में सरस्वती है। संसार में ऐसा कोई स्थान नहीं जहाँ उसकी स्तुति की सुगंध न फैली हो। चारों ओर से बड़े बड़े राजकुमार और धनिक उसके ब्याह की आशा में आते हैं। भाई अनन्त! यदि मुझे इतना रुपया मिलता कि वहाँ जाकर इन लोगों के समक्ष मैं विवाह की प्रार्थना कर सकता तो मेरा जी कहता है कि मैं अपने मनोरथ में अवश्य विजयी होता।
अनन्त : भाई तुम अच्छी तरह जानते हो कि मेरी सब लक्ष्मी समुद्र में है, इस समय न मेरे पास मुद्रा है न माल जिसे बेच कर रुपया मिल सके, इससे जाओ देखो तो मेरी साक वंशनगर में क्या कर सकती है। तुम्हें पुरश्री के पास विल्वमठ जाने के लिए जो रुपया चाहिए उसके प्रबन्ध में मैं ऊँचा नीचा सब काम करने को प्रस्तुत हूँ। देखो अभी जाकर खोज करो कि रुपया कहाँ मिलता है और मैं भी जाता हूँ मेरे नाम या जमानत से जिस प्रकार रुपया मिले मुझे किसी बात में सोच विचार नहीं है।
(दोनों जाते हैं)



दूसरा दृश्य
स्थान-विल्वमठ में पुरश्री के घर का एक कमरा
(पुरश्री और नरश्री आती हैं)
पुरश्री : नरश्री मैं सच कहती हूँ कि मेरा नन्हा सा जी इतने बड़े संसार से बहुत ही दुःखी आ गया है।
नरश्री : मेरी प्यारी सखी यह बात तो आप तब कहतीं जब, भगवान न करे, जैसा आपका सुख है उसके बदले उतना ही दुख होता। परन्तु न जाने क्यों प्रायः ऐसा देखा है कि जो बहुत धनवान हैं वह भी संसार से वैसे ही घबड़ाए रहते हैं जैसे वह लोग जो भूखों मरते हैं। इसी से निश्चय होता है कि मध्यावस्था कुछ साधारण भाग्य की बात नहीं। लक्ष्मी बहुत शीघ्र श्वेत बाल करती है पर तृप्ति बहुत दिन तक जिलाती है।
पुरश्री : क्यों न हो तुमने कैसे मनोहर वाक्य कहे और कैसी अच्छी तरह।
नरश्री : यदि उनका बरताव किया जाय तो और उत्तम हो।
पुरश्री : यदि अच्छी बात का करना उतना ही सहज होता जितना कि उसका जानना तो सब मढ़ियाँ मंदिर और सब झोंपड़ियाँ महल हो जातीं। अच्छा गुरु वही है जो अपनी शिक्षा पर आप भी चलता है। बीस अच्छी बातें दूसरों को सिखलाना सहज हैं। किन्तु उनमें से अपनी शिक्षा के अनुसार एक पर भी चलना कठिन है। बुद्धि स्वभाव के ठण्डा करने के लिये बहुत से उपाय बतलाती है किन्तु समय पर क्रोध की गर्मी को कब रोक सकती है। यौवन का हिरन शिक्षा के फन्ते में से बहुत सहज से छूट जाता है। किन्तु इस बात से और पतिवरण करने से कोई सम्बन्ध नहीं। हाय! भला मेरे वरण करने का फल ही क्या? मैं तो न जिसे चाहूँ उसे स्वीकार कर सकती हूँ और न जिसे न चाहूँ, उसे अस्वीकार कर सकती हूँ। हाय! एक जीती लड़की को आशा एक मरे हुए बाप के मृतपत्र से कैसी रुक रही है। नरश्री क्या यह घोर दुःख की बात नहीं है कि न मैं किसी को स्वीकार कर सकती हूं और न अस्वीकार?
नरश्री : आपके बाप बड़े अच्छे और धर्मिष्ठ मनुष्य थे और ऐसे महात्माओं को मरने के समय अनुभव हुआ करते हैं। इससे सोने चाँदी और जस्ते के तीन सन्दूकों के निश्चय करने में जो बात उन्होंने सोची थी (जिसके अनुसार वह मनुष्य जो उनका बतलाया हुआ सन्दूक ग्रहण करेगा उसी का विवाह आपसे होगा) वह कभी बुराई न करेगी। मुझे निश्चय है कि चिंतित सन्दूक को वही मनुष्य चुनेगा जिसे आप जी से प्यार करती होंगी। परन्तु यह तो कहिए कि इतने राजकुमार और धनिक जो विवाह की आशा में आए हैं उनमें से किसी की ओर आपको कुछ भी स्नेह है या नहीं?
पुरश्री : तुम उनके नामों को मेरे सामने कहती जाओ तो मैं प्रत्येक के विषय में अपना विचार दर्शन करती जाऊंगी। इसी से तुम मेरे प्रेम का वृत्तान्त जान लोगी।
नरश्री : अच्छा तो नैपाल के राजकुमार से आरंभ कीजिए।
पुरश्री : छिः छिः! वह तो निरा बछेड़ा है, और कोई काम नहीं, बस रात दिन अपने घोड़ों ही का वर्णन। सारे अस्तबल की बला अपने सिर लिये रहता है और बड़ा भारी अभिमान इस बात पर करता है कि मैं अपने घोड़े की नाल आप ही बाँध लेता हूँ। वह तो बिल्कुल खोगीर की भरती है। निखट्टई नैपाली टट्टई।
नरश्री : और पाटन वाला?
पुरश्री : मरकहा बैल। रात दिन फूँ-फूँ किया करता है मानो उसको चितवन कहे देती है कि या तो ब्याह करो या साफ जवाब दो। सैकड़ों हँसी की बातें सुनाता है पर चाहे कि तनिक भी उसका थूथन पिचके। मुस्कुराना तो सपने में नहीं जानता। हँसी मानो जुए में हार आया है। अभी जब हट्टा कट्टा साँड बना है तब तो वह रोनी मूरत है तो बुढ़ापे में तो बात पूछते रो देगा। सिवाय हर हर भजने के और किसी काम का न रहेगा। मेरा ब्याह चाहे एक मुर्दे से हो पर इन भद्दे जानवरों से नहीं। भगवान इन दोनों से बचावे।
नरश्री : और भला फनेश देश के नरेश को आप कैसा समझती हैं?
पुरश्री : बेलगाम का ऊँट। मनुष्य के साँचे में ढल गया है बस इसी से मनुष्य कहा जाता है, नहीं तो निरा पशु। किसी की निन्दा करनी निस्सन्देह पाप है पर सच्ची बात यह है कि नैपाल के राजकुमार से जैसा एक चाशनी बढ़कर यह घुड़चढ़ा है वैसा ही पाटन वाले से बढ़कर नकचढ़ा। आप तो कुछ भी नहीं है पर छाया उसमें सब किसी की है। अभी गौरेया बोले तो आप उसकी तान पर नाचने लगें और अभी अपनी परछाइ देखें तो तलवार लेकर उससे लड़ने चलें। एक उससे न ब्याह किया मानो बीस मनुष्य से एक साथ ब्याह किया। यदि वह मुझसे घृणा करेगा तो मैं उससे कदापि अप्रसन्न न हूँगी वरंच अपना सौभाग्य समझूँगी क्योंकि यदि वह मेरे प्रेम में पागल भी हो जायगा तो मैं उसे प्यार न कर सकूंगी।
नरश्री : अच्छा, अंगदेश के नवयुवक धनी ब्रजपालक को आप क्या कहती हैं?
पुरश्री : तुम जानती हो कि मैं उसको कुछ नहीं कह सकती क्योंकि न वह मेरी बात समझता है न मैं उसकी। वह न हिन्ती जानता है न ब्रजभाषा न मारबारी और तुम शपथपूर्वक कह सकोगी कि मैथिल में मुझे कितना न्यून अभ्यास है। उसकी सूरत तो बहुत अच्छी है पर इससे क्या? खिलौने से कोई भी बातचीत कर सकता है? उसका पहिनावा कैसा बेजोड़ है। उसने अपना अंगा मारवाड़ में मोल लिया है, पाजामा मथुरा में बनवाया है, टोपी गुजरात से मँगनी लाया है, और चालढाल थोड़ी थोड़ी सब जगह से भीख मांग लाया है।
नरश्री : और उसका परोसी मालवा का अधिपति?
पुरश्री : परोस की सी क्षमा तो उसके स्वभाव में निस्सन्देह है क्योंकि उस दिन जब उस अंगवाले ने उसकी कनपटी पर एक घूसा मारा था तो उसने सौगन्ध खाई थी कि अवसर मिलेगा तो अवश्य बदला लूँगा। इस पर फनेश देशवाले के बीच में पड़ कर झगड़ा यों निबटा दिया कि रूसो मत दहिने के बदले बायाँ भी तुमको मिल जायगा।
नरश्री : और उस नवयुवक शम्र्मशय देश के मण्डलेश्वर के भतीजे को आप कैसा पसन्द करती हैं?
पुरश्री : राम राम! वह तो बड़ा भारी घनचक्कर है। सबेरे जब वह अपने आपे में रहता है तभी बहुत बुरा रहता है तो तीसरे पहर जब मद में चूर होता है तब तो और भी बुरा हो जाता है। अच्छी दशा में वह मनुष्य से कुछ न्यून रहता है और बुरी दशा में पशु से भी नीच हो ही जायगा। भगवान न करे यदि यह आपत्ति पड़े कि मुझको उससे विवाह करना हो तो जैसे हो सके वैसे मैं उससे दूर रहूँ।
नरश्री : भला यदि ऐसा हुआ कि उसने वही मंजूषा चुना जिसके चुनने से यह आपको पावे तब क्या कीजिएगा क्योंकि फिर तो विवाह न करना अपने बाप की इच्छा के विरुद्ध चलना है।
पुरश्री : इसीसे मैं तुम से कहती हूँ कि जिस मंजूषा में भूत की मूर्ति है उसके ऊपर एक उत्तम मद्य से भरा हुआ पाव रख दो क्योंकि भीतर भूत ऊपर मद्य बस यह उसी सन्दूक को चुनेगा। जैसे ही उस समुन्दर सोख अगस्त से बचाने का कोई उपाय करना ही पड़ेगा।
नरश्री : सखी आप इस बात का ताप मत कीजिए कि इन लोगों में से किसी से आप को विवाह करना पड़ेगा क्योंकि मैं सब के जी का हाल ले चुकी हूँ। यदि आप अपने बाप की आज्ञा के अनुसार मंजूषा के चुनने ही पर अपना निश्चय रक्खेंगी और कोई दूसरी प्रतिज्ञा न करेंगी तो यह सब के सब यहाँ से चले जायँगे और फिर विवाह की इच्छा प्रकट करके आपको कष्ट न देंगे।
पुरश्री : तुम निश्चय जानो कि यदि मुझे मारर्कंडेय की आयु मिले तो भी मैं अम्बालिका की तरह क्वारी मर जाऊँगी पर अपने पूज्य पिता की इच्छा के विरुद्ध कभी ब्याह न करूँगी। मुझको बड़ा आनन्द है कि इन सन्दूकों में ऐसी चातुरी है कि यह सब आपत्ति बिना मंत्र जंत्र के आप से आप दूर हो जाती है क्योंकि इनमें से ऐसा कोई नहीं जिसका मैं घड़ी भर रहना भी सह सकती हूँ।
नरश्री : क्यों सखी आपको स्मरण है कि नहीं कि आप के पिता के समय में फनित मठ के राजा के साथ वंशनगर का एक युवक बुद्धिमान और शूर मनुष्य आया था?
पुरश्री : हाँ वह बसन्त था-क्यों यहा न उसका नाम था?
नरश्री : हाँ सखी-जहाँ तक कि मुझ मूर्ख की समझ है सुन्दरी स्त्री के योग्य उससे उत्तम और कोई वर मुझे दृष्टि नहीं पड़ा।
पुरश्री : मुझको भलीभाँति स्मरण है और जो कुछ तुमने उसकी प्रशंसा की बहुत ठीक है।
(एक नौकर आता है)
क्यों क्यों! कोई नई बात है?
नौकर : बबुई साहिब ऊ चारों आदमी आप से बिदा होए कै ठाढ़ होएँ और एक पाँचवाँ का हरकारा आयल हौ सो कहत हौ की मोरकुटी कै राजकुमार ओकर मालिक आज राती के इहाँ पहुँचि हैं।
पुरश्री : यदि यह पाँचवाँ मनुष्य ऐसा होता है कि मैं उसके आने पर वैसी ही प्रसन्नता प्रकट कर सकती जैसी प्रसन्नता से इन चारों को विदा करती हूँ तो क्या बात थी। परन्तु यदि इसका रूप भूत का सा है और चित्त देवता का सा तो मैं उसका शाप देना इसकी अपेक्षा उत्तम समझूँगी कि वह मुझसे ब्याह करे। नरश्री चलो। नौकर तू आगे जा। एक गाहक जाने ही नहीं पाता कि दूसरा आ उपस्थित होता है। (सब जाते हैं)

तीसरा दृश्य
(बसन्त और शैलाक्ष आते हैं)
शैलाक्ष : छः सहस्र मुद्रा-हूँ।
बसन्त : हाँ साहिब-तीन महीने के वादे पर।
शैलाक्ष : तीन महीने का वादा-हूँ।
बसन्त : और इसके लिये, जैसा कि मैं आप से कह चुका हूँ, अनन्त जामिन होंगे।
शैलाक्ष : अनन्त जामिन होंगे-हूँ।
बसन्त : तो आप मुझे देंगे? आप से मेरा काम निकलेगा? मैं आप के उत्तर की राह देखता हूँ।
शैलाक्ष : छः सहस्र मुद्रा तीन महीने का वादा-और अंनत की जमानत।
बसन्त : जी हाँ। आप क्या उत्तर देते हैं?
शैलाक्ष : अनन्त है तो अच्छा मनुष्य।
बसन्त : क्यों क्या आपने इसके विरुद्ध कुछ सुना है?
शैलाक्ष : नहीं नहीं, मेरा अभिप्राय उनके अच्छे होने से यह है कि उनकी जमानत ही बहुत है-यद्यपि आजकल उनकी दशा हीन है क्योंकि उनका एक जहाज विपुल को गया है दूसरा हिन्दुस्तान। को सुना है कि बाजार में भी कुछ व्यवहार है, एक तीसरा जहाज मौक्षिक में तथा चैथा अंग देश में है। इसी भाँति इधर-उधर और बन्दरों में भी उनकी जोखों है। परन्तु जहाज फिर भी काठ ही है और मल्लाह भी मनुष्य ही है; चूहे थल में भी होते हैं और जल में भी, वैसे ही चोर पृथ्वी पर भी होते हैं और पानी में भी अर्थात् डाकुओं का भय सभी स्थल है और फिर आँधी, तूफान और चट्टान का भय अलग लगा हुआ है पर फिर भी वह बहुत हैं-छः सहस्र मुद्रा-मैं समझता हूँ कि उनकी जमानत स्वीकार कर लूँगा।
बसन्त : सन्तोष रखिए उनकी जमानत निस्सन्देह ग्रहण करने योग्य है।
शैलाक्ष : मैं अपना मन भर लूँगा और किस तरह मेरा तोष होगा इस पर विचार करूँगा-मैं अनन्त से इसकी बातचीत कर सकता हूँ?
बसन्त : यदि दोपहर को कृपा कर के हम लोगों के साथ खाना खाइए तो वहाँ सब बात निश्चय हो जाय।
शैलाक्ष : जी हाँ सूअर सूँघने को और उस घर में खाने को जहाँ आप के देवताओं ने सब पिशाची की बातें भर दी हैं। मैं आप लोगों से लेन देन करूँगा बोलूँगा, आप के साथ चलूँ फिरूँगा और ऐसे ही दूसरी बातें करूँगा, परन्तु यह नहीं हो सकता कि मैं आप लोगों के साथ खाना खाऊँ, पानी पीऊँ या पूजा करूँ। बाजार की क्या खबर है?-यह कौन आता है।
(अनन्त आता है)
बसन्त : अनन्त आप आ पहुँचे।
शैलाक्ष : (आप ही आप) देखो इसकी सूरत ही से यह बात झलकती है कि यह हिन्दुओं को प्रसन्न करने के लिये जैनियों से शत्रुता रखता है। मैं इससे घृणा करता हूँ क्योंकि यह ईसाई है परन्तु मुख्यतः इस कारण से यह ऐसा निरुत्साह और नीच है कि लोगों को रुपया बिना ब्याज के ऋण दे दे कर हम लोगों के ब्याज का भाव बिगाड़ देता है। यदि एक बार भी मेरे हाथ चढ़े तो मैं सब पुरानी कसर निकाल लूँ। यह मनुष्य हमारी पवित्र जाति को तुच्छ समझता है और मेरी और मेरे व्यवहारों की निन्दा वहाँ भी नहीं छोड़ता जहाँ बहुत से व्यापारी इकट्ठा होते हैं। धम्र्मोपार्जित द्रव्य का ब्याज नाम रखता है। धिक्कार है मेरी जाति को यदि मैं इस मनुष्य से बदला न लूँ।
बसन्त : शैलाक्ष आपने सुना?
शैलाक्ष : मैं अभी आपने जी में हिसाब कर रहा था कि मेरे पास कितना रुपया तैयार है और जहाँ तक मैंने सोचा इस समय मेरे पास छः सहस्र रुपया न निकलेगा-पर इससे क्या? मैं त्रयंबक से जो मेरी जाति का एक धनिक पुरुष है शेष मुद्रा से लूँगा। परन्तु नेक ठहरिए-कै महीने की मिती आप चाहते हैं? (अनन्त से) प्रणाम महाशय, आपकी बड़ी आयु है, अभी आप ही का हम लोग वर्णन कर रहे थे।
अनन्त : शैलाक्ष यद्यपि मैं ब्याज पर रुपये का कभी लेन देन नहीं करता तो भी अपने मित्र की अत्यन्त आवश्यकता को समझ कर अपने नियम के तोड़ने पर प्रस्तुत हूँ। बसन्त तुम इनसे कह चुके हो कि कितने रुपये की आवश्यकता है?
शैलाक्ष : हाँ हाँ-छः सहस्र मुद्रा।
अनन्त : और तीन महीने के लिये।
शैलाक्ष : हाँ मैं भूल गया था-तीन महीने के मिती पर-आप कह चुके हैं-तो किन प्रतिज्ञाओं पर, नेक ठहरिए-किन्तु सुनिए तो सही अभी आपने कहा था कि हम सूद पर लेन देन नहीं करते।
अनन्त : मैं इसका व्यापार कभी नहीं करता।
शैलाक्ष : जब कि यादव अपने मामा लवेन्द्र की भेड़ों को चराते थे-तो उनको उनकी माँ की चातुरी से बरकत मिली थी।
अनन्त : तो उनके नाम से यहाँ क्या तात्पर्य है? क्या वह सूद खाते थे?
शैलाक्ष : नहीं ब्याज नहीं खाते थे, जिसे आप सूद कहते हैं ठीक वैसा ब्याज नहीं लेेते थे-सुनिए वह क्या उपाय करते थे। जब कि लवेन्द्र और उनमें परस्पर यह बात निश्चय हुई कि जितने भेड़ों के बच्चे धारीदार और चितकबरे पैदा हों वह यादव को वेतन में मिलें तो यादव ने चतुराई से बहुत सी हरी छड़ियाँ काट कर और स्थान स्थान से छिलका उड़ा कर उन्हें गण्डेदार बनाया और उठी हुई भेड़ों के सामने गाड़ दिया और जब यह गाभिन हुईं तो इसके प्रयोग से चितकबरे बच्चे उत्पन्न हुए, जो यादव के भाग में आये। यह लाभ उठाने का एक उपाय था और यादव पर ईश्वर की कृपा थी क्योंकि लाभ भी होना ईश्वर की कृपा है, यदि मनुष्य उसको चोरी से न उपार्जन करे।
अनन्त : यह तो ईश्वर की दया थी जिससे यादव ने अपने परिश्रम का इस प्रकार से फल पाया। इसमें उनका कुछ वश न था वरंच केवल ईश्वर की माया से यह बात प्रकट हुई। पर क्या आपका यह तात्पर्य है कि इतिहास में इस कथा के लिखने से यह अभिप्राय था कि ब्याज लेना उचित समझा जाय, या आप अपने रुपये और अशरफी को भेड़ी समझते हैं।
शैलाक्ष : मैं यह नहीं कह सकता परन्तु मैं उनसे बच्चे वैसे ही शीघ्र उत्पन्न कर लेता हूँ। परन्तु नेक इस बात को सुनिए।
अनन्त : बसन्त इस पर विचार करो, राक्षस भी अपने स्वार्थ के लिये इतिहास और पुराण का प्रमाण दे सकता है। दुष्ट मनुष्य जो अपनी निष्कलंकता प्रकट करता है एक हँसमुख बात करनेवाला होता है। वह एक सेब की भाँति है जिसका छिलका बहुत स्वच्छ और उत्तम है परन्तु भीतर बिलकुल सड़ा हुआ है, देखो झूठ की सूरत देखने में कैसी चिकनी चुपड़ी होती है।
शैलाक्ष : छः हजार रुपया-यह तो एक पूरी जमा है-और महीने भी तीन-तो हमें भाव सोचने दीजिए।
अनन्त : स्पष्ट कहो रुपया देना है या नहीं।
शैलाक्ष : अनन्त महाशय आपने बाजार में सहस्रों ही बार मेरे धन और लाभ के लिये मेरी दुर्दशा की होगी पर मैंने क्षमा करने के सिवाय कभी कुछ उत्तर नहीं दिया क्योंकि क्षमा हमारी जाति का चिन्ह है। आप मुझे नास्तिक, गलकट्टा और कुत्ता कह कर मेरे जातीय परिधान पर थूकते थे और यह सब केवल इस अपराध के लिये कि मैं अपनी जमा को जिस भाँति चाहता हूँ काम में लाता हूँ। अस्तु तो अब जान पड़ता है कि आप मेरी सहायता के अपेक्षी हैं। आप मेरे पास आए हैं और कहते हैं कि शैलाक्ष हमें रुपया ऋण दो-ऐं आप ऐसा कहते हैं, आप जो मेरी डाढ़ी को अपना उगालदान समझते थे और मुझे ठीक इस तरह ठोकर मारते थे जैसे कोई अपनी देहली पर अनजान कुत्ते को मारता है। आपकी प्रार्थना रुपये की है-इसका मैं आपको क्या उत्तर दूँ? क्या मैं आपसे यह पूछूँ कि साहिब कही कुत्ते के पास भी रुपया सुना है? कभी संभव है कि अपवित्र कुत्ता भी छः सहस्र मुद्रा ऋण दे सके? या नम्रता से सिर झुका कर भृत्य की भाँति काँपता हुआ धीमे स्वर से निवेदन करूँ ‘महाराज ने कृपापूर्वक मुझ पर गए बुध को थूका था और फलाने दिन ठोकर मारी थी और फलाने दिन कुत्ते की उपाधि दी थी, अतः इन कृपाओं के बदले मैं उतना रुपया देने को प्रस्तुत हूँ?’
अनन्त : मैं तुझे फिर भी ऐसा कहूँगा और तुझ पर थूकूंगा और लात मारूँगा। यदि तुझे रुपया उधार देना है तो मुझे अपना मित्र समझ कर मत दे (क्योंकि मित्रता रुपये से जो एक बाँझ की भाँति है बच्चे कब उत्पन्न कर सकती है?) वरंच अपना शत्रु समझ कर जिससे भंगप्रतिज्ञ होने पर तुझे सर्व प्रकार से प्रतिज्ञानुसार दण्ड ग्रहण करने का मुँह पड़े।
शैलाक्ष : वाह वाह देखिए तो आपे कैसा आपने से बाहर हो गये! मैं आपसे मित्रता का नाता रक्खा चाहता हूँ और पिछले बैरों को भुला कर आपके स्नेह की आशा रखता हूँ, मैं आपको रुपया उधार देने को प्रस्तुत हूँ और सूद एक पैसा नहीं चाहता तिस पर जो आप मेरी बात नहीं सुनते। क्या यह मेरा बर्ताव मित्रता का नहीं है?
अनन्त : यह आपकी दया है।
शैलाक्ष : मैं इस कृपा को दिखलाऊँगा। (अनन्त से) मेरे साथ किसी व्यवस्थापक के यहाँ चलिए और उसके सामने तमस्सुक पर अपनी मुहर कर दीजिए और हँसी की रीति पर वह शर्त लिख दीजिए कि यदि अमुक दिन और अमुक स्थान पर आप रुपया मेरा जिसका तमस्सुक में वर्णन है न चुका दें तो मुझे अधिकार होगा कि उसके बदले मैं आपके जिस शरीर के अंश से चाहूँ आध सेर माँस काट लूँ।
अनन्त : मैं चित्त से प्रसन्न हूँ और इन शर्तों पर मुहर कर दूँगा और यह भी कहूँगा कि इस जैन में बड़ी मनुष्यता है।
बसन्त : तुम मेरे लिये ऐसे तमस्सुक पर हस्ताक्षर न करने पाओगे इससे तो मैं अपनी दरिद्रावस्था में रहना ही श्रेय समझूँगा।
अनन्त : क्यों? डरो मत-प्रतिज्ञा भंग होने की घड़ी कदापि न आवेगी-दो महीने के भीतर अर्थात् तमस्सुक की मिती पूजने के एक महीना पहिले मुझे आशा है कि इसका तिगुना धन मेरे पास पहुँच जायगा।
शैलाक्ष : हे ईश्वर, ये आर्य भी कैसे मनुष्य होते हैं! जैसा इनका चित्त कठोर होता है वैसा ही औरों का भी समझ कर सन्देह करते हैं! भला यह तो बतलाइये कि यदि इन्होंने प्रतिज्ञा भंग की तो मुझे इस शर्त के पूरा कराने से क्या लाभ, होगा? मनुष्य के शरीर का आध सेर माँस किस रोग की औषधि है और वह किस गिनती में है? क्या वह उतना भी काम में आ सकता है जैसा भेड़ी बकरी का माँस? सुनिए केवल इनसे मैत्री करने के लिये मैं इनके साथ ऐसी कृपा करता हूँ, यदि यह इसे समझें तो अच्छी बात है नहीं तो प्रणाम, और मेरी प्रीति के बदले मेरे साथ बुराई न कीजिएगा।
अनन्त : हाँ शैलाक्ष मैं इस तमस्सुक पर मुहर कर दूँगा।
शैलाक्ष : तो अभी व्यवस्थापक के घर पर जाइए और इस हँसी की दस्तावेज के लिखने को कहिए। मैं भी शीघ्र ही जा कर थैली में छ हजार रुपये लिये हुए वहीं पहुँचता हूँ और अपना घर भी देखता आऊँगा जिसे एक बड़े बहुव्ययी और अविश्वासी भृत्य को सौंप आया हूँ-मैं सब काम करके बात की बात में आप से मिलता हूँ। (जाता है)
अनन्त : अच्छा झटपट जाओ। यह जैन ऐसा कृपालु होता जाता है कि आर्य बन जायगा।
बसन्त : मैं चिकनी चुपड़ी बातें और दुष्ट अन्तःकरण नहीं पसन्द करता।
अनन्त : आओ, इसमें कोई धोका नहीं हो सकता क्योंकि मेरे जहाज मिती पूजने के एक महीना पहिले अवश्य ही पहुँच जायँगे। (जाते हैं)
 
द्वितीय अंक

पहला दृश्य
स्थान-विल्वमठ। पुरश्री के घर का एक कमरा
(तुरहियाँ बजती हैं। मोरकुटी का राजकुमार अपने सभासदों के सहित और पुरश्री, नरश्री और अपनी दूसरे सहेलियों के संग आती है।)
मोरकुटी : मेरी रंगत देखकर मुझसे घृणा न करना क्योंकि यह तो सूर्य की दी हुई वर्दी है जिसके समीप मैं रहता हूँ और जिसकी छाया में पला हूँ। उत्तर के देश जहाँ सूर्य की गर्मी बर्फ के टुकड़ों को भी नहीं गला सकती वहाँ के किसी सुन्दर से सुन्दर युवा को मेरे सामने लाओ और हम दोनों तुम्हारे प्रेम के लिये अपने शरीर में नश्तर चुभावें तो विदित होगा कि किस का रुधिर अधिक रक्त है। सखी तुम विश्वास मानो कि मेरे इसी चेहरे ने बड़े से बडे़ वीरों का पित्ता पानी कर दिया है और मैं अपने प्रेम की सौंगंध खा कर कहता हूँ कि इसी मुख को मेरे देश की परम सुन्दरी युवतियाँ भी चाहती हैं। मैं अपने इस रंग को किसी अवस्था में बदलना पसन्द न करूँगा पर हाँ तुम्हारी प्रसन्नता के लिये...
पुरश्री : मेरी रुचि के लिये केवल मेरी आँखें ही नहीं हैं और न मैं किसी भाँति अपनी इच्छा के अनुसार पति बर सकती हूँ, किन्तु ऐ प्रसिद्ध राजकुमार, यदि मेरे पिता ने मुझे परवश न कर दिया होता अर्थात् इस बात की उलझन न लगा दी होती कि जो कोई मुझे उस विधि से जीते (जिसका आपसे मैं वर्णन कर चुकी हूँ) उसकी मैं स्त्री बनूँ तो जिन लोगों को मैंने अब तक देखा है उनमें से आपको किसी की अपेक्षा पूर्ण मनोरथ होने का अवसर कम न था।
मोरकुटी : मैं इतनी कृपा के लिये भी तुम्हारा धन्यवाद करता हूँ, तो ईश्वर के लिये अब मुझे सन्दूकों के पास ले चलो जिसमें अपने प्रारब्ध की परीक्षा करूँ। शपथ है इस खंग की, जिसने राजा को वध किया और इन्दर के उस राजकुमार को मारा जो महाराज सुलक्षण से तीन लड़ाइयाँ जीता था, तुम्हारे मिलने की आशा में मैं संसार में वीर से वीर का सामना करने को प्रस्तुत हूँ, रीछ की मादा के सामने से उसके बच्चे उठा लाने को उपस्थित हूँ, सिंह जिस समय कि शिकार की खोज में गरज रहा हो उसकी आँख निकाल लाने को प्रस्तुत हूँ-पर हाय ऐसी अवस्था में किसका वश है! यदि हारित और लक्षेन्द्र पासा फेंक कर इस बात को निश्चय करना चाहें कि दोनों में कौन बड़ा आदमी है तो संभव है कि पासे के पड़ने से अनारी जीत जाय और संसार का सबसे बड़ा पहलवान अपने एक नीच नौकर के सामने नीचा देखे। ऐसे ही संयोग से मेरी अवस्था हो सकती है कि अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में असमर्थ हूँ जिसे कदाचित् एक साधारण व्यक्ति भी कर ले और मुझे कुढ़ कुढ़ कर मरना पड़े।
पुरश्री : लाचारी है-बिना मंजूषा चुने हुए कुछ नहीं हो सकता, इसलिये या तो आप इस इच्छा ही को छोड़ दें या यदि चुनना चाहें तो पहिले इस बात की शपथ खायँ कि यदि आप झूठी मंजूषा को चुनेें तो फिर आमरण किसी स्त्री की ओर ब्याह करने के अभिप्राय से दृष्टि न करें-इसे खूब सोच लीजिए।
मोरकुटी : हमें यह प्रतिज्ञा स्वीकार है। चलो अपने भाग्य की परीक्षा करें।
पुरश्री : पहिले मन्दिर में चलिए। तीसरे पहर सन्दूक चुनिएगा।
मोरकुटी : ऐ भाग्य सहाय हो, मुझे सबसे अधिक प्रसन्न या सबसे अधिक अभागा बनाना तेरे ही हाथ है।
तुरहियाँ बजती हैं। सब जाते हैं,


दूसरा दृश्य
स्थान-बंशनगर-एक सड़क
(गोप आता है)
गोप : निस्सन्देह मेरा धर्म मुझे इस जैन अपने स्वामी के पास से भाग जाने की सम्मति देगा। प्रेत मेरे पीछे लगा है और मुझे बहकाता है कि गोप, मेरे अच्छे गोप, पाँव उठाओ, आगे बढ़ो, और चलते फिरते दिखलाई दो। मेरा धर्म कहता है नहीं, खबरदार सच्चे गोप खबरदार, सच्चे गोप भागो मत, भागने पर लात मारो। तो एक ओर से बली भूत बहका रहा है कि अपनी बोरिया बँधना बाँधो, धता हो, दून हो, साहस को दृढ़ करो और नौ दो ग्यारह हो जाओ-दूसरी ओर से धर्म मेरे चित्त को, गले का हार होकर, इस प्रकार से शिक्षा देता है-मेरे धर्मिष्ट मित्र गोप! तुम कि एक धर्मात्मा के पुत्र हो वरंच यों कहना चाहिए कि एक धर्मात्मा स्त्री के पुत्र हो-अस्तु मेरा धर्म कहता है कि अपने स्थान से हिलो मत-तो अब भूत कहता है कि अपने स्थान से हिलो और धर्म कहता है कि अपने स्थान से मत हिलो। मैं अपने धर्म से कहता हूँ कि तुम्हारी सम्मति बहुत अच्छी है। फिर मैं भूत से कहता हूँ कि तुम्हारी राय बहुत अच्छी है। यदि मैं अपने धर्म की आज्ञा मानता हूँ तो मुझे अपने स्वामी जैन के साथ ठहरना पड़ता है जो कि आप ही एक प्रकार का भूत है-यदि मैं जैन के पास भाग जाता हूँ तो भूत की आज्ञा पर चलता हूँ जो कि (स्वामी की प्रतिष्ठा में अन्दर नहीं डालता) आप ही भूत है। निस्सन्देह जैन तो निज भूत का अवतार है इसलिये मेरी जान से तो मेरा धर्म बड़ा कठोर है जो इस जैन के साथ ठहरने की सम्मति देता है। भूत की सम्मति बहुत भली जान पड़ती है, तो ले भूत मैं भागने को उपस्थित हूँ, मेरे पाँव तेरी आज्ञा में हैं, मैं अवश्य भागूँगा।
(वृद्ध गोप एक टोकरा लिए हुए आता है)
वृद्ध गोप : भाई समृद्ध परदेसी महाजन के घर का कौन सा मार्ग है?
गोप : (आप ही आप) ईश्वर का त्राण! आप मेरे सगे बाप हैं, जो ऐसे अंधे हो गए हैं कि अपने जनमाए हुए लड़के को नहीं पहिचानते। ठहरो तनिक इनकी परीक्षा लूँगा।
वृद्ध गोप : साहिब नेक कृपा करके परदेसी महाजान के घर का मार्ग तो बता देते।
गोप : आगे के मोड़ पर पहुँच कर अपने दाहिने हाथ को फिर जाना, और सबसे आगे के मोड़ पर जब पहुँचो तो अपने बायें हाथ को मुड़ना, फिर दूसरे मोड़ पर किसी ओर न फिरना वरंच तिरछे मुड़ कर सीधे परदेसी महाजन के घर चले जाना।
वृद्ध गोप : भगवान की शपथ है इस मार्ग का पाना तो कठिन होगा। भला आप को विदित है कि एक मनुष्य गोप नाम का जो उनके यहाँ रहता था अब वहाँ है या नहीं?
गोप : क्या तुम युवक गोप को पूछते हो?-(आप ही आप) अब देखो मैं कैसा खेल करता हूँ-क्या तुम युवा गोप महाशय का वर्णन करते हो?
वृद्ध गोप : ‘महाशय’ न कहिए वरंच एक दरिद्र का बेटा। उसका बाप एक बहुत ही धर्मात्मा दरिद्री है पर धन्य है ईश्वर को कि रोटी कपड़े से सुखी है।
गोप : उसके बाप को कौन पूछता है वह जो चाहे सो हों, यहाँ तो इस समय युवा गोप महाशय का वर्णन है।
वृद्ध गोप : जी हाँ वही गोप आप का मित्र।
गोप : इसीलिये तो बूढ़े बाबा मैं तुम से कहता हूँ, इसीलिये तो निवेदन करता हूँ कि उसे युवा महाशय कहो।
वृद्ध गोप : आपकी साहिबी बनी रहे मैं गोप को पूछता हूँ।
गोप : तो उसका नाम गोप महाशय हुआ-बाबा गोप महाशय का वर्णन न करो क्योंकि वह युवा सज्जन मनुष्य तो कुछ दिन हुए मर गया या यों समझ लो कि स्वर्ग को गया।
वृद्ध गोप : भगवान न करे! वही लड़का तो मेरे बुढ़ापे की लकड़ी था, मेरे अँधेरे घर का दीपक था।
गोप : मेरी सूरत तो कहीं लकड़ी या दिये से नहीं मिलती? - बाबा तुम मुझे पहचानते हो?
वृद्ध गोप : सोच है कि मैं आपको नहीं पहिचानता, किन्तु ईश्वर के लिये मुझे शीघ्र बतलाइए कि मेरा लड़का (भगवान सबकी आत्मा को सुख दे!) जीता है कि मर गया?
गोप : बाबा तुम मुझे नहीं पहिचानते?
वृद्ध गोप : साहिब मैं तो बिल्कुल अंधा हूँ और तुम्हें नहीं पहिचान सकता।
गोप : और न यदि तुम्हारे आँख होती तो तुम मुझे पहिचान सकते। यह बड़े बुद्धिमान पिता का काम है कि अपने लड़के को पहिचान लें। अच्छा बूढ़े बाबा मैं तुम्हारे बेटे का हाल तुमसे कहूँगा, मुझे आशीर्वाद दो, अभी सच्चा हाल खुल जायगा। रुधिर अधिक दिन तक नहीं छिप सकता, लड़का कदाचित् छिप सकें-परन्तु अन्त को मुख्य बात प्रकट हो जाती है। (घुटने के बल झुकता है)।
वृद्ध गोप : भाई उठो यह क्या बात है-मुझे निश्चय है कि तुम मेरे लड़के गोप नहीं हो।
गोप : ईश्वर के लिये अब अधिक मूर्ख मत बनो और मुझे आशीर्वाद दो। मैं वही गोप हूँ जो पहिले तुम्हारा लड़का था, अब तुम्हारा बेटा है, और आगे तुम्हारा बच्चा कहलायेगा।
वृद्ध गोप : मैं कैसे जानूँ कि तुम मेरे बेटे हो?
गोप : मैं नहीं जानता कि तुम्हारी समझ को क्या कहूँ पर महाजन का नौकर गोप मैं ही हूँ और भली भाँति जानता हूँ कि तुम्हारी पत्नी मागधी मेरी माता है।
वृद्ध गोप : निस्सन्देह उसका नाम मागधी है। मैं शपथ से कह सकता हूँ कि यदि तू गोप है तो तू मेरे ही माँस और रुधिर से है। वाह वाह तेरी दाढी कितनी लंबी निकल आई है! जितने बाल तेरी टुड्डी पर हैं उतने तो मेरे घोड़े दमनक की पोंछ पर भी न होंगे।
गोप : तो इससे मालूम होता है कि दमनक की पोंछ बढ़ने के बदले दिन पर दिन भीतर घुसी जाती है। मुझे स्मरण है कि जब मैंने उसे अंतिम बार देखा था तो उसकी पोंछ के बाल मेरी डाढ़ी के बाल से कहीं बड़े थे।
वृद्ध गोप : हे भगवान्! तुम में कितना अन्तर हो गया है। भला तुझ से और तेरे स्वामी से कैसी पटती है? मैं उसके लिये कुछ भेंट लाया हूँ। बता तेरी उनके साथ कैसी निभती है?
गोप : किसी भाँति निभ जाती है। मैं अपने जी में नौ दो ग्यारह होने की ठान चुका हूँ और जब तक कुछ दूर भाग न लूँगा कदापि दम न लूँगा। मेरा स्वामी पूरा जैन है। उसे भेंट दोगे! हुंह, उसे फाँसी दो। मैं उसकी नौकरी में भूखों मरता हूँ-नेक मेरी दशा तो देखो कि कोई चाहे तो मेरी नसों को हर एक अँगुली को गिन ले। बाबा बड़ी बात हुई कि तुम यहाँ आ गए। चलो अपनी भेंट बसन्त महाराज को दो जो अच्छी नई नई वर्दियाँ बाँटता है। यदि मुझे इसकी नौकरी न मिली तो जहाँ तक कि ईश्वर के पास पृथ्वी है, मैं भाग जाऊँगा। अहा! मेरा भाग्य कैसा प्रबल है! देखो वह आप चले आते हैं। बाबा इनसे कहो, क्योंकि यदि अब मैं एक दम भी जैन की नौकरी करूँ तो मैं उससे अधम।
(बसन्त लोरी तथा दूसरे भृत्यों के सहित आता है)
बसन्त : अच्छा यों ही करो-परन्तु देखो ऐसी शीघ्रता से सब प्रबन्ध हो कि अधिक से अधिक पाँच बजे तक ब्यालू तैयार हो जाय। इन पत्रों को डाक में डाल आओ, वर्दियाँ झटपट बनवा लो और गिरीश से जाकर कहो कि अभी मेरे घर आवें।
(एक नौकर जाता है)
गोप : बाबा-हूँ।
वृद्ध गोप : ईश्वर आपको चिरायु करै!
बसन्त : (धन्यवादपूर्वक) तुम्हें मुझसे कुछ काम है?
वृद्ध गोप : धम्र्मावतार यह दीन बालक मेरा पुत्र-
गोप : दीन बालक नहीं महाराज वरंच धनिक महाजन का मनुष्य जो इस बात को चाहता है जैसा कि मेरा पिता विवरण के साथ कहेगा कि-
वृद्ध गोप : इसे नौकरी की बड़ी इच्छा है और-
गोप : सचमुच महाराज मुख्य बात यह है कि मैं जैन के यहाँ नौकर हूँ और इच्छा रखता हूँ जैसा कि मेरा बाप कहेगा कि-
वृद्ध गोप : महाराज इसकी और इसके स्वामी की जरा भी नहीं पटती-
गोप : मैं थोड़े में सच्ची बात कहे देता हूँ कि जैन ने मेरे साथ बुराई की है जिसके कारण से मैं चाहता हूँ जैसा कि मेरा बाप जो मैं आशा करता हूँ कि एक वृद्ध मनुष्य है आपसे सविस्तार वर्णन करेगा-
वृद्ध गोप : मैं एक थाली कबूतर के मांस की आपकी पारितोषिक देने को लाया हूँ और मेरी प्रार्थना यह है कि -
गोप : सौ बात की एक बात यह है कि यह प्रार्थना मेरे विषय में जैसा कि आपको इस सच्चे बुड्ढे के कहने से विदित होगा जो यद्यपि बूढ़ा और दीन है तो भी मेरा बाप है।
बसन्त : दो के बदले एक मनुष्य बोलो-तुम क्या चाहते हो?
गोप : सर्कार की सेवा करना।
वृद्ध गोप : जी हाँ यही मुख्य तात्पर्य है।
बसन्त : मैं तुम्हें भली भाँति जानता हूँ, तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार हुई। तुम्हारे स्वामी शैलाक्ष ने आज ही तुम्हारी सिफारिश की है, यदि एक धनवान जैन की सेवा छोड़ कर मुझ ऐसे दरिद्री की नौकरी करना चाहते हो।
गोप : वह पुरानी कहावत सर्कार के और मेरे स्वामी शैलाक्ष के विषय में ठीक ठीक घट गई है-सर्कार पर ईश्वर की कृपा है और उसके पास पुष्कल धन है।
बसन्त : यह बात तो तुमने खूब कही। बूढ़े बाबा अपने बेटे के साथ जाओ अपने पुराने स्वामी से बिदा होकर मेरे घर का पता लगा कर उपस्थित हो। (अपने भृत्यों से) इस मनुष्य को एक वर्दी जिसमें औरों की वर्दियों से उत्तम लैस टँकी हो दे दो, देखो अभी निबटा दो।
गोप : बाबा चलो-मेरे लिये कहीं नौकरी की कमी हो सकती है, नहीं। मैं कभी अपने मुँह से प्रार्थना नहीं करता! हाँ (अपना हाथ देख कर) क्या मुझसे बढ़ कर मारवाढ़ भर में किसी को हथेली निकलेगी, जो पुस्तक लेकर शपथ खाने को प्रस्तुत है कि तुम खूब रुपया कमाओगे! यह देखो आयु की रेखा कैसी सीधी चली गई है!-और यह पत्नियों का एक साधारण लेखा है-हा केवल पन्द्रह स्त्री यह तो कुछ भी नहीं है-ग्यारह राँड़ और नौ क्वांरियों से ब्याह करना तो मनुष्य के लिये थोड़ी ही बात है-फिर तीन बार डूबते डूबते बचना-और फिर एक तिनके से जीव का जोखिम-यह देखो यह इन सब आपत्तियों से बचने की रेखा है-अहा! यदि विधाता कोई स्त्री है तो ऐसे उत्तम स्त्रीधन के साथ अवश्य ब्याहने के योग्य है-बाबा आओ-मैं पलक भांजते मैं जैन से विदा हो लूँगा। (गोप और वृद्ध गोप जाते हैं)।
बसन्त : लोरी इसको भली भाँति समझ लो। इन वस्तुओं को मोल लेकर और वर्दियाँ बाँट कर शीघ्र लौट आओ क्योंकि आज ही रात को मुझे अपने परम प्रतिष्ठित मित्र का आतिथ्य करना है। शीघ्रता करो, जाओ।
लोरी : जहाँ तक हो सकता है शीघ्र प्रबन्ध करके उपस्थित होता हूँ।
(गिरीश आता है)
गिरीश : तुम्हारे स्वामी कहाँ हैं?
लोरी : महाराज, वहाँ टहल रहे हैं।
(लोरी जाता है)
गिरीश : बसन्त महाशय-
बसन्त : गिरीश!
गिरीश : मेरी आपसे एक प्रार्थना है।
बसन्त : मैंने स्वीकार की-कहो।
गिरीश : देखिए अस्वीकार न कीजिएगा-मैं आपके साथ विल्वमठ चलूँगा।
बसन्त : इसमें कौन सी बात है आनन्द से चलो-लेकिन सुनो गिरीश, तुम में ढिठाई, अनार्यता और असभ्यता अधिक है जो यद्यपि तुम में गुण जान पड़ते हैं और हमारी दृष्टि में दुर्गुण नहीं ठहरते तथापि बाहर वालों की दृष्टि में धृष्टता समझी जाती है। नेक तथापि ध्यान रखना और लज्जा के ठंढे पानी से अपने चिलविलेपन की गर्मी को ठंढा करने का यत्न करना जिससे ऐसा न हो कि जहाँ मैं जाने वाला हूँ वहाँ तुम्हारी अनार्यता के कारण मैं भी हल्का समझा जाऊँ और मेरी सब आशाएँ धूलि में मिल जायँ।
गिरीश : बसन्त महाराज, सुनिए यदि मैं गंभीर बन जाऊँ, नम्रता के साथ न बोलूँ, शपथ खाने का अभ्यास कम न कर दूँ, स्तोत्र की पुस्तक जेब में न भरे रहूँ, दृष्टि नीची न रक्खूँ, केवल इतना ही नहीं वरंच जिस समय स्तुति पढ़ी जाती हो अपनी टोपी की इस तरह आँख पर अँधेरी न चढ़ा लूँ, और आह भर कर एवमस्तु कहूँ, और एक बड़े विद्वान सभ्य मनुष्य की भाँति नम्रता के साथ हर बात में चुनाचुनी न करूँ, तो आज से मेरी बात का विश्वास न कीजिएगा।
बसन्त : वह तो देखने ही में आवेगा।
गिरीश : हाँ पर आज की रात को इस प्रतिबंधन से दूर रखिए, आज की रात हँसी के लिये रुकावट न रहेगी।
बसन्त : नहीं नहीं मैं कब ऐसा चाहने लगा, वरंच मैं तो स्वयं कहने को था कि आज की सभा में नियम से भी अधिक ढीठ रहो क्योंकि आज ऐसे मित्रों का भोज है जो बहुत की इच्छा रखते हैं-परन्तु इस समय विदा हों क्योंकि मुझे कुछ काम है।
गिरीश : और मैं लवंग प्रभूति के पास जाता हूँ, पर भोजन के समय हम सब अवश्य उपस्थित होंगे।
(दोनों जाते हैं)

तीसरा दृश्य
स्थान-वंशनगर, शैलाक्ष के घर की एक कोठरी
(जसोदा और गोप आते हैं)
जसोदा : मुझे खेद है कि तू मेरे बाप की नौकरी छोड़ता है। यह घर मुझे नरक समान लगता है पर तुझ ऐसे हँसमुख भूत के कारण थोड़ा बहुत जी बहल जाता था। अस्तु, विदा हो; यह ले एक रुपया तेरे लिये पारितोषिक है और सुन गोप! थोड़ी देर में तेरे नये स्वामी के यहाँ लवंग भोजन करने जायगा उसे चुपके से यह पत्र दे देना-बस जा-मैं नहीं चाहती कि मेरा बाप मुझे तुझसे बात करते देख ले।
गोप : तुम्हें ईश्वर को सौंपता हूँ!-आँसुओं के मारे मुँह से शब्द नहीं निकलने पाता। ऐ सुन्दरी कामिनी, ऐ प्यारी जैनिन, यदि कोई आर्य तुझे न ठगे और अपनी स्त्री न बनावे तो मेरा नाम नहीं। किन्तु बस, ईश्वर ही रक्षा करे। प्रेम के आँसू तो मेरे दृढ़ चित्त पर पर प्रबल हुआ चाहते हैं ईश्वर रक्षा करे-
(जाता है)
जसोदा : अच्छा बिदा हो सुहृद गोप। हाय! मेरे लिये कैसे यह पाप की बात है कि मैं अपने बाप की लड़की होने से लज्जित होऊँ। परन्तु यद्यपि मैं उसके रक्त से उत्पन्न हूँ पर मेरा चित्त उसका सा नहीं है। ऐ लवंग, यदि तू अपने वचन पर दृढ़ रहा तो मैं इस झगड़े को निबटा दूँगी और आर्य होकर तेरी प्यारी स्त्री बन जाऊँगी।
(जाती है)


चौथा दृश्य
स्थान-वंशनगर-एक सड़क
(गिरीश, लवंग, सलारन और सलोने आते हैं)
लवंग : नहीं, वरंच हम लोग खाने के समय खिसक देंगे और मेरे घर पर आकर भेस बदल कर सब लोग लौट आवेंगे। एक घंटे में सब काम हो जायगा।
गिरीश : हम लोगों ने अभी सब तैयारी नहीं की है।
सलारन : अब तक मशल्चियों का भी कुछ प्रबन्ध नहीं हुआ है।
सलोने : जब तक कि स्वाँग का उत्तमत्ता के साथ प्रबन्ध न हो वह निरा लड़कों का खेल होगा और मेरी सम्मति में ऐसी अवस्था में उसका न करना ही उत्तम होगा।
लवंग : अभी तो केवल चार बजा है-अभी हमें तैयारी के लिए दो घंटे का अवकाश है-
(गोप हाथ में पत्र लिए आता है)
कहो जी गोप क्या समाचार लाए?
गोप : यदि आप इसे खोलेंगे तो आप ही सब समाचार विदित हो जायगा।
लवंग : मैं इन अक्षरों को पहिचानता हूँ, ईश्वर की सौगन्ध कैसे सुन्दर अक्षर है, और जिस कोमल हाथ ने इन्हें लिखा है वह इस पत्र से भी अधिक गोरा है।
गिरीश : निस्सन्देह यह तुम्हारी प्यारी का पत्र है।
गोप : साहिब अब मुझे आज्ञा होती है?
लवंग : कहाँ जाते हो!
गोप : अपने पुराने स्वामी जैन को अपने नये आर्य स्वामी के साथ आज रात को भोजन करने के लिये निमंत्रण देने।
लवंग : ठहरो, यह लो, प्यारी जसोदा से कह दो कि कदापि अन्तर न पड़ेगा-देखो अकेले में कहना-जाओ।
(गोप जाता है)
महाशयो आप लोग अब तो रात के लिये स्वाँग की तैयारी करेंगे? मशाल दिखलाने वाले का प्रबन्ध हो गया।
सलारन : जी हाँ मैं अभी जाकर तैयार होता हूँ।
सलौने : और मैं भी चला।
लवंग : लगभग एक घंटे के बाद गिरीश के घर पर मुझसे और गिरीश से मिलना।
सलारन : बहुत ठीक।
गिरीश : वह पत्र जसोदा ही का न था? (सलारन और सलोने जाते हैं)
लवंग : अवश्य है कि मैं तुझसे सब हाल वर्णन कर दूँ। उसने मुझे सूचना दी है कि मैं उसे किस भाँति उसके बाप के घर से ले जाऊँ, कितनी अशरफी और गहने उसने ले रक्खे हैं, और कैसा परिचारक का वस्त्र अपने लिये उपस्थित कर रक्खा है। भाई गिरीश यदि कभी इसके बाप जैन को स्वर्ग में आने की आज्ञा मिलेगी तो अपनी बेटी के सुकृत के बदले, और यदि कभी कोई बुराई इस तक आवेगी तो इस बहाने से कि वह एक अधर्मी जैन की बेटी है। आओ, मेरे साथ आओ, मार्ग में इसे पढ़ते चलो। सुन्दरी जसोदा आज स्वाँग में मशाल दिखलावेगी।
(दोनों जाते हैं)


पाँचवाँ दृश्य
स्थान-वंशनगर-शैलाक्ष के घर के सामने
(शैलाक्ष और गोप आते हैं)
शैलाक्ष : अच्छा तो तू देखेगा, तेरी आँखें आप ही इस बात का न्याय करेंगी कि वृद्ध शैलाक्ष और बसन्त में कितना अन्तर है। अरी जसोदा! जैसा तू मेरे यहाँ भुखमुए को भाँति ढाई सेर भकोसता था उसका स्मरण वहाँ आवेगा। अरी जसोदा! और हर समय पड़े रहने और खर्राटे लेने और कपड़े फाड़ डालने की महिमा भी जान पड़ेगी। अरी जसोदा, सुनती नहीं!
गोप : जसोदा!
शैलाक्ष : तुझे किसने पुकारने को कहा है? मैंने तुझसे नहीं कहा कि पुकार।
गोप : आप ही न मुझ पर सदा क्रुद्ध हुआ करते थे कि तू बेकहे कोई काम नहीं करता।
(जसोदा आती है)
जसोदा : मुझे आपने बुलाया है? आज्ञा?
शैलाक्ष : मुझे आज का नेवता आया है, लो जसोदा यह कुंजियाँ तुम्हारे सुपुर्द हैं। पर मैं क्यों जाने लगा? मुझे वह लोग कुछ प्रेम में नहीं बुलाते वरंच सुश्रपा से-किन्तु क्या हुआ मैं भी तिरस्कार की दृष्टि से जाऊँगा और उस बहुव्ययी आर्य का माल चाभूँगा। मेरी प्यारी बेटी तू घर से सावधान रहियो। मेरा जाने को तनिक भी जी नहीं चाहता, मुझे कोई बुराई आती मालूम होती है जिसका मेरे जी में खटका लग रहा है, क्योंकि आज ही रात को मैंने रुपये के तोड़ों का सपना देखा था।
गोप : आप कृपा करके चलें; मेरे नये स्वामी आपकी राह देखते होंगे; और उन लोगों ने आपस में गुट किया है। यह मैं नहीं कह सकता कि आप अवश्य ही स्वाँग देखिएगा परन्तु यदि ऐसा हुआ तो निस्सन्देह कुछ न कुछ रंग खिलेगा क्योंकि मेरी नाक से उस दिन तेवहार के छ बजे सवेरे से रुधिर का बहना व्यर्थ न जायगा।
शैलाक्ष : क्या स्वाँग भी बनेंगे? सुनो जसोदा द्वारों में ताला लगा दो और जब भेर की ढबढब और बाँसुरी की ध्वनि सुनाई दे तो झरोखों में से झाँकने के लिये ऊपर न चढ़ना और न इन आर्य मसखरों के लुक फेर हुए चेहरों को देखने के लिए खिड़की से बाजार की ओर सिर निकालना वरंच शीघ्र ही मेरे घर के कानों को अर्थात् खिड़कियों को बन्द कर लेना जिसमें ऐसे असभ्य तुच्छ जनों का शब्द मेरे सभ्य घर के भीतर न पहुँचने पावे। शपथ है अहन्त देव की छड़ी की मेरा जी आज रात के नेवते में जाने को नेक भी नहीं उभरता। किन्तु मैं जाऊँगा। अबे तू आगे जा कह दे कि मैं आऊँगा।
गोप : महाराज मैं चला। बबुई तुम इनकी बकबक पर ध्यान न दे कर अवश्य खिड़की में से झांकती रहना क्योंकि ‘आज होगा उस मसीहा का गुजर इस राह से, जिसने मूसा है यहूदी के दिले बीमार को।’ (जाता है)।
शैलाक्ष : वह मूर्ख प्रेत का अवतार क्या कहता था, ऐं?
जसोदा : उसने केवल इतना ही कहा कि ‘बबुई ईश्वर आपकी रक्षा करें’ और कुछ नहीं।
शैलाक्ष : वह मूर्ख प्रेम तो रखता है परन्तु खाने में साण्ड से अधिक है, दिन को सोने में जंगली बिल्ली से बढ़ कर और काम करने में घोंघे से अधिक सुस्त। ऐसे कृतघ्नों का निर्वाह मेरे साथ कहाँ हो सकता है; इसीलिये मैं उसे दूर करता हूँ, और फिर उसे पल्ले भी कैसे मनुष्य के बाँधता हूँ जिसके उधार लिए हुए रुपये के नष्ट करने में वह सहायता देगा। अच्छा जसोदा अब तुम भीतर जाओ, कदाचित् मैं अभी लौट जाऊँ। जिस भाँति मैंने समझा दिया है वैसा ही करना। द्वारों को बन्द करती जाओ-‘जागै सो पावै सोवै सो खोवै’ यह कहावत बहुत ठीक है। (जाता है)
जसोदा : जाइए (आप ही आप)
”गर वर आई आर्जूं मेरी तो रुखसत आपको,
आपने बेटी को खोया और मैंने बाप को।“
(जाती है)

छठा दृश्य
(स्थान-शैलाक्ष के घर के सामने)
(गिरीश और सलारन भेस बदले हुए आते हैं)
गिरीश : यही बरामदा है जिसके नीचे लवंग ने हमें खड़े रहने को कहा था।
सलारन : उनका समय तो हो गया।
गिरीश : आश्चर्य है कि उन्होंने देर की क्योंकि अनुरागियों की चाल तो सदा घड़ी से तीव्र रहती है।
सलारन : ओह! नये अनुरागी कामदेव के कबूतर की भाँति अनुराग की दस्तावेज पर मुहर करने को तो दस गुने तेज उड़ते हैं पर फिर उसकी उलझन में उतने ही सुस्त हो जाते हैं।
गिरीश : यह तो नियम की बात है। किसी को भी खाने के पश्चात् वह भूख नहीं रह जाती है जो खाने पर बैठने के समय थी? कोई घोड़ा भी उस तीव्रगति के साथ लौट सकता है जिसके साथ वह चला था? संसार में जितनी वस्तुएँ हैं उनके मिलने से पूर्व जो उत्साह रहता है वह उनके मिलने पर नहीं रहता जैसा कि कहा भी है। ”जो मजा इंतिजार में देखा, वह नहीं वस्ले यार में देखा।“ जिस समय जहाज अपनी खाड़ी से रवाना होता है तो कैसा एक युवा व्यसनी अथवा बहुव्ययी के भाँति झंडियाँ फहराए हुए और दुष्ट वायु के गले लगा हुआ चला जाता है! पर जब वह लौटता है तो उसी बहुव्ययी की भाँति उसकी कैसी दुरव्यवस्था हो जाती है अर्थात् तूफान से किनारे टूटे हुए, पाल फटे हुए, निरातंक और व्याकुल! और यहा सब बुराइयाँ उसी कठोर वायु के द्वारा होती है।
(लवंग आता है)
गिरीश : वह देखो लवंग आ पहुँचे। उस विषय में हम लोग फिर बातचीत करेंगे।
लवंग : मेरे प्यारे मित्रो, मुझे विलम्ब के लिये क्षमा करना। इसमें अपराध मेरा न था वरंच आवश्यक कामों का। जब स्त्री चुराने की तुम्हारी बारी आवेगी तब मैं भी इतनी देर तक तुम्हारी राह देखूँगा। अच्छा इधर आओ, यहीं मेरा ससुरा जैनी रहता है। ऐ कोई भीतर है?
(जसोदा लड़के का कपड़ा पहिने हुए ऊपर से झांकती है)
जसोदा : तुम कौन हो? शीघ्र बतलाओ जिसमें मेरा पूरा सन्तोष हो जाय। यद्यपि मैं शपथ खा सकती हूँ कि मैं तुम्हारा शब्द पहिचानती हूँ।
लवंग : तुम्हारा प्रेमी लवंग।
जसोदा : निस्सन्देह तुम लवंग हो, और सचमुच मेरे प्यारे, क्योंकि मैं तुम्हारे सिवाय किसको प्यार करता हूँ? किन्तु प्यारे इस बात को सिवाय तुम्हारे कौन जान सकती है कि मैं भी तुम्हारी प्यारी हूँ या नहीं?
लवंग : इस बात का साक्षी तो ईश्वर और तुम्हारा मन है।
जसोदा : लो इस सन्दूक को सम्हालो, इसमें हम लोगों के परिश्रम का पूरा मिहनताना मिलेगा। मुझे हर्ष है कि रात का समय है और तुम मेरी सूरत नहीं देख सकते क्योंकि मुझे अपने इस वेष पर बड़ी लज्जा आती है; पर प्रेम अंधा होता है और प्रेमी अपनी मूर्खता की बातों को कभी नहीं देख सकते, क्योंकि यदि वह देख सकें तो कामदेव आप मुझे लड़के के वेष में देख कर लज्जित हो जाय।
लवंग : उतरो, क्योंकि तुम्हें मशाल दिखलानी होगी।
जसोदा : क्या मैं अपनी निर्लज्जता को आप ही मशाल लेकर दिखाऊँ। वह तो स्वयं अत्यन्त प्रकाशमान है। प्यारे, मशालची तो इसलिये होता है कि अंधेरे में की वस्तुओं को प्रकट करे पर मुझे तो उनके विरुद्ध अपने तईं छिपाना चाहिए।
लवंग : प्यारी तुम तो लड़के के सुहावने वेष में आप ही छिपी हो। परन्तु अब शीघ्रता करो क्योंकि रात, जो प्रेमियों की अवलम्ब है, बीतती जाती है और हम लोगों को अभी बसन्त के भोज में कुछ देर ठहरना है।
जसोदा : मैं द्वार बन्द करके और कुछ और रुपये ले कर अभी आती हूँ।
(ऊपर से जाती है)
गिरीश : मैं शपथ खा कर कह सकता हूँ कि यह जैन नहीं वरंच आर्या जान पड़ती है।
लवंग : मेरा बुरा हो यदि मैं इसे जी से न प्यार करता हूँ। यदि मेरी समझ ठीक है तो यह बुद्धिमती है, और यदि मेरी आँखें अन्धी नहीं हो गई हैं तो सुन्दर भी अत्यन्त ही है। सचाई इसकी जैसी कुछ है विदित है, अतः ऐसी बुद्धिमती, सुन्दरी और सच्ची युवती का मैं सदा मन से आज्ञाकारी रहूँगा।
(जसोदा नीचे आती है)
क्या तुम आ गई? चलो महाशयो, चलो, हमारे स्वाँग के साथी लोग हमारी राह देख रहे होंगे।
(जसोदा और सलारन के साथ जाता है)
अनन्त आता है,
अनन्त : कौन है?
गिरीश : अनन्त महाराज?
अनन्त : छी छी गिरीश! और लोग कहाँ हैं? नौ बज गया। हमारे सब मित्र तुम लोगों का बाट जोहते हैं। आज स्वाँग बन्द रहा क्योंकि अभी-अनुकूल वायु चला और वसन्त शीघ्र ही यात्रा करने जायँगे। मैंने बीसियों मनुष्यों को तुम्हारी खोज में चारों ओर दौड़ाया है।
गिरीश : मैं इस समाचार से बहुत प्रसन्न हुआ। मुझे स्वाँग से कहीं बढ़ कर इस बात में आनन्द मिलेगा कि आज ही रात को पाल उड़ाऊँ और चलता फिरता दिखलाई दूँ।
(जाते हैं)


सातवाँ दृश्य
स्थान-विल्वमठ, पुरश्री के घर का एक कमरा,
(तुरहियाँ बजती हैं। पुरश्री और मोरकुटी का राजुकुमार अपने अपने साथियों के साथ आते हैं)
पुरश्री : जाओ, पर्दे उठाओ और इस प्रतिष्ठित राजकुमार को तीनों सन्दूक दिखलाओ। अब आप पसन्द कर लें।
मोरकुटी : पहला सन्दूक सोने का है जिस पर यह लेख लिखा है। ”जो कोई मुझे पसन्द करेगा वह उस वस्तु को पावेगा जिसकी बहुत लोग इच्छा रखते हैं।“
दूसरा चाँदी का है जिस पर यह प्रतिज्ञा लिखी है।
”जो कोई मुझे पसन्द करेगा वह उतना पावेगा जितने के वह योग्य है।“
तीसरा कुन्त सीसे का है जिस पर भी वैसी ही धमकी लिखी हुई है। ”जो कोई मुझे पसन्द कर वह अपनी सब वस्तुओं को भय में डाते और उनसे हाथ धोवै।“
भला मैं कैसे जानूँगा कि मैंने सही सन्दूक चुना?
पुरश्री : इनमें से एक में मेरी तस्वीर है-यदि आप उसे चुनेंगे तो मैं भी उस चित्र के साथ आप की हो जाऊँगी।
मोरकुटी : कोई देवता इस अवसर पर मेरी सहायता करता! देखूँ तो;
मैं इस सन्दूकों के परिलेखों पर फिर तो विचार करूँ। इस सीसे के सन्दूक पर क्या लिखा है?
”जो कोई मुझे पसन्द करे वह अपनी सब वस्तुओं को भय में डाले और उनसे हाथ धोवै।“
हाथ धोवे-किस के लिये? सीसे के लिये? भय में डालना और सीसे के लिये? यह सन्दूक तो बहुत ही धमकाता है; लोग जो अपनी सब वस्तुओं को जोखों में डालते हैं तो अच्छे अच्छे लाभ की आशा में; सहृदय वू$ड़े करकट की ओर कब झुक सकता है; तो मैं सीसे के लिये न किसी वस्तु से हाथ धोऊँगा और न उसे भय में डालूँगा। अब देखो यह चाँदी जिसकी रंगत अल्पवयस्क कामिनियों की सी है क्या कहती है? ”जो कोई मुझे पसन्द करेगा वह उतना पावेगा जितने के वह योग्य है।“ उतना जितने के वह योग्य है?-मोरकुटी के राजकुमार नेक ठहर और हाथ साध कर अपनी योग्यता को तौल। यदि तू अपने नाम की ख्याति के अनुसार आँका जाय तो तू निस्सन्देह बहुत कुछ पाने के योग्य है, पर कौन जाने कदाचित यह कुमारी इस बहुत कुछ से बढ़कर हो। किन्तु इसी के साथ अपनी योग्यता में सन्देह करना भी निर्बलता की बात है और अपनी योग्यता में बट्टा लगाना है। उतना जितने के मैं योग्य हूँ? वाह वह तो यही कुमारी है; मैं अपनी उत्पत्ति, अपनी लक्ष्मी, अपनी शिक्षा, अपनी चालचलन हर बात से उसके पाने की क्षमता रखता हूँ, पर सबसे बढ़ कर अपने प्रेम के ध्यान से मैं अपने को उसके योग्य कह सकता हूँ। तो अब मैं आगे क्यों भटकूँ और इसी को चुन लूँ-पर एक बार सोने के सन्दूक की लिपि को फिर तो देखूँ। ‘जो कोई मुझे पसन्द करेगा वह उस वस्तु को पावेगा जिसकी बहुत लोग इच्छा रखते हैं।’
वाह वह तो यही कुमारी है; सारा संसार इसकी इच्छा रखता है और पृथ्वी के चारों कोनों से लोग इस जागृत महात्मा के पैर चूमने को चले आते हैं। हरिद्वार के जंगल और बीकानेर के उजाड़ मैदान दोनों आज कल पुरश्री के प्रणयी राजकुमारों के लिये साधारण मार्ग हो रहे हैं। समुद्र जिसका अभिमानी मस्तक आकाश के मुँह पर थूकता है उसका भय भी आने वालों के साहस को नहीं तोड़ सकता और लोग पुरश्री के देखने की लालसा में उस पर से ऐसे चले आते हैं जैसे कोई एक छोटे से नाले को पार करता हो। इन सन्दूकों में से एक में उसका मनोहर चित्र है। क्या यह सम्भव है कि वह सीसे के भीतर हो? ऐसा तुच्छ विचार मेरे नाश का कारण होगा।
सीसा तो अंधेरी समाधि में उसके कफन के रखने के लिये भी एक बड़ी भद्दी वस्तु होगी। या यह समझूँ कि वह चाँदी में बन्द है जिसका मूल्य खरे सोने से दस गुना कम है? ऐसा सोचना ही पाप है! भला कभी भी ऐसा लभ्य रत्न सोने से कम मूल्य वाले पदार्थ में जड़ा गया है? अंग में एक सोने का सिक्का होता है जिस पर पार्षदों का चित्र खुदा रहता है, परन्तु वह तो ऊपर खुदा रहता है और यहाँ सचमुच एक अप्सरा सोने के बिछौने पर भीतर मग्न है। अच्छा मुझे ताली दो मैं इसी को चुनता हूँ आगे जो कुछ मेरे भाग्य में हो!
पुरश्री : यह लो राजकुमार यदि मेरी तस्वीर इसके भीतर निकली तो मैं आपकी हो चुकी। (सोने के सन्दूक को खोलता है)
मोरकुटी : हाय अन्धेर! यह क्या निकला। एक खोपड़ी जिसकी आँख के गढे़ में एक लिपटा हुआ पत्र खोसा है। इसे पढूँ तो सही-
”करि विचार देखहु जिय माहीं।
कितने ही मम छबि ललचाने।
जे समाधिगन कनक रँगाये।
जिमि तुम अंग वीर रस साना।
जिमि तुमरे तन जोबन जोती।
तो न होत यह पढ़ि òम नासा।
सचमुच सर्द और श्रम व्यर्थ, तो अब गर्मी को विदा और सर्दी से काम-पुरश्री का ईश्वर रक्षक हो! मेरा जी इतना टूट गया है कि अब एक दम ठहरने का सामथ्र्य नहीं रखता। जिसका मनोरथ पूरा नहीं होता वे ऐसे ही विदा होते हैं।
(जाता है)
पुरश्री : अच्छी छूटी, जाओ परदों को गिराओ। यदि इस राजकुमार की रंगत के सब लोग मुझे इसी भाँति बरैं तो क्या बात है।
(सब जाते हैं)

आठवाँ दृश्य

स्थान-वंशनगर, एक सड़क
(सलारन और सलोने आते हैं)
सलारन : अजी मैंने स्वयं बसन्त को जहाज पर जाते देखा; उन्हीं के साथ गिरीश भी गया है, पर मुझे विश्वास है कि उस जहाज में लवंग कदापि नहीं है।
सलोने : उस दुष्ट जैन ने वह आपत्ति मचायी कि महाराज को स्वयं बसन्त के जहाज की तलाशी लेने के लिये जाना पड़ा।
सलारन : हाँ, परन्तु वह देर करके पहुँचे, उस समय जहाज जा चुका था और वहाँ महाराज को समाचार मिला कि लवंग अपनी वल्लभा जसोदा के सहित एक छोटी सी नाव में जाता दृष्टि पड़ा था। इसके सिवाय अनन्त ने महाराज को अपने भरोसे पर इस बात का विश्वास कराया कि वह दोनों बसन्त के जहाज पर नहीं हैं।
सलोने : मैंने तो आज तक घबराहट और झँुझलाहट के ऐसे बेजोड़ और विचित्र वाक्य न सुने थे जैसे कि वह जैनी कुत्ता सड़क पर बक रहा था-मेरी बेटी!-हाय मेरी अशरफियाँ!-हाय मेरी बेटी!-हाय!-एक आर्य के साथ भाग गई!-हाय मेरी आर्य आशरफियाँ!-न्याय कानून! मेरी अशरफियाँ और मेरी बेटी! एक सरबमुहर तोड़ा, दो सरबमुहर तोड़े अशरफियों के, कलदार अशरफियों के, मेरी बेटी चुरा ले गई!-और रत्न; दो नगीने, दो अमूल्य, अलम्भ्य, नगीने, जिन्हें मेरी बेटी चुरा ले गई!-न्याय! लड़की का पता लगाओ! उसी के पास अशरफियाँ और पत्थर हैं।’
सलारन : अजी वंशनगर के सारे लड़के उसके पीछे दौड़ते हैं और हल्ला मचा कर चिढ़ाते हैं-इसके पत्थर, इसकी लड़की और इसकी अशरफियाँ।
सलोने : अनन्त महाशय को चाहिए कि उससे सावधान रहें और ठीक समय पर ऋण चुका दें नहीं तो पीछे से पछताना पड़ेगा।
सलारन : तुमने अच्छा स्मरण दिलाया, कल मैं एक फनेशवासी से बातचीत कर रहा था कि उसने वर्णन किया कि उस छोटे समुद्र में जो फनेश और अंगदेश को जुदा करता है तुम्हारे देश का एक अमूल्य धन से लदा हुआ जहाज डूब गया है। मुझे इस समाचार के सुनते ही अनन्त के जहाज का ध्यान आया और मन में ईश्वर से प्रार्थना करने लगा कि वह उनका जहाज न हो।
सलोने : पर तुमको यही उचित है कि जो कुछ सुनो अनन्त के कान तक पहुँचा दो, किन्तु अकस्मात् मत कह देना क्योंकि इसमें कदाचित उन्हें अधिक सोच हो।
सलारन : मुझे तो उनसे बढ़कर दयावन्त मनुष्य सारे संसार में दृष्टि नहीं आता। मैं बसन्त और अनन्त के जुदा होने के समय उपस्थित था। बसन्त ने उनसे कहा कि मैं जहाँ तक सम्भव होगा शीघ्र लौट आऊँगा जिस पर उन्होंने उत्तर दिया-”बसन्त मेरे लिये काम में कदापि शीघ्रता न करना वरंच उचित अवसर के अधीन रहना और उस दस्तावेज के विषय में जो मैंने जैन को लिख दी है कभी अपने जी में ध्यान न करना। प्रति क्षण प्रसन्न रहना और अपने चित्त का प्राणप्रिया की प्रसन्नता और प्रेम के सूचित करने में आसक्त रखना जो तुम्हारे मनोरथ के लिये उपयुक्त हों।“ परन्तु अन्त को उनकी आँखों मे आसू ऐसे डबडबा आए कि और कुछ न कह सके औरं अपना मुँह फेर कर बसन्त की ओर हाथ बढ़ाया और एक अद्भुत अनुराग सहित जिससे सच्ची प्रीति टपकती थी उनसे हाथ मिला कर विदा हुए।
सलोने : मैं समझता हूँ कि वह संसार को वसन्त ही के लिये चाहते हैं। चलो उन्हें खोज करके मिलें और उनके जी की उदासी को किसी शुभ समाचार से दूर करें।
सलारन : चलो। (जाते हैं)

नवाँ दृश्य
स्थान-विल्वमठ, पुरश्री के घर का एक कमरा
(नरश्री एक नौकर के साथ आती है)
नरश्री : शीघ्रता करो; पर्दे को झटपट उठाओ; आर्यग्राम के राजकुमार शपथ ले चुके और सन्दूक चुनने के लिये पहुँचा ही चाहते हैं। (तुरहियाँ बजती हैं। पुरश्री और आर्यग्राम का राजकुमार अपने अपने मुसाहिबों के सहित आते हैं।)
पुरश्री : अवलोकन कीजिए, ऐ प्रसिद्ध राजकुमार, वह सन्दूक रक्खे हैं। यदि आपने उस मंजूषा को चुना जिसके भीतर मेरी छबि है तो अभी आप के साथ मेरे विवाह के उपचार हो जायँगे परन्तु यदि आप भ्रम में पड़े तो शीघ्र ही मुख से एक वर्ण उच्चारण किए बिना आप को यहाँ से चले जाना पड़ेगा।
आ. रा. : मुझे शपथ है कि प्रण के अनुसार तीन बातों का ध्यान रखना होगा। पहिले इस बात को किसी पर प्रकट न करना कि मैंने कौन सा सन्दूक चुना था; दूसरे यदि मैं लक्ष्य मंजूषा को न चुन सकूँ तो फिर अपनी अवस्था भर किसी स्त्री की ओर प्रणय की दृष्टि से न देखूँ , तीसरे यदि मैं सन्दूक के चुनने में त्रुटि करूँ तो शीघ्र ही तुमसे पृथक् हो कर अपनी राह लूँ।
पुरश्री : जो कोई मुझ अधम के प्राप्त करने का प्रयत्न करता है उसे इन्हीं प्रणों के अनुसरण करने की सौगन्ध खानी पड़ती है।
आ. रा. : और मैं भी तो उसी को अनुकूल कर चुका। हे ईश्वर मेरे मन का मनोरथ पूरा कर!-सोना, चाँदी और तुच्छ सीसा। ”जो कोई मुझे चाहे वह अपनी सब वस्तुओं को विघ्न में डाले और उनसे हाथ धो बैठे।“
वाह, इसी रूप पर? नेक अपने मुख की श्यामता को धो ले सब विघ्न डालने और हाथ धोने की सुना और सोने का सन्दूक क्या कहता है? तनिक देखूँ तो सही; ”जो कोई मुझे चाहेगा वह उस पदार्थ को पावेगा जिसकी बहुत लोग इच्छा रखते हैं।“
जिसकी बहुत लोग इच्छा रखते हैं। सम्भव है कि इस ‘बहुत’ का संकेत मूर्खों की ओर हो जो कि बाहरी चमक दमक पर जाते हैं और दृष्टि के ऐसे स्थूल होते हैं कि किसी वस्तु की आन्तरिक अवस्था को कदापि नहीं ज्ञात कर सकते, वरंच गोला कबूतर की भाँति अपने खोते को भय स्थान में घर की बाहरी दीवार पर बनाते हैं जहाँ कि हर समय भय रहता है। मैं उस वस्तु को नहीं चाहूँगा जिसकी बहुत लोग इच्छा रखते हैं क्योंकि मैं सर्वसाधारण के तुल्य नहीं हुआ चाहता और गँवार लोगों की सहायता नहीं किया चाहता। तो अब मैं तेरी ओर ध्यान देता हूँ ऐ चाँदी के सन्दूक, एक बार फिर तो बता तेरा क्या प्रण है, ”जो कोई मुझे चाहेगा वह उतना पावेगा जितने के वह योग्य है।“ भई सच्ची सच्ची तूने इसमें कही क्योंकि निज की योग्यता बिना कौन प्रतिष्ठा लाभ कर सकता है और कौन बड़ा हो सकता है। किसी मनुष्य को अपनी योग्यता से अधिक अधिकार पाने का साहस न करना चाहिए। अहा! कैसा अच्छा होता यदि अधिकार, उपाधि और पद उत्कोच से न मिल सकते और प्रतिष्ठा निष्कलंक बनी रहती अर्थात् केवल पाने वाले की योग्यता से मोल ली जा सकती। फिर कितने सिर जो अब मान सूचन में नंगे दिखलाई देते हैं टोपी से ढके हुए दृष्टि पड़ते। कितने लोग जो अब हाकिम हैं महकूम होते। कितने कमीन जो बड़े बन बैठे हैं मानियों में से दूध की मक्खी की भाँति निकाल दिए जाते और कितने प्रतिष्ठित जो समय के हेरफेर से साधारण में मिल गए हैं भूसी में से अन्न की भाँति छाँट कर बड़े पद तक पहुँचा दिए जाते। अस्तु, किन्तु मैं अपना काम देखूँ।
”जो कोई मुझे चाहेगा वह उतना पावेगा जितने के वह योग्य है।“ मैं अपनी योग्यता को मान लेता हूँ। मुझे इसकी कुंजी दो तो मैं इसे तुरन्त खोलकर अपने भाग्य की परीक्षा करूँ।
(चाँदी के सन्दूक को खोलता है)
पुरश्री : क्या निकला? आह इतना क्यों रुके हैं?
आ. रा. : ऐं यह क्या है? एक झूंठे अंधे का चित्र जो मुझे एक पत्र दे रहा है! मैं इसे पढूँगा। हाँ! मुझमें और पुरश्री के स्वरूप में क्यों सादृश्य। और मुझसे और मेरी आशाएँ और योग्यता से क्या सम्बन्ध।
‘जो कोई मुझे चाहेगा वह उतना पावेगा जिसके वह योग्य है।’
क्या मेरे मुँह के योग्य यही मूर्ख का मस्तक है? क्या मेरे लिये यही पारितोषिक है? क्या मेरी योग्यता इससे अधिक नहीं है।
पुरश्री : अपराध करना, और न्याय करना दो विरुद्ध बाते हैं और एक दूसरे के प्रतिकूल।
आ. रा. : इसमें लिखा क्या है?
(पढ़ता है)
‘जिमि यह उज्जल रजत सुहायो।
तिमि यह बुद्धिहु बहुत बिधि जाँची।
ऐसे बहु मूरख जग माँही।
पै कहूँ तिन को आस पुराई।
जो सुख छायहिं अंक लगाए।
ऐसे बहुत जग न अज्ञाना।
पै नहिं बुद्धि तिनहिं अछु आई।
जो रहिहै तुअ होइ निसानी।
ब्याहहु जाइ औरही काहू।
मैं जितनी देर तक यहाँ ठहरूँगा उतना ही अधिक मूर्ख बनूँगा, एक मूढ़ का सिर लेकर तो मैं ब्याह करने को आया पर अब दो लेकर जाता हूँ। प्यारी ईश्वर रक्षा करै! मैं अपनी सौगन्ध पर स्थिर रहूँगा और सन्तोष के साथ अपने दुःख को खाऊँगा।
(आर्यग्राम का राजकुमार अपने साथियों के सहित जाता है)
पुरश्री : वाह इस कर्पूरवर्ति का ने तो अच्छे उस पतंग के पंख जला दिए। समझदार मूर्ख ऐसों ही को कहते हैं। जिस समय वह सन्दूकों को चुनते हैं तो अपने मन की स्फूर्ति में सब बुद्धि को खो देते हैं।
नरश्री : यह पुरानी कहावत मिथ्या नहीं है-फाँसी और स्त्री दोनों का मिलना भाग्य से होता है।
पुरश्री : नरश्री आओ पर्दे को गिराओ।
(एक भृत्य आता है)
भृत्य : रानी साहिब कहाँ हैं?
पुरश्री : इधर, राजा साहिब क्या आज्ञा करते हैं?
भृत्य : सर्कार की डेवढ़ी पर वंशनगर का एक नवयुवक अपने स्वामी के आगमन का समाचार लेकर आया है। यह मनुष्य अपने स्वामी के प्रणाम के साथ बहुमूल्य सौगात भी लाया है। अब तक मैंने अभिलाष का ऐसा मनोहर दूत न देखा था। बसन्त ऋतु जो कि सुहावन ग्रीष्म के आगमन का समाचार देता है ऐसा प्रिय नहीं प्रतीत होता जैसा कि यह दूत जो अपने स्वामी के पहुँचने का समाचार लाया है।
पुरश्री : किसी भाँति चुप भी रह; मैं सोचती हूँ कि थोड़ी ही देर में तेरे मुँह से सुनूँगी कि वह मनुष्य तेरा कोई सम्बन्धी है क्योंकि उसकी प्रशंसा तू अत्यन्त कर रहा है। आओ नरश्री आओ; मैं इस अभिलाष के दूत को जो ऐसी नम्रता के साथ आता है अभी देखा चाहती हूँ।
नरश्री : ऐ कामदेव वह मनुष्य बसन्त का हो? जाती है,
दुर्लभ बन्धु भारतेंदु हरिश्चंद्र
तीसरा अंक


पहला दृश्य
स्थान-वंशनगर, एक सड़क
(सलोने और सलारन आते हैं)
सलोने : कहो बाजार का कोई नया समाचार है?
सलारन : इस बात का अब तक वहाँ बड़ा कोलाहल है कि अनन्त का एक अनमोल माल से लदा हुआ जहाज उस छोटे समुद्र में नष्ट हो गया; कदाचित् उस स्थान को लोग दुरूह कहते हैं जो एक बड़ी भयानक बालू की ठेंक है जहाँ कितने ही बड़े-बड़े अनमोल जहाज नष्ट हो गए हैं यदि यह समाचार निरी गप हाँकने वाली कुटनीक न हो।
सलोने : ईश्वर करे वह वैसी ही झूठी कुटनी निकले जो आँसू बहाने के लिए अपनी आँखों में लाल मिर्च मल लेती है, जिसमें लोगों पर अपने तीसरे पति के मरने का दुख प्रकट करे। पर यह सच है और मैं बिना इसके कि बात को बढ़ाऊँ या बातचीत की सीधी राह से मुड़ूँ, कहता हूँ कि सुहृद अनन्त धर्मिष्ठ अनन्त-हाय मुझे तो कोई ऐसा शब्द ही नहीं मिलता जिससे उसकी प्रशंसा सूचित हो सके।
सलारन : अच्छा तो अब तुम्हारा वाक्य समाप्त हुआ।
सलोने : वाह! क्या कहते हो? अच्छा तो उसका परिणाम यह है कि उनका एक जहाज नष्ट हो गया।
सलारन : मैं तो आशीर्वाद देता हूँ कि उनकी हानि यहीं पर समाप्त हो जाय।
सलोने : मैं भी झटपट एवमस्तु कह दूँ, कहीं ऐसा न हो कि भूत मेरी प्रार्थना में विघ्न करे क्योंकि यह देखो वह जैन की सूरत में चला आता है।
(शैलाक्ष आता है)
सलोने : कहो जी शैलाक्ष आज कल सौदागरों में क्या समाचार है?
शैलाक्ष : मेरी बेटी के भागने का हाल तुमको भलीभाँति विदित है तुमसे बढ़कर इस बात को कोई नहीं जानता, कोई नहीं जानता।
सलारन : इसमें भी कोई सन्देह है परन्तु यदि मुझसे पूछो तो मैं केवल इतना ही जानता हूँ कि अमुक दर्जी ने उसके लिये पर बनाये थे जिनके सहारे से उड़ी।
सलोने : और शैलाक्ष भी इस बात को जानता था कि उस चिड़िए के पर जम चुके हैं जिसके होने के सब पक्षियों का नियम है कि अपने माँ बाप के खोन्ते से निकल भागते हैं।
शैलाक्ष : वह इस अपराध के लिए अवश्य नरक में पड़ेगी।
सलारन : अवश्य यदि चेत भूत उसका न्यायकत्र्ता हो।
शैलाक्ष : ऐ! मेरा ही मांस और रुधिर मुझी से विरुद्ध हो!
सलोने : तुम भी पुराने घाघ होकर क्या ही वाही तबाही बकते हो! भला ऐसी युवा कुमारी के ऐसे कृत्य को विरुद्ध कह सकते हैं?
शैलाक्ष : क्या मेरी लड़की मेरा मांस और लहू नहीं है?
सलारन : तुम्हारे और उसके मांस में तो उससे भी अधिक अन्तर है जैसा कि नीलमणि और स्फटिक में होता है, तुम्हारे और उसके रुधिर में उससे भी अधिक अन्तर है जैसा कि सिंगर्फ और गेरू में होता है। पर यह तो कहो कि तुमने भी अनन्त के जहाज के नष्ट होने का कुछ हाल सुना है?
शैलाक्ष : वह मेरे लिये एक दूसरे घाटे की बात है; एक पूरा व्यर्थ व्यय करने वाला और दीवालिया जो अब बाजार में किसी को मुँह नहीं दिखला सकता, एक भिखमंगा जो किस बनावट के साथ बन ठन कर बाजार में आया करता था; नेक वह अपनी दस्तावेज तो देखे; वह मुझे बड़ा ब्याज खाने वाला कहता था; नेक वह अपनी दस्तावेज तो देखे; वह लोगों को बहुत अपनी आर्य दयालुता दिखलाने के लिए व्यर्थ रुपया ऋण दिया करता था; नेक वह अपनी दस्तावेज तो देखे।
सलारन : क्यों, मुझे विश्वास है कि यदि वह अपनी प्रतिज्ञा पूरी न कर सके तो तुम उनका मांस न माँगोगे; भला वह तुम्हारे किस काम में आ सकता है?
शैलाक्ष : मछली फँसाने के लिये चारे के काम में यदि वह और किसी वस्तु का चारा नहीं हो सकता तो मेरे बदले का चारा तो होगा। उसने मुझे अप्रतिष्ठित किया है और कम से कम मेरा पाँच लाख का लाभ रोक दिया है; वह सदा मेरी हानि पर हँसा है, मेरे लाभ की निन्दा की है, मेरी जाति की अप्रतिष्ठा की है, मेरे व्यवहारों में टाँच मारी है, मेरे मित्रों को ठंढा और मेरे शत्रुओं को गर्म किया है; और यह सब किस लिए? केवल इसलिये कि मैं जैनी हूँ। क्या जैनी की आँख, नाक, हाथ, पाँव और दूसरे अंग आर्यों की तरह नहीं होते? क्या उसकी सुधि, सुख और दुःख, प्रीति और क्रोध आर्यों की भाँति नहीं होता? क्या वह वही अन्न नहीं खाता उन्हीं शस्त्रों से घायल नहीं होता, वही रोग नहीं झेलता, उन्हीं औषधियों से अच्छा नहीं होता, उसी गर्मी और जाड़े से सुख और कष्ट नहीं उठाता जैसा कि कोई आर्य? क्या यदि तुम चुटकी काटो तो हम लोगों के रुधिर नहीं निकलता? क्या यदि तुम गुदगुदाओ तो हम लोगों को हँसी नहीं आती? क्या यदि तुम विष दो तो हम लोग मर नहीं जाते? तो फिर जो तुम हम पर अत्याचार करोगे तो क्या हम बदला न लेंगे? यदि हम लोग और बातों में तुम्हारे सदृश हैं तो इस बात में भी तुम्हारे तुल्य होंगे। यदि कोई जैनी किसी आर्य को दुःख दे तो वह किस भाँति अपनी नम्रता प्रकट कर सकता है? बदला लेकर। तो यदि कोई आर्य किसी जैन को क्लेश पहुँचावे तो इसे उसके उदाहरण के अनुसार किस प्रकार से सहन करना चाहिए? अवश्य बदला लेकर। जो पाजीपन तुम लोग मुझे अपने उदाहरण से सिखलाते हो उसे मैं कर दिखलाऊँगा और कितनी ही कठिनता क्यों न पड़े मैं बदला लेने में अवश्य तुमसे बढ़कर रहूँगा।
(एक भृत्य आता है)
भृत्य : महाशयो मेरे स्वामी अनन्त अपने घर पर हैं और आप दोनों से कुछ बातचीत किया चाहते हैं।
सलारन : हम लोग तो उनको चारों ओर खोज ही रहे थे।
(दुर्बल आता है)
सलारन : यह देखो एक दूसरा जैनी आया; अब तीसरा इनकी बराबरी का नहीं निकल सकता पर हाँ उस दशा में कि भूत आप ही एक जैन बन जाय।
(सलोने, सलारन और भृत्य जाते हैं)
शैलाक्ष : कहो जी दुर्बल जयपुर से क्या समाचार लाए? मेरी बेटी का पता लगाया?
दुर्बल : मैंने जहाँ जहाँ उसका समाचार सुना, वहाँ वहाँ पहुँचा परन्तु कहीं पता न लगा।
शैलाक्ष : वही, वही, वही वह हीरा ले गई जो मैंने दो सहस्र अशरफी से फरीदकोट में लिया था! ऐसा बड़ा ईश्वर का कोप हमारी जाति पर आज तक न गिरा था। मुझे तो आज तक उसका अनुभव न हुआ था-तो सहस्र अशरफी का एक हीरा और दूसरे अमूल्य रत्न अलग। अच्छा होता कि मेरी लड़की मेरी आँखों के सामने मर गई होती और वह रत्न उसके शरीर पर होते! अच्छा होता कि उसका शव मेरे पावों के नीचे गड़ता और अशरफियाँ उसके कफन में होतीं। उनका कुछ पता नहीं लगा? यही परिणाम हमारे प्रयत्नों का है और विदित नहीं कि इस खोज में कितना व्यय पड़ा-हाय यह हानि पर हानि! ‘मुफलिसी में आटा गीला!’ इतना तो चोर ले गया और इतना चोर की खोज में नष्ट हुआ। तिस पर न कुछ उसके सन्ती मिलने की आशा और न बदला निकलने की। किसी और के घर दुःख भी दृष्टि पड़ता जिसे देख धीरज हो। हाँ यदि है तो मेरी गर्दन पर सवार, कहीं से आह भी नहीं सुनाई देती सिवाय उसके जो मेरे हृदय से निकलती है, और न सिवाय मेरे किसी के आँसू गिरते हैं।
दुर्बल : ऐसा तो नहीं और लोग भी अपने अपने दुःख से खाली नहीं हैं। अभी मैंने जयपुर में समाचार पाया कि अनन्त का-
शैलाक्ष : क्या, क्या, क्या? दुःख दुःख?
दुर्बल : उसके जहाजों का एक बेड़ा त्रिपुल से आते समय राह में नष्ट हो गया।
शैलाक्ष : धन्य है ईश्वर को, धन्य है ईश्वर को, क्या यह समाचार सच्चा है? क्या यह समाचार सच्चा है?
दुर्बल : मैं आप उन खलासियों के मुँह से सुन आया हूँ जो जहाज के नष्ट होने से बच कर आए हैं।
शैलाक्ष : मैं तुम्हारा धन्यवाद करता हूँ अच्छे दुर्बल, बड़ा अच्छा समाचार लाए, बड़ा अच्छा समाचार लाए, अहाहा-कहाँ? जयपुर में?
दुर्बल : मैंने जयपुर में सुना कि तुम्हारी बेटी ने एक रात में अस्सी अशरफियाँ व्यय कीं!
शैलाक्ष : तू मेरे कलेजे में छुरी मारता है। अब मैं फिर अपनी अशरफियों को इन आँखों से न देखूँगा; हाय! अस्सी अशरफियाँ! एक बार में अस्सी अशरफियाँ!
दुर्बल : अनन्त के कई ऋणदाता मेरे साथ वंशनगर को आए जो शपथ खाकर कहते थे कि अब उसके काम का बिगड़ना किसी भाँति नहीं रुक सकता।
शैलाक्ष : बडे़ हर्ष की बात है; में उसे बहुत रुलाऊँगा, मैं उसे कोच कोच कर मारूँगा; बडे़ हर्ष का विषय है।
दुर्बल : उनमें से एक ने मुझे एक अँगूठी दिखलाई जो तुम्हारी बेटी ने उसे एक बन्दर के मोल में दी है।
शैलाक्ष : उसका नाम मत लो दुर्बल! तुम मेरे हृदय में रह रह के घात करते हो! वह मेरी नीलम की अँगूठी थी; मैंने उसे कमलाक्षी से पाया था जब कि मेरा ब्याह नहीं हुआ था; यदि मुझसे कोई बन्दरों का जंगल का जंगल देता तो भी मैं इस अँगूठी को अपने से पृथक् न करता।
दुर्बल : लेकिन अनन्त तो निस्सन्देह नष्ट हो गया।
शैलाक्ष : इसमें भी कोई सन्देह है, यह तो स्पष्ट है, यह तो भलीभाँति प्रकट है। जाओ दुर्बल उसके पकड़ने के लिए एक प्रधान ठहराओ, उसे पन्द्रह दिन पहले से पक्का कर रक्खो। यदि यह मुझे अपने प्रण के अनुसार रुपया न दे सका तो मैं इसका पित्ता निकलवा लूँगा, क्योंकि यदि यह काटा वंशनगर से निकल जाए तो मेरा व्यापार मनमाना चले। अच्छा दुर्बल अब जाओ और मुझसे मंदिर में मिलो, जाओ प्यारे दुर्बल; देखो हम लोगों को मंदिर में मिलना।
दोनों जाते हैं,


दूसरा दृश्य
स्थान-विल्वमठ, पुरश्री के घर का एक कमरा
(बसन्त, पुरश्री, गिरीश, नरश्री, और उनके साथी आते हैं। सन्दूक रक्खे जाते हैं)
पुरश्री : भगवान के निहोरे थोड़ा ठहर जाइए। भला अपने भाग्य की परीक्षा के पहले एक दो दिन तो ठहर जाइए, क्योंकि यदि आप की रुचि ठीक न हुई तो आप के साथ रहने का आनन्द तुरन्त ही हाथ से जाता रहेगा। इसलिए थोड़ा धीरज धरिए, न जाने क्यों मेरा जी आप से पृथक् होने को नहीं करता, पर मैं समझती हूँ कि इसका कारण अनुराग नहीं है और यह तो आप भी कहेंगे कि घृणा का इससे सम्बन्ध नहीं हो सकता। किन्तु कदाचित् आप मेरे जी की बात न समझे हों इसलिए मैं आप को भाग्य की परीक्षा करने से पहले दो एक महीने तक ठहराऊँगी, परन्तु इससे क्या होना है? कुमारी अपने जी की बात को जिह्ना पर कब ला सकती है। मैं आप को पते का सन्दूक बता सकती हूँ पर मेरी सौगन्ध टूट जायेगी और यह मुझे किसी तरह पर अंगीकार नहीं। कदाचित् मैं आप को न मिलूँ, पर यदि ऐसा हुआ तो मेरा चित्त यही कहेगा कि तू ने अपराध क्यों न किया और शपथ क्यों न तोड़ डाली। मेरा मन करता है कि आपकी आँखों को कोसूँ, इन्हीं ने तो मुझे मोल ले लिया और मेरे दो भाग कर डाले-आधी तो मैं आप को हूँ, और शेष आधी भी आप ही को, क्योंकि यदि मैं यों कहूँ कि अपनी हूँ तो भी तो आपही की हुई, इसलिए सब आप ही की ठहरी। क्या बुरा समय आ गया है कि अपनी वस्तु पर भी अपना बस नहीं! अतएव यद्यपि मैं आप ही की हूँ तो भी क्या? हुई न हुई दोनों बराबर-यदि कहीं भाग्य ने धोखा दिया तो उसके कारण मैं क्यों दुःख में पडँ़ई, पड़े तो भाग्य पड़े जिसका दोष है। मैं बहुत कुछ बक गई पर तात्पर्य मेरा यह है कि बातचीत में कुछ समय कटे और आपके सन्दूक पसन्द करने के लिए जाने में इसी बहाने कुछ देर हो।
बसन्त : मुझे झटपट चुन लेने दीजिए, यों रहने से तो मेरा जी सूली पर टँगा है।
पुरश्री : सूली पर, तो कहिए कि आप के प्रेम के साथ दगा कैसी मिली हुई है?
बसन्त : दगा का क्या काम, हाँ यदि कुछ है तो अपने चित्त के अभिलाष पूरे होने की ओर से अविश्वास। मेरे प्रेम के साथ तो दगा का होना ऐसा है मानो आग और बर्फ की मित्रता।
पुरश्री : जी हाँ, पर मुझे भय है कि आप का जी तो सूली पर टँगा है, और सूली पर लोग प्रायः विवश होकर बे सिर पैर की बका करते हैं।
बसन्त : जीवदान दीजिए तो यथार्थ कह दूँ।
पुरश्री : अच्छा तो फिर कहिए, आप का जीवन आपको मुबारक।
बसन्त : कह दूँ, मेरा प्राण मुझको मुबारक! तौ तो मेरा मनोरथ बर आया, वाह जब सताने वाला आप ही वह राह दिखलाता है जिससे जी बचे तो कष्ट भी परम सुख है परन्तु अच्छा अब मुझे सन्दूकों के साथ अपने भाग्य की परीक्षा के लिए छोड़ दीजिए।
पुरश्री : अच्छा तो आप जायँ, उन सन्दूकों में से एक में मेरा चित्र है; यदि आप मुझे चाहते होंगे तो वह आपको मिल जायगा। नरश्री तुम अब अलग खड़ी हो जाओ और जब आप सन्दूक पसन्द करने लगें तो कुछ गाना का भी आरंभ हो, जिसमें यदि आप कहीं चूक जायँ तो जैसे बत्तक अपना दम निकालने के समय गाता है वैसे ही आप के बिदा होने के समय भी गाना होता रहे। यदि कहिए कि बत्तक की समाधि पानी में होती है तो मेरी आँखें नदी बनकर आप के शत्रुओं की समाधि बन जायँगी। यदि कहीं आप ने दाँव मारा तो गाना क्या है मानो उस समय की सलामी का बाजा है जब कोई नया राजा सिंहासन पर बैठता है और उसकी शुभचिन्तक प्रजा उसके अभिनन्तन को आती है, या वह मीठी तान है जिसे सुन कर नया वर विवाह के दिन सबेरे ही उठ कर ब्याह की तैयारी करता है। देखिए (वह जाते हैं) जब रुद्र उस कुमारी को छुड़ाने गया था जिसे त्रयम्बक ने समुद्र की एक आपत्ति को सौंप दिया था तो जैसा तेज उसके मुख पर बरसता था वैसा ही उनके मुँह पर बरसता है परन्तु प्रेम तो उसकी अपेक्षा कई अंश अधिक है। मैं भी उस कुमारी की भाँति बलिदान के लिए प्रस्तुत हूँ और यह स्त्रियाँ मानो त्रयम्बक की रहने वाली हैं और वियोगिन बनी हुई खड़ी देख रही हैं कि इस दुस्तर कर्म का क्या परिणाम होता है। अच्छा मेरे रुद्र जाओ, अब तो मेरा जीवन तुम्हारे प्राण के साथ है और निश्चय रखिए कि आप का चित्त, यद्यपि आप स्वयं लड़ने जाते हैं, इतना न धड़कता होगा जितना मेरा धड़कता है यद्यपि मैं केवल दूर से खड़ी हुई कौतुक देख रही हूँ।
गीत
अहो यह भ्रम उपजत किय आय।
जिय मैं कै सिर मैं जनमत है बढ़त कहाँ सुख पाय।
ता को यह उत्तर जिय उपजत बढ़त दृष्टि में धाय ।
पै यह अति अचरज कै जित यह जनमत तितहि नसाय।
देखि ऊपरी चमक चतुर हूँ जद्यपि जात भुलाय ।
पै जब जानत अथिर ताहि तब निज भ्रम पर पछिताय।
तासों टनटन बजै कहौ अब घंटा हू घहराय ।
बसन्त : सच है पदार्थ देखने में भले और भड़कीले होते हैं वस्तुतः कुछ नहीं होते। संसार के लोग बाहरी चमक दमक में भूल जाया करते हैं। देखिए कानून में कोई दलील कैसी ही झूठी और बे सिर पैर की क्यों न हो यदि उसी को साधु भाषा में नमक मिर्च लगाकर कहिए तो उसका सब अवगुण छिप जाता है। उसी भाँति धर्म में देखिए तो कैसी ही घृणा के योग्य भूल क्यों न हो कोई न कोई उपयुक्त युक्ति मनुष्य उसके प्रमाण में देकर उसे सराहेगा और उसके दोषों पर सुवर्ण का पर्दा डाल देगा। निरी बुराई पर भी बाहरी भलाई का मुलम्मा चढ़ जाता है। देखिए कितने ऐसे डरपोक मनुष्य, जिनके चित्त बालू की भीत की भाँति निर्बल हैं, दाढ़ी और रूप रंग में मानसिंह और विजयसेन को तुच्छ करते हैं और भीतर देखिए तो उनका दुर्बल अन्तःकरण दूध सा स्वच्छ है। उन लोगों को कहना चाहिए कि यह केवल वीर पुरुषों का उतरन अपना प्रभाव दिखलाने के निमित्त पहिन लेते हैं। सुन्दरता की ओर दृष्टि कीजिए तो विदित होगा कि वह केवल चाँदी का न्यौछावर है जितना रुपया लगाइए उतनी ही भड़क हो। वास्तव में तत्वनिरूपण करने पर करामात प्रतीत होने लगती है, जिसके सिर पर जितना अधिक भार है उतना ही विशेष तुच्छ है। यही दशा उन घुँघरवाले सुन्दर कचकलापों का है जो वायु में इस भाँति बल खाते हैं कि मन को लुभा लेते हैं। देखिए एक के सिर से उतर एक दूसरे के सिर चढ़ते हैं और जिस सिर ने उन्हें पाला था वह अन्त में कीड़ों का आहार है। अतः भूषण बसन क्या हैं मानो किसी बड़े भयानक समुद्र का ऐसा किनारा है जो थाह बता कर गोता दे या किसी हिन्दुस्तानी स्त्री का भड़कीला दुपट्टा है, अर्थात् यह कहना चाहिए कि समय के छली लोग झूठ को ऐसा सच करके दिखा देते हैं कि बड़े-बड़े बुद्धिमान की बुद्धि चकित हो जाती है। इसलिये चमकीले सोने जिसने महाराज मागधि से उनका खाना लेकर लोहे के चने चबवाए, मैं तुझको न छुऊँगा और न तुझे ऐ कुरूप चाँदी जिसके लिए एक मनुष्य दूसरे की सेवा करता है। परन्तु तुच्छ सीसे जिसके देखने से आशा के बदले भय उत्पन्न होता है-
वचन रचन तजि और के, तोही पै विस्वास।
उदासीन प्रेमी मनहिं, लखि तुव रंग उदास ।
औरन तजि तासों चुनत, सीसक अब हम तोहि।
आनँदघन करुनायतन, करहु अनन्दित मोहि ।
पुरश्री : (आप ही आप)
मिट्या सकल भ्रम भीति नसानी।
नसी निरासा जिय-दुखदानी ।
मोह-कँवल-रुज दृग सों भाग्यौ।
संसय तजि मन आनँद पाँग्यौ ।
प्रेम! धीर धरु किन अकुलाई।
धरत सीवँ तजि पगहि बढ़ाई ।
आनँद नीर इतो हिय-जलधर।
उमगि उमगि जनि बरस धीर धर ।
यह सुख नदी उमड़ि जो आई।
मम घट घट नहिं सकत समाई ।
होइ न कहूँ अनन्त अजीरन।
तासों धरु धीरज चंचल मन ।
बसन्त : देखें तो यह क्या निकला?
(सीसे के सन्दूक को खोल कर) वाह वाह यह तो मेरी परम सुन्दरी पुरश्री का चित्र है! यह किस चितेरे की निपुणता है कि चित्र बोला ही चाहता है? क्या यह आँखें सचमुच फिरती हैं या केवल मेरी आँखों की पुतलियों पर इनकी परछाईं पड़ने से मुझे घूमती हुई दिखाई देती हैं। इधर देखिए तो दोनों ओष्ठ इस भाँति से भिन्न हैं मानो मीठे प्यारे श्वासों के आने जाने का मार्ग है। ऐसे प्यारे साथियों के विरह का कारण ऐसी ही प्यारी वस्तु होनी चाहिए। इधर देखिए तो बालों की छबि खींचने में चित्रकार ने मकड़ी की चातुरी को तुच्छ कर दिखलाया है और सोने के तारों का ऐसा जाल बिना है कि मनुष्य का चित्त पतंग की भाँति उसमें फँस जाय। पर वाह री आँखें! इनके बहाने के समय चित्रकार की दृष्टि किस भाँति ठहरी? मेरी समझ में तो जब एक बन गई थी तो उसकी दोनों आँखें इस एक के न्यौछावर हो जातीं और यह आँख बेजोड़ रह जाती। किन्तु सच पूछिए तो जितनी ही मेरी प्रशंसा की इस चित्र के सामने कुछ गिनती नहीं उतनी ही साक्षात् के सामने इस छबि की कुछ गणना नहीं। देखिए यह भाग्य का लेखा-जोखा है।
(पढ़ता है)
जौ लखि छबि ऊपरी भुलाते। तौ यह दाँव कबहुँ नहिं पाते ।
तुम्हरी बुद्धि धीर नहिं छूटी। लेहु अबै रस संपति लूटी ।
अब जिय चाह करौ जनि दूजी। भ्रमहु न जग इच्छा तुव पूजी ।
जौ तुम याहि भाग निज लेखौ। तौ मुरि निज प्यारी मुख देखौ ।
जीवन सरबस याहि बनाई। रहौ चूमि मुख कंठ लगाई ।
अब जौ प्यारी सुन्दरी तुव अनुशासन होय।
तौ हम चुंबन लेहिं अरु निजहु देहिं भय खोय ।
(मुँह चूमता है)
कहँ द्वै जन की होड़ मैं जीतत बाजी कोय।
तौ सब दिसि सों एक सँग ताकी जय धुनि होय ।
सो कोलाहल सुनत ही तासु बुद्धि अकुलाय।
ठाढ़ी सोचत साँच ही जीत्यो मैं इत आय ।
तिमि सुन्तरि सन्देह यह मेरे हू जिय माहिं।
कै जो देखत मैं दृगन तौन साँच की नाहिं ।
सो मम भ्रम तुम करि दया बेगहि देहु मिटाय।
मम जयपत्र सकारि पुनि सुन्तरि मुहि अपनाय ।
पुरश्री : मेरे स्वामी बसन्त आप मुझे जैसी खड़ी हुई देखते हैं वैसे ही मैं हूँ; यद्यपि केवल अपने लिये मेरे जी में यह अभिलाष नहीं है कि मैं अपनी वर्तमान अवस्था से चढ़ जाऊँ किन्तु आपके विचार से मेरा बस चले तो मैं सौगुनी अच्छी हो जाऊँ। रूप में सहस्र बार और धन में लक्षबार अधिक हो जाऊँ, केवल इसलिए कि आपकी दृष्टि में जचूँ। सम्भव है कि मैं गुण, सौन्दर्य, लक्ष्मी और मित्रों में अत्यन्त बढ़ जाऊँ, तथापि इन सब अलभ्य पदार्थों के होते भी मेरी अवस्था यह है कि मैं एक निरी मूर्ख, बेसमझ और सीधी सादी छोकरी हूँ; पर हाँ इस बात से तो प्रसन्न हूँ कि मेरी अवस्था इतनी अधिक अभी नहीं हुई कि मैं कुछ सीख न सकूँ और इस कारण से और भी प्रसन्न हूँ कि इतनी कुंठित भी नहीं हो गई हूँ कि सीखने के योग्य न रही हूँ और सबसे अधिक प्रसन्नता का कारण यह है कि मैं अपने भोले चित्त को आपको सौंपती हूँ कि वह आपको अपना स्वामी, अपना नियन्ता, अपना अधिपति समझकर जो आप कहे सो किया करे। मैं और जो कुछ मेरा है अब वह सब आप का हो चुका। अभी एक साइत हुई कि मैं इस राजभवन और अपने अनुचरों को स्वामिनी और अपने मन की रानी थी, और अभी इस क्षण यह घर, ये नौकर चाकर और मैं आप, सब आप के हो गए। मैं इन सबों को इस अँगूठी के साथ आपको सौंपती हूँ। जब यह अँगूठी आप के पास न रहे, खो जाय या आप इसे किसी को दे देवें तो मैं येे समझूँगी कि आप के प्रेम में अन्दर आ गया और फिर मुझे आप से उपालम्भ देने का पूरा स्वत्व प्राप्त होगा।
बसन्त : प्यारी मेरी जिह्ना को सामथ्र्य नहीं कि तुम्हारे उत्तर में एक अक्षर भी निकाले, पर हाँ मेरा रोम रोम तुम्हारी कृतज्ञता में जिह्ना बन रहा है और मेरी सुधि में ऐसी घबराहट आ गई है जैसी कि प्रजावृन्द में उस समय दृष्टि पड़ती है जब कि वह अपने प्यारे राजा के मुख से कोई उत्तम व्याख्यान सुन कर प्रसन्न हो जाते हैं और वाह वाह करने और आशीष देने लगते हैं। जबकि बहुत से शब्द जिनके कुछ अर्थ हो सकते हैं मिल कर सब व्यर्थ हो जाते हैं और सिवाय इसके कि उनसे प्रसन्नता प्रकट हो और कोई तात्पर्य नहीं समझ में आता। परन्तु यह प्यारी अँगूठी मेरी उँगली से उसी समय जुदा होगी जब कि इस उँगली से सत्ता निकल जायेगी और उस समय तुम निस्सन्देह समझ लेना कि बसन्त मर गया।
नरश्री : मेरे स्वामी और मेरी स्वामिनी अब तक हम लोग खड़े खड़े अपने मन के मनोरथ के पूर्ण होते देखा किए और अब हम लोगों की बारी है कि ‘कल्याण हो’ की ध्वनि मचावें। ‘कल्याण हो’ ऐ मेरे स्वामी और मेरी स्वामिनी।
गिरीश : ऐ मेरे स्वामी बसन्त और मेरी सरल स्वामिनी मेरी यही आसीष है कि आप के सारे मनोरथ पूरे हों क्योंकि मुझे निश्चय है कि आप मेरे हर्ष को तो बाँट लेंगे ही नहीं, अतः मेरी यह प्रार्थना है कि किस समय आप लोग परस्पर अपना मनोभिलाष और प्रतिज्ञा पूरी करें उसी समय मेरा ब्याह भी कर दिया जाय।
बसन्त : मुझे तन और मन से स्वीकार है पर इस शर्त पर कि तुम अपने लिये कोई स्त्री ठहरा लो।
गिरीश : मैं आप को धन्यवाद देता हूं कि आप ही के न्यौछावर में मेरा काम भी निकल आया, क्योंकि ज्योंही आप की प्रेम दृष्टि राजकुमारी पर पड़ी मेरे नेत्रों में भी उसकी सहेली बस गई। उधर आप अनुरक्त हुए इधर मैं प्रेम के फन्दे में फंसा। इसमें न आप को विलंब लगा न मुझे। आप के प्रारम्भ की परीक्षा सन्दूकों के चुनने पर थी वैसे ही मेरा भाग्य भी उन्हीं के साथ अटका हुआ था। तात्पर्य यह है कि मुझे इस सुन्दरी की इतनी सुश्रूषा करनी पड़ी कि शरीर से स्वेद निकल आया और अपनी प्रीति का निश्चय दिलाने के लिये इतनी सौगन्धें खानी पड़ीं कि तालू चटक गया तब कहीं, यदि वाक्दान कोई वस्तु है तो इनके मुख से यह वाक्य निकला कि जो तुम्हारे स्वामी का विवाह मेरी स्वामिनी से हो जायगा तो मैं भी तुम्हें ग्रहण करूँगी।
पुरश्री : नरश्री क्या यह बात सच है?
नरश्री : हाँ सखी यदि आप की इच्छा के विरुद्ध न हो तो सच ही समझी जायगी।
बसन्त : और तुम गिरीश धर्मपूर्वक यह विचार करते हो न?
गिरीश : धर्मावतार सब सच्चे जी से।
बसन्त : तुम्हारे ब्याह से हमारे समाज का आनन्द दूना हो उठेगा।
गिरीश : ऐ यह कौन आता है? अहा लवंग और उनकी प्राण-प्यारी! और हमारे पुराने वंशनगर के मित्र सलोने भी साथ हैं।
(लवंग, जसोदा और सलोने आते हैं)
बसन्त : अहा लवंग और सलोने आए परन्तु मैं अपनी अवस्था में बिना अपनी प्यारी की आज्ञा के प्रसन्नता प्रकट करने का कब अधिकार रखता हूँ। प्यारी पुरश्री यदि तुम्हारी आज्ञा हो तो मैं अपने सच्चे मित्रों और स्वदेशियों के आने पर प्रसन्नता प्रकट करूँ।
पुरश्री : मेरे स्वामी इस में मेरी परम प्रसन्नता है, ऐसे लोगों का भाग्य से आना होता है।
लवंग : मैं आपको धन्यवाद देता हूँ, किन्तु सच पूछिए तो मेरी इच्छा आप से यहाँ भेंट करने की न थी परन्तु मार्ग में सलोने मित्र मिल गए और मुझे यहाँ लाने के विषय में इतना हठ किया कि मैं नहीं न कर सका और साथ आना ही पड़ा।
सलोने : जी हाँ मैं इनको वस्तुतः खींच लाया पर इसका एक मुख्य कारण है। अनन्त महाशय ने आपको सलाम कहा है।
(बसन्त के हाथ में एक पत्र देता है)
बसन्त : इससे पहिले कि मैं उनके पत्र को खोलूँ मुझे भगवान के लिये इतना बता दो कि मेरे सुहृन्मित्र प्रसन्न तो है।
सलोने : देखने में तो वह पीड़ित नहीं हैं परन्तु आन्तरिक हो तो हो और न अच्छे ही दृष्टि आते हैं किन्तु चित्त का हाल मैं नहीं कह सकता। अच्छा उस पत्र से उनका वृत्तान्त आपको भलीभाँति सूचित हो जायगा।
गिरीश : नरश्री अपने पाहुनों का सत्कार करो और उनका मन बहलाओ। सलोने नेक इधर ध्यान दीजिए, कहो तो वंशनगर का क्या समाचार है, सब सौदागरों के सिरताज हमारे सुहृद अनन्त किस भाँति हैं? हमारे पूर्ण मनोरथ होने का समाचार सुन कर तो वह फूले न समाएँगे, हम लोग अपने समय के महाबीर हैं क्योंकि सोने की खाल हमने ही जीती है।
सलोने : मेरी जान तो यदि तुम उस खाल को जीतते जिसे बसन्त हारे हैं तो अच्छा होता।
पुरश्री : कदाचित् पत्र में कोई बुरा समाचार है कि जिससे बसन्त के मुख की कांति बढ़ी जाती है। कोई प्रिय मित्र मर गया हो, नहीं तो कौन ऐसी बात है कि जिससे ऐसे धीर मनुष्य की अवस्था हीन हो जाय। ऐं! यह तो क्षण प्रतिक्षण मुख की पाण्डुता बढ़ती जाती है। बसन्त मुझे क्षमा कीजिएगा, मैं आपके शरीर का अद्र्धांग हूँ, और इसलिए जो कुछ कि उस पत्र में लिखा है उस में से आधा हाल सुनने की मैं भी अधिकारी हूँ।
बसन्त : ऐ मेरी प्यारी पुरश्री इस पत्र में कई एक ऐसे दुखदाई शब्द हैं कि जिनका वर्णन नहीं हो सकता। मेरी सुजान प्यारी तुम भलीभाँति जानती हो कि जब मैंने तुम्हें अपना मन दिया था तो यह पहले ही कह दिया था कि जो, कुछ कि मेरी पूँजी है वह मेरा शरीर है अर्थात् मैं अपने कुल का कुलीन हूँ और इस में कोई बात मिथ्या न थी, परन्तु प्यारी यद्यपि मैंने अपनी क्षमता तुम पर स्पष्ट प्रकट कर दी तो भी यदि सच पूछो तो मैंने अभिमान किया क्योंकि जिस समय मैंने तुमसे यह कहा कि मेरे पास कुछ नहीं है मुझे यों कहना चाहिये था कि मेरी अवस्था उससे भी गई बीती है। खेद है कि मैंने केवल अपना मनोरथ पूरा करने के लिये अपने प्यारे मित्र को उसके परम शत्रु के पंजे में फँसा दिया। देखो यह पत्र वर्तमान है जिसे मेरे मित्र का शरीर समझना चाहिए और प्रति शब्द उसका नया घाव जिससे रक्त टपक रहा है। पर क्यों सलोने क्या यह सत्य है कि उनका सारा काम बिगड़ गया? क्या एक भी ठीक न उतरा? ऐ विपुल, मौक्षिक, अंगदेश नन्दन बरबर और हिन्दुस्तान सब देशों के जहाजों में से एक को भी व्यापारियों को निराश करनेवाली चट्टानों ने अखण्ड न छोड़ा।
सलोेने : महाराज एक भी नहीं। तिस पर यह और आपत्ति है कि यदि वह उस जैन को नकद रुपया देने का कहीं से प्रबन्ध भी करें तो वह न लेगा। मेरी दृष्टि में तो ऐसा व्यक्ति मनुष्य की उन्नति तथा उसकी अवनति का साथी अब तक नहीं आया! इसी सोच में वह प्रति दिन सायं प्रातः मण्डलेश्वर को जाकर घेरता है और कहता है कि यदि मेरे साथ न्याय न बरता जायेगा तो इस राज्य के इस सिद्धान्त पर कि वह प्रतिवर्ण के लोगों को एक दृष्टि से देखता है बट्टा लग जायेगा। बीस सौदागरों और कितने और बड़े बड़े नामी लोगों ने और मण्डलेश्वर ने आप भी उसे समझाया और उसने एक की भी न सुनी। अब बतलाइए क्या किया जाय। उस पर तो ईर्षा के मारे यही धुन सवार है कि बस जो कुछ होता था सो हो चुका अब तमस्सुक के प्रण के अनुसार मेरा विचार हो।
जसोदा : जबकि मैं उनके साथ थी मैंने उन्हें प्रायः दुर्बल और अक्रर अपने स्वदेशियों से इस बात की सौगन्ध खाते हुए सुना था कि यदि मुझे कोई ऋण के बीस गुने रुपये भी दे तो अनन्त के मांस के अतिरिक्त उसकी ओर आँख उठा कर न देखूँगा और महाराज मुझे निश्चय है कि यदि वहाँ के विचाराधीश कानून के अनुकूल उसे हठपूर्वक रोक न रक्खेंगे तो विचारे अनन्त के सिर पर बुरी बीतेगी।
पुरश्री : क्या वह आपके कोई प्यारे मित्र हैं जिन पर यह आपत्ति आई है।
वसंत : (आह भर कर) यह वही मेरा सबसे प्यारा मित्र है जो उपकार करने में अपना जोड़ी नहीं रखता, उपकार करने में कभी नहीं थकता और शील का राजा है। इस समय मारवाड़ में वही अकेला एक मनुष्य है जिसमें मारवाड़ के प्राचीन समय के लोगों की उत्तम बातें और उच्च विचार पूरे पूरे पाए जाते हैं।
पुरश्री : उन्हें इस जैन का कितना देना है?
वसंत : मेरे ही कारण छः हजार रुपये के ऋणी हो गए हैं।
पुरश्री : बस इतना ही? आप बारह सहस्र देकर तमस्सुक फेर लीजिए। यदि आवश्यकता हो तो बारह सहस्र के भी दूने कर डालिए और इस दूने के तिगुने, पर ऐसा कदापि न होने पावे कि बसन्त के कारण उनके ऐसे अनुपम मित्र का एक रोम भी टेढ़ा हो। चलिए अभी मंदिर में चल कर ब्याह की रीति कर लीजिए और इसके उपरान्त सीधे अपने मित्र के पास वंशनगर को चले जाइए; क्योंकि जब तक आपका शोच दूर न हो लेगा, मुझे आप के साथ सोना धिक्कार है। उस छोटे ऋण के चुका देने के लिये उनका बीस गुना रुपया लेते जाइए और उसे देकर अपने मित्र को यहाँ साथ लेते आइए। इस बीच में मैं और मेरी सहेली नरश्री कुमारी और विधवा स्त्रियों की भाँति अपना समय काटेंगी। आइए चलिए क्योंकि आपको आज ही अपने ब्याह के दिन यहाँ से जाना है। अपने मित्रों से प्रसन्नतापूर्वक मिलिए और अपना मन विकसित रखिए। आप से मिलने में जितनी कठिनता होवेगी उतने ही अधिक आप मुझे प्यारे प्रतीत होंगे। परन्तु तनिक अपने दोस्त का पत्र तो सुनाइए।
वसंत : (पढ़ता है)-
मेरे प्यारे बसन्त, सब जहाज नष्ट हो गए, मेरे ऋणदाता निर्दयता से वर्त ते हैं, मेरी अवस्था अत्यन्त ही नष्ट है और मेरी प्रतिज्ञा जैन के साथ टल गई और जो कि ऋण के चुका देने में संभव नहीं कि मैं जीता बचूँ, इसलिये मैं सब हिसाब अपने और तुम्हारे बीच साफ समझूँगा कि मैं अपने मरने के समय तुम्हें एक आँख देख लूँ। परन्तु हर हालत में यह तुम्हारी इच्छा पर निर्भर है। यदि मेरा प्रेम तुम्हें यहाँ तक न खींच ला सके तो मेरे पत्र का कुछ ध्यान न करना।
पुरश्री : मेरे प्यारे सब काम को झटपट पूरा करके एकबारगी चले ही जाओ।
वसंत : जब तुमने प्रसन्नता से जाने की आज्ञा दी तो अब मुझे क्या विलम्ब है। परन्तु जब तक कि मैं लौट न आऊँ मेरे लिये नींद हराम और सुख दुख से अधम है।


तीसरा दृश्य
स्थान-वंशनगर की एक सड़क
(शैलाक्ष, सलारन, अनन्त और कारागार के प्रधान आते हैं)
शैलाक्ष : प्रधान इससे सचेत रहो; मुझसे दया का नाम न लो। यही वह मूर्ख है जो लोगों को बिना ब्याज रुपये ऋण दिया करता था। प्रधान इससे सावधान रहो।
अनन्त : मेरे सुहृद शैलाक्ष कुछ तो मेरी सुन लो।
शैलाक्ष : मैं तमस्सुक के प्रणों को नहीं तोड़ने का, उसके विरुद्ध कुछ मत कहो। मैं इस बात की शपथ खा चुका हूँ कि अपने तमस्सुक की शर्तों पर दृढ़ रहूँगा। तुम ही न इस मुकद्दमे के होेने से पहले मुझे कुत्ता कहा करते थे। अच्छा मैं तो तुम्हारे कहने अनुसार कुत्ता हो ही चुका पर नेक मेरे पंजों से डरते रहना; मण्डलेवश्वर साहिब मेरा विचार करेंगे! मुझे तो ऐ दुष्ट प्रधान तुझ पर आश्चर्य होता है कि तुझे क्या मूर्खता सूझी है जो इसकी बातों में आकर इसे बेखटके इधर उधर लिए फिरता है।
अनन्त : भगवान के वास्ते एक बात तो मेरी सुन लो।
शैलाक्ष : मुझे अपने तमस्सुक से काम है, मैं कदापि तुम्हारी बात न सुनूंगा, मुझे केवल अपने तमस्सुक से काम है; बस अब अधिक गिड़गिड़ाने से क्या लाभ। मैं कुछ ऐसा चित्त का दुर्बल अथवा आँखों का अंधा थोड़े ही हूँ जो सिर हिला कर खेद करूँ, आहें भरूँ और आर्यों के समझाने बुझाने में आकर पिघल जाऊँ। मेरे पीछे न आओ, मैं कदापि सुनने का नहीं, मुझे अपने तमस्सुक से काम है।
(शैलाक्ष जाता है)
सलारन : मनुष्य की आकृति में ऐसा पाषाणहृदय कुत्ता काहे को निकलेगा।
अनन्त : जाने दो, अब मैं उसके पीछे व्यर्थ गिड़गिड़ाता न फिरूँगा। वह मेरे प्राण लेने की चिन्ता में है और इसका कारण भी मैं भलीभाँति जानता हूँ। प्रायः मैंने बहुतेरे लोगों को जो मेरे पास आकर रोए हैं उसके पंजे से छुड़ाया है और इसी कारण से वह मेरा प्राणघातक शत्रु हो रहा है।
सलारन : मुझे निश्चय है कि मण्डलेश्वर उसकी शर्त को कदापि स्थिर न रहने देंगे।
अनन्त : क्यों नहीं, मण्डलेश्वर कानून के उद्देश्य को जिससे विदेशी वंशनगर में आकर बेखटके लेन देन करते हैं क्योंकर बदल सकते हैं। यदि अस्वीकार किया जाये तो यहाँ के राज्य का अपवाद है क्योंकि इस नगर का वाणिज्य और लाभ सब जाति वालों के मिलाप होने के कारण है। अच्छा तो अब तुम जाओ। जो दुःख और क्षतियाँ मैंने इधर उठाई हैं उनके कारण मेरी अवस्था ऐसी नष्ट हो गई है कि कदाचित कल तक मेरे रक्त के प्यासे ऋणदाताओं के लिए मेरे शरीर में आध सेर माँस भी शेष न रहे। आओ प्रधान चलो। ईश्वर करे कहीं बसन्त आ जाय और मुझे अपना ऋण चुकाते हुए देख ले, फिर मेरे जी में कोई लालसा शेष न रहेगी।
ख्सब जाते हैं,


चौथा दृश्य
स्थान-विल्वमठ पुरश्री के घर का एक कमरा
(पुरश्री, लवंग, जसोदा और बालेसर आते हैं)
लवंग : प्यारी यद्यपि आप के मुँह पर कहना सुश्रूषा है पर आप में ठीक देवताओं का सा सच्चा और पवित्र प्रेम पाया जाता है और इसका बड़ा प्रमाण यह है कि आपने इस भाँति अपने स्वामी का विरह सहन किया। किन्तु यदि आपको विदित हो कि आपने किस पर इतनी कृपा की है और वास्तव में कैसे सच्चे सभ्य को सहायता भेजी है और उसको मेरे स्वामी अर्थात् आपके स्वामी से कैसी प्रीति है तो आपको अपने इस कृत्य पर और साधारण कर्तव्यों की अपेक्षा कहीं बढ़ कर प्रसन्नता हो।
पुरश्री : मैं अच्छे काम करके न आज तक पछताई हूँ और न अब पछताऊँगी क्योंकि ऐसे मित्र जो हर क्षण मिले जुले रहते हैं ओर जिनके चित्त में एक दूसरे का समान प्रेम है मानो एक प्राण दो देह हैं उनकी चाल ढाल रहन सहन और चित्त भी अवश्य ही एक सा होगा तो मैं समझती हूँ कि यह अनन्त जो मेरे स्वामी के अन्तरंग मित्र हैं उन्हीं के सदृश्य होंगे। यदि ऐसा है तो मैंने अपने स्वामी के चित्त को महा आपत्ति के पंजे से कैसे थोड़े व्यय में छुड़ा पायी। पर इससे तो मेरी ही प्रशंसा निकलती है। इसलिए अब इस प्रकरण को छोड़कर दूसरी बातें सुनो। लवंग मैं अपने घर और गृहस्थी का सारा प्रबन्ध अपने स्वामी के लौट आने तक तुम्हारे आधीन करती हूँ। रही मैं तो मैंने अपने मन में ईश्वर के सामने एक मन्नत मानी है कि नरश्री को साथ लेकर उसके स्वामी के आने तक प्रार्थना करती और उसकी ओर लौ लगाए रहूँ। यहाँ से दो मील पर एक मठ है, उसी में जाकर हम लोग रहंेगी। मैं आशा करती हूँ कि तुम मेरी इस प्रार्थना से जिसे अपनी प्रीति और कुछ अधिक आवश्यकता होने के कारण करती हूँ अनंगीकार न करोगे।
लवंग : प्यारी मैं तन मन से आप की आज्ञा का अनुगामी हूँ।
पुरश्री : मेरे नौकर चाकर इस इच्छा को जान चुके हैं और वह तुम्हें और जसोदा को महाराज वसन्त और मेरे स्नानापन्न समझेंगे। अच्छा अब मैं तुम लोगों से विदा होती हूँ, जब तक कि भगवान तुमसे फिर न मिलाए।
लवंग : भगवान् आपको उच्च मनोरथ और उत्तम साहस दें।
जसोदा : मेरी आसीस है कि आपका आन्तरिक मनोरथ पूरा हो।
पुरश्री : मैं तुम्हारी इस अभिलाषा का धन्यवाद देती हूँ और तुम्हारे विषय में भी वैसा ही जी से चाहती हूँ। जसोदा मेरा राम राम लो।
(जसोदा और लवंग जाते हैं)
हाँ बालेसर जैसा कि मैंने तुम्हें सदा सच्चा और धामिक पाया है वैसा ही मैं चाहती हूँ कि अब भी पाऊँ। इस पत्र को लो और जहाँ तक कि तुम्हारे पाँव में बल हो शीघ्र पाँडुपुर पहुँचने का प्रयत्न करो और इसे मेरे चचेरे भाई कविराज बलवन्त के हाथ में दो और देखो कि जो पत्र और वस्त्र वह तुम्हें दंे उन्हें ईश्वर के वास्ते मन से अधिक तीव्र उस घाट पर जहाँ से वंशनगर को व्यापार का माल जाता है, लेकर आओ। बस अब चले जाओ, बातों में समय नष्ट न करो। मैं तुमसे पहिले वहाँ पहुँच जाऊँगी।
वालेसर : बबुई मैं जितना शीघ्र सम्भव होगा जाऊँगा।
पुरश्री : इधर आओ नरश्री मुझे अभी वह काम करना है जो तुम्हें अभी विदित नहीं है। हम तुम चल कर अपने स्वामी को देखेंगे और उनको इसका ध्यान भी न होगा।
नरश्री : हमें भी वह देखेंगे या नहीं?
पुरश्री : हाँ हाँ परन्तु ऐसे भेस में कि उन्हें ध्यान न होगा कि वे वीरता के चिन्ह जो स्त्रियों में नहीं होते हम में उपस्थित हैं। मैं प्रण करती हूँ कि जब हम तुम युवा मनुष्यों की भाँति वस्त्र इत्यादि पहिन कर तैयार हो जाएँगे, उस समय मैं तुमसे बढ़कर सजीली जान पडँ़ईगी और अपनी तलवार को खूब तिरछी बाँध कर चलूँगी और बालक और युवा के शब्द के बीच का भारी शब्द बनाकर बोलूँगी और स्त्रियों की मन्दगति छोड़कर पुरुषों की भाँति लम्बे पैर रक्खूंगी और एक अभिमानी नवयुवक व्यसनी पुरुष की भाँति युद्ध इत्यादि का भी वर्णन करूँगी और झूठी बातें गढ़ गढ़ कर कहूँगी कि बड़ी प्रतिष्ठित स्त्रियाँ मुझ पर आसक्त हुईं पर मैंने उन्हें ऐसा कोरा उत्तर दिया कि नैराश्य से पीड़ित होकर मर गईं पर मेरा इसमें क्या बस था फिर मैं खेद प्रकट करूँगी और कहूँगी कि यद्यपि इसमें मुझ पर कुछ दोष नहीं है किन्तु यदि वह मेरे इश्क में न मरतीं तो उत्तम था और इसी प्रकार के बांसों झूठ ऐसे बोलूँगी कि लोगों को इस बात का पक्का विश्वास हो जायेगा कि मुझे पाठशाला छोड़े साल भर से अधिक न हुआ होगा। मुझे इन अभिमानी छोकरों के सहस्र ों चुटकुले स्मरण हैं और मैं इन्हीं से अपना काम निकालूँगी। परन्तु आओ मैं तुमसे अपना सब उपाय गाड़ी में जो बगीचे के फाटक पर खड़ी है सवार होकर वर्णन करूँगी। बस अब शीघ्र ही चलो क्योंकि हमें आज ही बीस मील समाप्त करना है।
(दोनों जाती हैं।)


पाँचवाँ दृश्य
स्थान-विल्वमठ-एक उद्यान
(गोप और जसोदा आते हैं)
गोप : हाँ बेशक-तुम जानती हो कि पिता के पापों का दण्ड उसके बच्चों को भोगना पड़ता है। इसलिये मैं सच कहता हूँ कि मुझे तुम्हारा अमंगल दृष्टि आता है। मैंने तुमसे छलावल की बात आज तक नहीं की और अब भी तुमसे अपना विचार स्पष्ट कह दिया। नेक अपने मन को प्रसन्न रक्खो क्योंकि मेरी सम्मति में तो तुम अपराधग्रस्त हो चुकीं। हाँ एक उपाय तुम्हारे कल्याण का दृष्टि आता है सो उसकी भी आशा कुछ ऐसी वैसी है।
जसोदा : वह कौन सा उपाय है नेक बताना तो?
गोप : भाई! तुम यह समझो कि तुम अपने पिता से उत्पन्न नहीं हो अर्थात् तुम जैन की कन्या नहीं हो।
जसोदा : तौ तो सचमुच यह आशा ऐसी ही वैसी है क्योंकि ऐसा करने में मुझे अपनी माता के अपराधों का दण्ड मिलेगा।
गोप : हाँ सच तो है, तब तो मुझे भाग्य है कि तुम माता पिता दोनों के निमित्त दण्ड पाओगी। हाय हाय जब मैं तुम्हें उधर गड्डे अर्थात् तुम्हारे पिता से बचाता हूँ तो इधर खाई अर्थात् तुम्हारी माता दृष्टि आती है। अच्छा तो अब तुम दोनों ओर से गई।
जसोदा : मैं अपने स्वामी के द्वारा मुक्ति पाऊँगी, वह मुझे आर्य धर्म में लाए हैं।
गोप : तौ तो प्रधान दोष उन पर है। हम लोग पहिले ही से आर्य धर्म के क्या न्यून मनुष्य हैं। परन्तु अच्छा जितने थे उतनों का किसी भाँति पूरा पड़ जाता था पर अब नये आर्यों के भरती होने से सूअर का दाम बढ़ जायेगा। यदि हम सब के सब शूकर भक्षी बन जाएँगे तो थोड़े दिनों में बहुत दाम देने से भी उस स्वादिष्ट मांस का एक टुकड़ा भी हाथ न आवेगा।
(लवंग आता है)
जसोदा : गोप, मैं तुम्हारी सब बातें अपने स्वामी से कहूँगी; देखो वह आते हैं।
लवंग : गोप, यदि तुम इस भाँति मेरी स्त्री से परोक्ष में बात किया करोगे तो मुझसे कैसे देखा जायेगा।
जसोदा : नहीं लवंग तुम हम लोगों की ओर से सन्देह मत करो; मुझ से और गोप से कहासुनी हो रही है क्योंकि वह मुझसे स्पष्ट कहता है कि मुझको भगवान न क्षमा करेगा क्योंकि मैं जैन की पुत्री हूँ और तुम्हारे विषय में कहता है कि तुम अपनी जाति के शुभचिन्तक नहीं हो क्योंकि जैनियों को आर्य बना कर सूअर के मांस का भाव बिगाड़ते हो।
लवंग : अबे जा उन लोगों से भोजन की तैयारी के लिये कह दे।
गोप : साहिब वह सब प्रस्तुत हैं क्योंकि उनको भी तो पेट है।
लवंग : ईश्वर का कोप हो तुझ पर, तू क्या ही हँसोड़ है। अच्छा उन्हें थाली परोसने के लिए कह दे।
गोप : यह भी हो चुका है केवल आच्छादन करना शेष है।
लवंग : तो शीघ्र आच्छादित करो।
गोप : यह मेरा सामथ्र्य नहीं कि स्वामी के सामने आच्छादन करूँ।
लवंग : फिर भी अपना ही राग गाए जाता है। क्या तू एक ही क्षण में अपना कुल हँसोड़पन खर्च कर डालेगा मैं तुझसे विनय करता हूँ कि मेरी सरल बातचीत के सीधे अर्थ समझ। जा अपने साथियों से कह दे कि थाली में मांस चुन कर ढंपना, छुरी काँटा इत्यादि रख दे। हम लोग भोजन को आते हैं।
गोप : महाराज थाली तो परस दी जायेगी और मांस भी लगा दिया जायेगा पर बिना चुहल के खाना अलोना प्रतीत होगा। इससे इसका तार न तोड़िए।
लवंग : ईश्वर की शरण, इस दुष्ट में तो हँसोड़पन वू$ट वू$ट कर भरा है मानो इसके सिर में श्लेष की सेना पैतरा बाँधे हर समय उपस्थित है। मैं बहुतेरे दुष्टों को जानता हूँ जो इससे अधिकार में कहीं बढ़कर हैं परन्तु शब्दों के प्रयोग में अर्थ का सत्यानाश करते हैं। जसोदा तुम किस विचार में हो? भला प्यारी तुम अपनी सम्मति तो वर्णन करो कि तुम राजकुमार बसन्त की अद्र्धांगिनी को कैसा समझती हो?
जसोदा : उनकी प्रशंसा अनिर्वचनीय है। मेरी जान में तो उचित होगा कि राजकुमार बसन्त को अब अपना जीवन निरी पवित्रता के साथ बिताना चाहिए क्योंकि जो पदार्थ कि उन्हें अपनी स्त्री में मिला है वह ऐसा है कि मानो उन्हें पृथ्वी पर स्वर्ग का सुख जीते जी हाथ लगा और यदि वह इसका आदर न करें तो स्पष्ट है कि उन्हें स्वर्ग का सुख भी क्या उठेगा। मेरी समझ में तो यदि दो देवता आपस में कोई स्वर्गीय कौतुक करें और दो सांसारिक स्त्रियों की होड़ बढ़े और इनमें से एक पुरश्री को अपनी ओर से बाजी में लगावें तो दूसरे को अपनी शर्त में एक स्त्री के साथ और भी बहुत कुछ बढ़ना होगा। क्योंकि इस उजाड़ संसार में पुरश्री का सा दूसरा तो मिलना नहीं।
लवंग : जैसा कि राजकुमार बसन्त को स्त्री लब्ध हुई है वैसा ही मैं भी तुम्हें स्वामी मिला हूँ।
जसोदा : सत्य वचन। परन्तु इसके विषय में भी तनिक मेरी सम्मति पूछ देखो।
लवंग : हाँ अभी पूछता हूँ। पहिले चलो खाना खा लें।
जसोदा : नहीं, अभी मुझे पेट भर तुम अपनी प्रशंसा कर लेने दो भोजन के उपरान्त समाई न रहेगी।
लवंग : भगवान के वास्ते यह कथा खाने के समय के लिए रहने दो। उस समय तुम मुझे कैसा ही कुछ कहोगी मैं उसे और पदार्थों के साथ पचा जाऊँगा।
जसोदा : बहुत अच्छा मैं आपकी प्रशंसा की पोथी वहीं खोलूँगी।
(दोनों जाते हैं)
चौथा अंक

पहला दृश्य
स्थान-वंशनगर राजद्वार
(मण्डलेश्वर वंशनगर, प्रधान लोग, अनन्त, बसन्त, गिरीश, सलारन, सलोने और दूसरे लोग आते हैं)
मण्डलेश्वर : अनन्त आ गए हैं?
अनन्त : धर्मावतार उपस्थित हूँ!
मण्डलेश्वर : मुझे तुम पर अत्यन्त शोच होता है क्योंकि तुम ऐसे दुष्ट कठोर वज्रहृदयवादी (मुद्दई) के उत्तर देने के लिये बुलाए गए हो, जिसे दया नाम को भी नहीं छू गई है।
अनन्त : मैं सुन चुका हूँ कि महाराज ने उसके क्रूर बरताव के नम्र करने के प्रयत्न में कितना श्रम किया परन्तु उस पर किसी बात की सिद्धि नहीं होती और न मैं किसी उचित रीति से उसकी शत्रुता की परिधि के बाहर आ सकता हूँ। अतः मैं अपना सन्तोष उसके अनर्थ के प्रति प्रकट करता हूँ और उसका अत्याचार सहने को सब प्रकार से प्रस्तुत हँँ और कदापि मुख से आह न निकालूँगा।
मण्डलेश्वरः कोई जाये और उस जैन को न्यायालय में उपस्थित करे।
सलोने : महाराज वह पहिले ही से द्वार पर खड़ा है, वह देखिए आ पहुँचा।
(शैलाक्ष आता है)
मण्डलेश्वर : सब लोग स्थान दो जिसमें वह हमारे सम्मुख आकर खड़ा हो। शैलाक्ष, सारा संसार सोचता है और मैं भी ऐसा ही समझता हूँ कि यह हठ तुम उसी क्षण तक स्थिर रक्खोगे जब तक कि उसके पूरे होने का समय न आ जायेगा और तब लोगों का यह विचार है कि तुम जितनी अब प्रकट में कठोरता दिखला रहे हो उसकी अपेक्षा कहीं अधिक खेद और दया प्रकाश करोगे और जहाँ कि अभी तुम उससे प्रतिज्ञा भंग होने का दण्ड लेने पर प्रस्तुत हो (जो इस दीन व्यापारी के शरीर का आध सेर मांस है) वहाँ उस समय तुम केवल इस दण्ड ही के छोड़ने पर अभिमत न हो जाओगे वरंच मनुष्य धर्म और शील का अनुकरण करके मूल ऋण में से आधा छोड़ दोगे। यदि उसकी हानियों की ओर जो इधर थोड़ी देर में उनके ऊपर फट पड़ी हैं ध्यान दिया जाये तो वही इतने बडे व्यापारी की कमर तोड़ देने के लिए बहुत हैं और कोई मनुष्य कैसा ही कठोर चित्त क्यों न हो और पत्थर का हृदय क्यों न रखता हो यहाँ तक कि कोल और भिल्ल भी जिन्होंने कभी शील का नाम नहीं सुना। उसकी दशा को देखकर अत्यन्त ही शोक करेंगे तो ऐ जैन हम लोग आशा करते हैं कि तुम इसका उत्तर नम्रतापूर्वक दोगे।
शैलाक्ष : महाराज को अपने उद्देश्य से सूचित कर चुका हूँ और मैंने अपने पवित्र दिन रविवार की शपथ खाई है कि जो कुछ मेरा दस्तावेज के अनुसार चाहिए वह भग्नप्रतिज्ञ होने के दण्ड के सहित लूँगा। यदि महाराज उसको दिलवाना अनंगीकार करैं तो इसका अपवाद महाराज के न्याय और महाराज के नगर की स्वतंत्रता के सिर पर। महाराज मुझसे यही न पूछते हैं कि मैं इतना मृतमांस छ हजार रुपयों के बदले लेकर क्या करूँगा। इसका उत्तर मैं यही देेता हूँ कि मेरे मन की प्रसन्नता। बस अब महाराज को उत्तर मिला? यदि मेरे घर में किसी घूंस ने बहुत सिर उठा रक्खा हो और मैं उसके नष्ट करने के लिए बीस सहस्र मुद्रा व्यय कर डालूँ तो मुझे कौन रोक सकता है। अब भी महाराज ने उत्तर पाया या नहीं? कितने लोगों को सूअर के मांस से घृणा होती है कितने ऐसे हैं कि बिल्ली को देखकर आप से बाहर हो जाते हैं, तो अब आप मुझ से उत्तर लीजिए कि जैसे इन बातों का कोई मूल कारण नहीं कहा जा सकता कि वह सूअर के मांस से क्यों दूर भागते हैं और यह बिल्ली सदृश दीन और सुखदायक जन्तु से क्यों इतना घबराते हैं वैसे ही मैं भी इसका कोई कारण नहीं कह सकता और न कहूँगा। सिवाय इसके कि मेरे और उनके बीच एक पुरानी शत्रुता चली आती है और मुझे उसके स्वरूप से घृणा है जिसके कारण से मैं एक ऐसे विषय का जिसमें मेरा इतना घाटा है उद्योग करता हूँ। कहिए अब तो उत्तर मिला?
बसन्त : ओ निर्दय यह बात जिससे तू अपने अत्याचार को उचित सिद्ध करता है कोई उत्तर नहीं है।
शैलाक्ष : मेरा कुछ तेरी प्रसन्नता के लिये उत्तर देना कत्र्तव्य थोड़े ही है।
वसंत : क्या सब लोग ऐसे पशु को मार डालते हैं, जिसे वह बुरा समझते हैं।
शैलाक्ष : संसार में कोई भी ऐसा मनुष्य है जो किसी जन्तु के मारने से जिससे वह घृणा करता हो हाथ उठावे।
वसंत : हर एक अपराध से पहिली बार घृणा नहीं उत्पन्न हो जाती।
शैलाक्ष : क्या तुम चाहते हो कि मैं साँप को दूसरी बार डसने का अवसर दूँ।
अनन्त : भगवान के निहोरे नेक विचारो तो कि तुम किससे विवाद कर रहे हो। इसको मार्ग पर लाना तो ठीक वैसी ही बात है जैसा कि समुद्र के किनारे खड़े होकर तरंगों को आज्ञा देना कि तुम इतनी ऊँची मत उठो, या भेड़िये से पूछना कि उसने बकरी के बच्चे को खा कर उसकी माँ को दुःख में क्यों फँसाया, या पहाड़ी खजूर के वृक्षों को कहना कि वह अपनी ऊँची पु$नगियों को वायु के झोंके से न हिलने दें और न पत्तों की खड़खड़ाहट का शब्द होने दें, ऐसे ही तुम संसार के कठिन से कठिन काम कर लो इसके पूर्व कि इस जैन के चित्त को (जिससे कठोरतर दूसरा पदार्थ न होगा) द्रव करने का यत्न करो। इसलिए मैं प्रार्थना करता हूँ कि न तो तुम उससे अब कुछ देने दिलाने की बातचीत करो और न इस विषय में अधिक चिन्ता करो वरंच थोड़े में भाग्य पर सन्तोष करके मुझे दण्ड भुगतने और इस जैन को अपना मनोरथ पूरा करने दो।
वसन्त : तेरे छ हजार रुपयों के बदले यह ले बारह तैयार हैं।
शैलाक्ष : यदि इन बारह हजार रुपयों का हर एक रुपया बारह भागों में बाँट दिया जाए और हर एक भाग एक रुपये के बराबर हो तो भी मैं उनकी ओर आँख उठा कर न देखूँ, मुझे केवल दस्तावेज के प्रण से काम है।
मण्डलेश्वर: भला, तू किसी पर दया नहीं करता तो तुझे दूसरों से क्या आशा होगी?
शैलाक्ष : जब मैंने कोई अपराध ही नहीं किया है तो फिर किस बात से डरूँ? आप लोगों के पास कितने मोल लिए हुए दास और दासियाँ उपस्थित हैं जिन्हें आप गधों, कुत्तों और खच्चरों की भाँति तुच्छ अवस्था में रख कर उनसे सेवा कराते हैं और यह क्यों? केवल इसलिये कि आपने उन्हें मोल लिया है। या मैं आप से यह कहूँ कि आप उन्हें स्वतंत्र करके अपने कुल में ब्याह कर दीजिए, या यह कि उन्हें बोझ के नीचे दबा हुआ पसीने से घुला घुलाकर मारे क्यों डालते हैं, उन्हें भी अपनी सदृश कोमल शैय्या पर सुलाइए और स्वादिष्ट भोजन खिलाइए तो इसके उत्तर में आप यही कहिएगा कि वह दास हमारे हैं हम जो चाहेंगे करेंगे, तुम कौन? इसी भाँति मैं भी आपको उत्तर देता हूँ कि इस आध सेर मांस का जो मैं इससे माँगता हूँ बहुत मूल्य दिया गया है, वह मेरा माल है और मैं उसे अवश्य लूँगा। यदि आप दिलवाना अस्वीकार करें तो आप के न्याय पर थुड़ी है। जाना गया कि वंशनगर के कानून में कुछ भी सार नहीं। मैं राजद्वार की आज्ञा सुनने के लिए उपस्थित हूँ, कहिए मुझे न्याय मिलेगा या नहीं?
मण्डलेश्वर : मुझे निज स्वत्व के अनुसार अधिकार है कि मुकद्दमे के दिन को टाल दूँ। यदि बलवन्त नामी एक सुयोग्य वकील जिसको मैंने इस मुकद्दमे के विचार के लिए बुलाया है आज न आया तो मैं इस मुकद्दमे को टाल दूँगा।
सलारन : महाराज बाहर उस वकील का एक मनुष्य खड़ा है, जो उसके पास से पत्र लेकर अभी पाण्डुपर से चला आता है।
मण्डलेश्वर : शीघ्र पत्र लाओ और दूत को भीतर बुलाओ।
वसंत : अनन्त अपने चित्त को स्वस्थ रक्खो, कैसे मनुष्य हो! साहस न हारो। पहिले इसके कि तुम्हारा एक बाल भी टेढ़ा हो मैं अपना मांस, त्वचा, अस्थि और जान प्राण वो धन उस जैन के अर्पण करूँगा।
अनन्त : गल्ले भर में मन्नत की दुर्बल भेड़ मैं ही हूँ, मेरा ही मरना श्रेय है। कोमल फल सबके पहले पृथ्वी पर गिरता है तो मुझी को गिरने दो। तुम्हारे लिए इससे बढ़कर कोई बात उचित न होगी कि मेरे पश्चात् मेरा जीवनचरित्र लिखो।
(नरश्री वकील के लेखक के भेस में आती है)
मण्डलेश्वर : तुम पाण्डुपुर से बलवन्त के पास से आते हो?
नरश्री : जी महाराज वहीं से उन्हीं के पास से, बलवन्त ने आपको प्रणाम कहा है।
(एक पत्र देती है)
वसंत : क्यों, तू ऐसे उत्साह से छुरी क्यों तीक्ष्ण कर रहा है?
शैलाक्ष : उस दिवालिये के शरीर से दण्ड का मांस काटने के लिये।
गिरीश : अरे निर्दयी जैनी तू अपनी जूती के तल्ले पर छुरी को क्यों तेज करता है, तेरा पाषाण तुल्य हृदय तो प्रस्तुत ही है। पर कोई शस्त्र यहाँ तक कि बधिक की तलवार भी तेरी शत्रुता के वेग को नहीं पहुँच सकती। क्या तुझ पर किसी की विनती काम नहीं आती?
शैलाक्ष : नहीं, एक की भी नहीं जो तू अपने बुद्धि से गढ़ सकता हो।
गिरीश : हा! ओ कठोर कुत्ते, ईश्वर तेरा बुरा करे, यह केवल न्याय का दोष है जिसने अब तक तुझे जीता रख छोड़ा है, तूने तो आज मेेरे धर्म में बट्टा लगा दिया क्योंकि तेरे लक्षणों को देखकर मुझे गोरक्ष के इस विचार को कि पशुओं की आत्मा मनुष्य के शरीर में प्रवेश करती है। मानना पड़ा। तेरी हिंसक आत्मा एक भेड़िये की छाया में थी जो कितने मनुष्यों के जीव वध के लिये सूली चढ़ा दिया गया था। इस अवस्था को पहुँचने पर भी उस नारकी आत्मा को तोष न हुआ और वहाँ से भाग कर जिस समय तू अपनी माता के अपवित्र गर्भ में था तुझमें पैठ गई क्योंकि तेरा मनोरथ भी भेड़ियों की भाँति घातक हिंसक है।
शैलाक्ष : जब तक कि तेरे विचार में इतनी शक्ति न हो कि अनन्त की मुहर का मेरी दस्तावेज पर से मिटा दे सके तब तक इस विचार से क्या फल निकल सकता है। व्यर्थ को तू चिल्ला चिल्ला कर अपना ही कण्ठ फाड़ रहा है। ऐ नवयुवक अपने सुधि की औषधि कर कहीं ऐसा न हो कि तेरे सिर पर कोई आपत्ति आ जाए। क्या मुझे विदित नहीं कि मैं न्याय के लिये यहाँ खड़ा हूँ?
मण्डलेश्वर : बलवन्त अपने पत्र में इस न्याय सभा के लिये नवयुवक विद्वान वकील की सिफारिश करता है, वह कहाँ है?
नरश्री : वह समीप ही आपके उत्तर पाने की प्रत्याशा में खड़े हैं कि आप उन्हें विवाद करने की आज्ञा देंगे या नहीं।
मण्डलेश्वर : अति प्रसन्नता से। आप दो चार महाशय जाएँ और उनका समादर करके सम्मान के साथ यहाँ ले आएँ तब तक विचारसभा बलवन्त का पत्र सुनेगी।
(लेखक पढ़ता है)
श्रीमन्, मैने महाराज का पत्र अस्वस्थ होने की अवस्था में पाया। परन्तु जिस समय आप का दूत पहुँचा उस सम्यक् मेरे मित्रों में से मालवा के एक युवा वकील बालेसर नामी मेरी भेंट करने को आए हुए थे। मैंने उनको जैन और अनन्त सौदागर के मुकद्दमे का सब व्यौरा समझा दिया। हम दोनों मनुष्यों ने मिल कर कई व्यवस्थाएँ पलट कर देखीं। मैंने अपनी सम्मति उनसे प्रकट कर दी है अतः वह मेरी सम्मति लेकर जिसे वह अपनी योग्यता के बल से (जिसकी प्रशंसा मैं किसी मुँह से नहीं कर सकता) और सुधार लेंगे। मेरे निवेदन के अनुसार मेरे स्थानापन्न महाराज की सेवा में उपस्थित होते हैं। प्रार्थना करता हूँ कि महाराज उनकी अल्प अवस्था का ध्यान न करके उनके आदर में कदापि न्यूनता न करेंगे क्योंकि मेरी दृष्टि में ऐसी थोड़ी अवस्था का पुरुष ऐसी पुष्कल बुद्धि के साथ आज तक नहीं आया। मैं उन्हें महाराज की सेवा में अर्पण करता हूँ, परीक्षा से उनकी योग्यता का हाल भली भाँति खुल जायेगा।
मण्डलेश्वर : आप लोगों ने सुना कि प्रसिद्ध विद्वान् बलवन्त ने क्या लिखा है और जान पड़ता है कि वकील महाशय भी वह आ रहे हैं।
(पुरश्री वकीलों की भाँति वस्त्र पहने हुए आती है)
मण्डलेश्वर : आइए हाथ मिलाइए, आप ही वृद्ध बलवन्त के पास से आते हैं?
पुरश्री : महाराज।
मण्डलेश्वर : मुझे आप के आने से बड़ी प्रसन्नता हुई, विराजिए। आप इस मुकद्दमे को जानते हैं जिसका इस समय विचारसभा में विचार हो रहा है?
पुरश्री : मैं उसके वृत्तान्त को भलीभाँति जानने वाला हूँ। वर्णन लीजिए कि इन लोगों में से कौन सौदागर है और कौन जैन?
मण्डलेश्वर : अनन्त और वृद्ध शैलाक्ष दोनों सामने खड़े हो जाओ।
पुरश्री : तुम्हारा नाम शैलाक्ष है?
शैलाक्ष : हाँ मेरा नाम शैलाक्ष है।
पुरश्री : यह तुमने विचित्र मुकद्दमा रच रक्खा है, परन्तु नियमानुसार वंशनगर का कानून तुमको उसके प्रयत्न से रोक नहीं सकता, और आप ही इनके पंजे में फँसे हैं, क्यों साहिब?
(अनन्त से)
अनन्त : जी हाँ, मुझी पर इनका लक्ष्य है।
पुरश्री : आप तमस्सुक लिखना स्वीकार करते हैं।
अनन्त : निस्सन्देह मैं स्वीकार करता हूँ।
पुरश्री : तब तो अवश्य है कि जैन दया करे।
शैलाक्ष : मैं किस बात से दब कर ऐसा करूँ यह तो कहिए?
पुरश्री : दया ऐसी वस्तु नहीं जिसे आग्रह की आवश्यकता हो। वह जलधारा की भाँति नभ मण्डल से पृथ्वीतल पर गिरती है। उसका दुहरा फल मिलता है अर्थात् पहले उसको जो करता है और दूसरे उसको जिसे उसका लाभ पहुँचता है। महानुभावों को यह अधिकतर शोभा देती है, मण्डलेश्वरों को यह मुकुट से अधिकतर शोभित है। राजदण्ड केवल सांसारिक बल प्रकट करता है जो आतंक और तेज का चिन्ह है और जिससे राजेश्वरों का भय लोगों के चित्त पर छा जाता है परन्तु दया का प्रभाव राजदण्ड के प्रभाव की अपेक्षा कहीं अधिक है दया का वासस्थान राजेश्वरों का चित्त है, यह एक प्रधान महिमा ईश्वर की है। अतः संसार के राजेश्वर उसी समय दैवतुल्य प्रतीत होते हैं जबकि वह न्याय के साथ दया का भी बरताव करते हैं। इसलिए ऐ जैनी यद्यपि तू न्याय ही न्याय पुकारता है किन्तु विचार कर कि केवल न्याय ही के भरोसे पर हममें से कोई मरने के उपरान्त मुक्त होने की आशा नहीं कर सकता। हम ईश्वर से दया की प्रशंसा करते हैं तो चाहिए कि वही प्रार्थना हमको भी दया के काम सिखावे। मैंने इतना तेरे न्याय के आग्रह से हटाने के निमित्त से कहा पर यदि तू न मानेगा तो जैसे हो सकेगा वंशनगर की विचारशीला न्यायसभा तुझे इस सौदागर पर विनयपत्र दे देगा।
शैलाक्ष : मेरा किया मेरे सिर पर। मैं राजद्वार से अपने तमस्सुक के अनुसार दण्ड दिला पाने की प्रार्थना करता हूँ।
पुरश्री : क्या वह रुपया चुका देने की क्षमता नहीं रखता।
बसन्त : हाँ, मैं राजद्वार में उनकी सन्दी अभी दूना देने को उपस्थित हूँ। यदि इससे भी उसका पेट न भरे तो मैं उस जमा का दस गुना दूँगा और यदि न दे सकूँ तो दण्ड में अपना सिर अर्पण करूँगा। यदि इस पर भी वह न माने तो स्पष्ट है कि शत्रुता के आगे धर्म की दाल नहीं गलती। मैं प्रार्थना करता हूँ कि आप अपने निज अधिकार से इस बार कानून का प्रतिबंध छोड़ दीजिए। एक बड़े भारी उपकार की अपेक्षा में थोड़ी सी अनीति स्वीकार कीजिए और हे मण्डलेश्वर, अत्याचारी पिशाच की बुराई को रोकिए।
ख्मण्डलेश्वर से,
पुरश्री : ऐसा न होना चाहिए। वंशनगर के कानून के अनुसार किसी को यह अधिकार नहीं है कि नीति को रोक सके। यह विचार दृष्टान्त की भाँति पर लिखा जायेगा और बहुत सी त्रुटियाँ इसके कारण राजा के कामों में आ पड़ेंगी। यह कदापि नहीं हो सकता।
शैलाक्ष : वाह वाह मानो महात्मा विक्रम आप ही न्याय के लिये उतर कर आए हैं। वास्वत में आपको विक्रम ही कहना चाहिए। ऐ युवा बुद्धिमान न्यायकर्ता मैं नहीं कह सकता कि मैं चित्त से आपका कितना समादर करता हूँ।
पुरश्री : कृपाकर, नेक मुझे तमस्सुक तो देखने दो।
शैलाक्ष : लीजिए सुप्रतिष्ठ वकील महाशय यह उपस्थित है।
पुरश्री : शैलाक्ष तुम्हें तुम्हारे मूलधन का तिगुना मिल रहा है।
शैलाक्ष : शपथ, शपथ, मैं शपथ जो खा चुका हूँ। क्या मैं झूठी शपथ खाने का पाप अपने माथे कर लूँ? न, कदापि नहीं, यदि मुझे इसके बदले में वंशनगर का राज्य भी हाथ आए तौ भी ऐसा न करूँ।
पुरश्री : इस तमस्सुक की गिनती तो टल चुकी और इसके अनुसार विवेकतः जैन को अधिकार है कि सौदागर के हृदय के पास से आध सेर मांस काट ले। परन्तु उस पर दयाकर और तिगुना रुपया लेकर मुझे तमस्सुक फाड़ डालने की आज्ञा दे।
शैलाक्ष : हाँ उस समय जब कि मैं लिखे अनुसर दण्ड दिला पाऊँ। मुझे प्रतीत होता है कि आप एक योग्य न्यायी हैं, आप कानून से परिचित हैं और उसके तात्पर्य को भी ठीक समझते हैं, तो मैं आपको उसी की शपथ देता हूँ जिसके आप पूरे आधार हैं कि आप आज्ञा सुनाने में विलम्ब न करें। मैं अपने प्राण की सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि मनुष्य की जिह्ना में इतना सामथ्र्य नहीं कि मेरा मनोरथ फेरे। मुझको सिवाय तमस्सुक के प्रणों के और किसी बात से क्या प्रयोजन।
अनन्त : मैं भी चित्त से चाहता हूँ कि न्यायकत्र्ता आज्ञा सुना दे।
पुरश्री : तो बस आपको छाती खोलकर प्रस्तुत रहना चाहिए।
शैलाक्ष : वाह रे योग्यता! वाह रे न्याय! आहा! क्या कहना है!
पुरश्री : क्योंकि कानून का अभिप्राय यही है कि प्रतिज्ञा भंग करने का दण्ड तमस्सुक के प्रणानुसार सब अवस्था में दिया जाना चाहिए, तो वह इस अवस्था में भी उचित है।
शैलाक्ष : बहुत ठीक, क्या कहना है, न्यायकर्ता को ऐसा ही बुद्धिमान और न्यायी होना चाहिए! यह अवस्था और यह बुद्धि।
पुरश्री : अब आप अपनी छाती खोल दीजिए।
शैलाक्ष : जी हाँ छाती ही, यही तमस्सुक में लिखा है, है न मेरे सुजन न्यायकर्ता, हृदय के समीप ये ही शब्द लिखे हैं।
पुरश्री : ऐसा ही है, परन्तु बताओ कि मांस तोलने के लिये तराजू रक्खे हैं?
शैलाक्ष : मैंने उन्हें ला रक्खा है।
पुरश्री : शैलाक्ष, अपनी ओर से कोई जर्राह भी बुला रक्खो कि उसका घाव बन्द कर दे, जिसमें अधिक रक्त निकलने से कहीं वह मर न जाए।
शैलाक्ष : क्या यह तमस्सुक में लिखा है?
पुरश्री : नहीं लिखा तो नहीं परन्तु इससे क्या, इतनी भलाई यदि उसके साथ करोगे, तो तुम्हारी ही कानि है।
शैलाक्ष : मैं नहीं करने का, तमस्सुक में इसका वर्णन नहीं है।
पुरश्री : अच्छा सौदागर साहिब, तो अब आपको जो कुछ किसी से कहना सुनना हो कह सुन लीजिए।
शैलाक्ष : केवल दो बातें करनी हैं, नहीं तो मैं सब भाँति उपस्थित और प्रस्तुत हूँ। लाओ बसन्त, मुझे अपना हाथ दो, मैं तुमसे विदा होता हूँ। तुम इस बात का कदापि ख्ेाद न करना कि मुझ पर यह आपत्ति तुम्हारे कारण आई क्योंकि इस समय पर भाग्य अपने नियम देखने आया है कि वह भाग्यहीन मनुष्य को उनकी लक्ष्मी चले जाने के उपरान्त ठोकर खाने और दुरवस्था से दारिद्रय का दुःख उठाने के लिए छोड़ देती है किन्तु मुझे वह एक साथ इस जन्म भर के क्लेश से छुटकारा दिए देती है। अपनी सुशील स्त्री से मेरा सलाम कहना और उनसे मेरे मरने का हाल कह देना। जो स्नेह मुझे तुम्हारे साथ था उसका भी वर्णन करना, मेरे प्राण देने के ढंग को सराहना और जिस समय मेरी कहानी कह चुके तो उनसे न्यायदृष्टि से पूछना कि किसी समय में बसन्त का भी कोई चाहने वाला था या नहीं। मेरे प्यारे तुम इस बात का खेद न करो कि तुम्हारा मित्र संसार से उठा जाता है क्योंकि निश्चय मानो कि उसे इस बात का नेक भी शोच नहीं कि वह तुम्हारे ऋण को अपने प्राण देकर चुकाता है क्योंकि यदि जैन ने गहरा घाव लगाने में कमी न की तो मैं तुरन्त उससे उऋण हो जाऊँगा।
बसन्त : अनन्त मेरा ब्याह एक स्त्री के साथ हुआ है जिसे मैं अपने से अधिक प्रिय समझता हूँ, परन्तु मेरा प्राण, मेरी स्त्री और सारा संसार तुम्हारे जीवन के सामने तुच्छ है, और तुमको इस दुष्ट राक्षस के पंजे से छुड़ाने के लिए मैं इन सब को खोने वरंच तुम पर से न्यौछावर करने को प्रस्तुत हूँ।
पुरश्री : यदि तुम्हारी स्त्री इस स्थान पर उपस्थित होती तो तुम्हारे मुँह से अपने विषय में ऐेसे शब्द सुन कर अवश्य अप्रसन्न होती।
गिरीश : मेरी एक स्त्री है, जिसे मैं धर्म से कहता हूँ कि प्यार करता हूँ परन्तु यदि उसके स्वर्ग जाने से किसी देवता की सहायता मिल सकती, जो इस पापी जैन के चित्त को फेर देता तो मुझे उससे हाथ धोने में कुछ शोच न होता।
नरश्री : यही कुशल है कि तुम उसकी पीठ पीछे ऐसा कहते हो, नहीं तो न जाने आज कैसी आपत्ति मचती।
शैलाक्ष : (आप ही आप) इन आर्यपतियों की बातें सुनो! मेरी बेटी का ब्याह तो यदि बरवण्ड के सदृश्य किसी व्यक्ति से हुआ होता तो मैं अधिक पसन्द करता, इसकी अपेक्षा कि वह एक आर्य की स्त्री बने। (चिल्ला कर) समय व्यर्थ जाता है। मैं प्रार्थना करता हूँ कि आप विचार सुना दें।
पुरश्री : इस सौदागर के शरीर का आधा सेर मांस तुम्हारा ही है, जिसे कि कानून दिलाता है और राजसभा देती है।
शैलाक्ष : वाह रे न्यायी!
पुरश्री : और यह मांस तुमको उसकी छाती से काटना चाहिए, कानून इसको उचित समझता है और न्यायसभा आज्ञा देती है।
शैलाक्ष : ऐ मेरे सुयोग्य न्यायकर्ता! इसका नाम विचार है। आओ, प्रस्तुत हो।
पुरश्री : थोड़ा ठहर जा, एक बात और शेष है। यह तमस्सुक तुझे रुधिर एक बूँद भी नही दिलाता, ‘आध सेर मांस’ यही शब्द स्पष्ट लिखे हैं। इसलिए अपनी प्रण प्राप्ति कर ले अर्थात् आध सेर मांस ले ले परन्तु यदि काटने के समय इस आर्य का एक बूँद रक्त भी गिराया तो वंशनगर के कानून के अनुसार तेरी सब संपत्ति और लक्ष्मी व सामग्री राज्य में लगा ली जायेगी।
गिरीश : वाह रे विवेकी! सुन जैन-ऐ मेरे सुयोग्य न्यायी!
शैलाक्ष : क्या यह कानून में लिखा है?
पुरश्री : तुझे आप कानून दिखला दिया जायेगा क्योंकि जितना तू न्याय न्याय पुकारता है उससे अधिक न्याय तेरे साथ बरता जायेगा।
गिरीश : आहा! वाह रे न्याय! देख जैनी कैसे विवेकी न्यायकर्ता हैं।
शैलाक्ष : अच्छा मैं उसकी प्रार्थना स्वीकार करता हूँ-तमस्सुक का तिगुना देकर वह अपनी राह ले।
बसन्त : ले यह रुपये हैं।
पुरश्री : ठहरो, इस जैनी के साथ पूरा न्याय किया जायेगा, थोड़ा धीरज धरो, शीघ्रता नहीं है, उसे दण्ड के अतिरिक्त और कुछ न दिया जायेगा।
गिरीश : ओ जैनी देख तो कैसे धार्मिक और योग्य न्यायी हैं। वाह वाह!
पुरश्री : तो अब तू मांस काटने की प्रस्तुतियाँ कर, परन्तु सावधान स्मरण रखना कि रक्त नाम को भी न निकलने पावे और न आध सेर मांस से न्यून वा अधिक कटे। यदि तूने ठीक आध सेर से थोड़ा सा भी न्यूनाधिक काटा यहाँ तक कि यदि उसमें एक रत्ती बीसें भाग का भी अन्दर पड़ा, वरंच यदि तराजू की डाँडी बीच से बाल बराबर भी इधर या उधर हटी तो तू जी से मारा जायेगा और तेरा सब धन और धान्य छीन लिया जायेगा।
गिरीश : वाह वाह! मानो महाराज विक्रम आप ही न्याय के लिए उत्तर आए हैं! अरे जैनी देख महाराज विक्रम ही तो हैं! भला अधम तू अब मेरे हाथ चढ़ा है।
पुरश्री : ओ जैनी तू अब किस सोच विचार में पड़ा है? अपना दण्ड ग्रहण कर ले।
शैलाक्ष : अच्छा मुझे मेरा मूल दे दो मैं अपने घर जाऊँ।
बसन्त : ले, यह रुपया उपस्थित है।
पुरश्री : यह भरी सभा में रुपये का लेना अस्वीकार कर चुका है। अब इसे न्याय और दण्ड के अतिरिक्त कुछ न मिलेगा।
गिरीश : विक्रम महाराज! सचमुच यह विक्रम ही तो हैं। ऐ जैनी, मैं तेरा धन्यवाद करता हूँ कि तू ने मुझे अच्छा शब्द बतला दिया।
शैलाक्ष : क्या मुझे मेरा मूल धन भी न मिलेगा?
पुरश्री : तुझे दण्ड के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलने का। इससे ऐ जैनी अपने जी पर खेल कर उसे वसूल कर ले।
शैलाक्ष : अच्छा मैंने उसे राक्षस को सौंपा अब मैं यहाँ कदापि न ठहरूँगा।
पुरक्षी : ठहर ओ जैनी, तुझ पर कानून की एक और धारा है। वंशनगर के कानून में यह लिखा है कि यदि किसी परदेसी के विषय में यह सिद्ध हो कि उसने प्रकट या गुप्त रीति पर वंशनगर के किसी रहने वाले के वध करने की चेष्टा की तो वह प्रतिवादी जिसके विषय में ऐसा यत्न किया गया हो अपने प्रतिवादी की आधी सम्पत्ति पर अधिकार दिला पाने का दायी है और शेष आधा राजकोष में ग्रहण किया जायेगा। अपराधी के मुक्त करने का केवल मण्डलेश्वर को अधिकार है, उसमें कोई दूसरा हस्तक्षेप नहीं कर सकता। तो जान, ओ जैनी कि इस समय तेरी अवस्था अत्यन्त दुर्बल है क्योंकि मुकद्दमा के विवरण से यह स्पष्ट है कि तू ने जान बूझ कर प्रतिवादी के प्राण लेने की चेष्टा की और इस भाँति उस आपत्ति में, जिसका मैं ऊपर वर्णन कर चुका हूँ, फँसा है। इसलिए तुझको उचित है कि मण्डलेश्वर के चरणों पर सिर पर रख कर दया की प्रार्थना कर।
गिरीश : सुन जैनी, मैं तुझे एक उपाय बताऊँ; मण्डलेश्वर से निवेदन कर कि तुझे आप फाँसी लगाकर मर जाने की आज्ञा दें। परन्तु तेरी धन सम्पत्ति तो छीन ली जायेगी अब तेरे पास इतना बचेगा कहाँ कि रस्सी मोल ले सके, इसलिए तुझको राजा ही के व्यय से फाँसी देनी पड़ेगी।
मण्डलेश्वर: जिसमें तुझे हमारे और अपने स्वभाव में अन्दर जान पड़े मैंने बेमाँगे तेरा जी बचा दिया। अब रही तेरी सम्पत्ति सो उसमें से आधी तो अनन्त की हो चुकी और आधी राज्य की, जिसके पलटे में यदि तू दीनता प्रकाश करेगा तो दण्ड ले लिया जायेगा।
पुरश्री : अर्थात् जितना राज्यांश है उसके बदले में, अनन्त के भाग से कुछ प्रयोजन नहीं।
शैलाक्ष : नहीं मेरा प्राण और सब कुछ ले लीजिए, वह भी न क्षमा कीजिए। जब कि आप उस आधार को जिस पर मेरा घर खड़ा है लिए लेते हैं तो मेरे घर को पहले ले चुके, इस भाँति जबकि आपने मेरे जीवन का आधार छीन लिया तो मानो मेरा प्राण पहले ले चुके।
पुरश्री : अनन्त तुम उसके साथ कितनी दया कर सकते हो।
गिरीश : भगवान के वास्ते सिवाय एक रस्सी के जिससे वह फाँसी लगाकर मर सके और कुछ व्यर्थ न देना।
अनन्त : मैं मण्डलेश्वर और राजसभा से विनती करता हूँ कि उसके अर्धभाग के बदले का दण्ड मैं इस शर्त पर देने को प्रस्तुत हँू कि वह भाग शैलाक्ष मेरे पास धरोहर की भाँति जमा रहने दे, जिसमें उसके मरने पर जो मनुष्य हाल में उसकी लड़की को ले भागा है उसको सौंप दूँ। परन्तु इसके साथ दो प्रण हैं अर्थात् पहले तो वह इस बर्ताव के लिए आर्य हो जाए और दूसरे इस समय सभा में एक दानपत्र इस आशय का लिख दे कि उसके मरने पर उसकी सारी सम्पत्ति उसके जामाता लवंग और उसकी लड़की को मिले।
मण्डलेश्वर: उसे यह करना पड़ेगा, नहीं तो मैंने जो क्षमा की आज्ञा अभी दी है उसे काट देता हूँ।
पुरश्री : क्यों जैनी तू इस पर प्रसन्न है, कह क्या कहता है?
शैलाक्ष : मैं प्रसन्न हूँ।
पुरश्री : लेखक अभी एक दानपत्र लिखो।
शैलाक्ष : भगवान् के निहोरे मुझे यहाँ से जाने की आज्ञा दीजिए, मेरी बुरी दशा है। पाण्डुलिपि मेरे मकान पर भेज दीजिए मैं हस्ताक्षर कर दूँगा।
मण्डलेश्वर : अच्छा जा, परन्तु हस्ताक्षर कर देना।
गिरीश : आर्य होने से तेरे दो धर्म बाप होंगे। कदाचित मैं न्यायकर्ता होता तो दस और होते जिसमें तुझे आर्य करने के लिए मंदिर भेजने के बदले में सूली पर पहुँचा देते।
(शैलाक्ष जाता है)
मण्डलेश्वर : महाशय मैं प्रार्थना करता हूँ कि आज आप मेरे साथ भोजन करें।
पुरश्री : महाराज मुझे क्षमा करें, मुझे आज ही रात को पाण्डुपुर जाना है और यह अत्यन्त आवश्यक है कि मैं अभी चला जाऊँ।
मण्डलेश्वर: मैं खेद करता हूँ कि आपको अवकाश नहीं है। अनन्त इनका भली भाँति सत्कार करो क्योंकि मेरी जान तुम पर इनका बड़ा उपकार है।
(मण्डलेश्वर, बड़े बड़े प्रधान और उनके चाकर जाते हैं)
बसन्त : ऐ मेरे सुयोग्य उपकारी, आज मैं और मेरे मित्र आपके बुद्धि वैभव से आपत्ति से मुक्त हुए, जिसके बदले छ सहस्र मुद्रा को जैन के पाने थे मैं बड़ी प्रसन्नता से आप की भेंट करता हूँ क्योंकि आपने हमारे निमित्त कष्ट सहन किया है।
अनन्त : और इनके अतिरिक्त हम लोग जन्म भर तन मन से आपके दास बने रहेंगे।
पुरश्री : जिस मनुष्य का चित्त अपने किए पर तुष्ट हुआ उसने अपनी सारी मजदूरी भरपाई और मेरे चित्त को इस बात की बड़ी प्रसन्नता है कि आप मेरे द्वारा मुक्त हुए, इससे मैं समझता हूँ कि आपने मुझको सब कुछ दिया। मेरे चित्त में आज तक मिहनताना पाने का ध्यान नहीं हुआ है, क्योंकि मुझे किराये के टट्टई बनने से घृणा है। कृपापूर्वक जब मेरा आपका कभी फिर साक्षात् हो तो मुझे स्मरण रखियेगा। ईश्वर आपकी रक्षा करें, अब मैं विदा होता हूँ।
बसन्त : महाशय मेरा धर्म है कि इस बारे में आपसे फिर प्रार्थना करूँ, कृपा करके कोई वस्तु हम लोगों के स्मरणार्थ मिहनताने करके नहीं वरंच एक स्मारक चिन्ह की भाँति स्वीकार कीजिए। मेरी प्रार्थना है कि आप मेरी दो बातें स्वीकार करें, एक तो यह है कि आप मेरी प्रार्थना को स्वीकार करें और दूसरे मेरी धृष्टता को क्षमा करें।
पुरश्री : आप मुझे अत्यन्त दबाते हैं इसलिये अब अधिक अस्वीकार करना निश्शीलता है। अच्छा एक तो मुझे आप अपने दस्ताने दें, मैं उन्हें आपकी प्रसन्नता के लिये पहनूँगा और दूसरे आपके स्नेह के चिद्द में इस अँगूठी को लूंगा। हाथ न खींचिए, मैं और कुछ न लूँगा पर मुझे निश्चय है कि आप मेरे स्नेह के निहोरे इसके देने में अनúीगार न करेंगे।
बसन्त : यह अंगूठी महाशय! खेद, यह तो एक अत्यन्त तुच्छ वस्तु है मुझे आप को देते लज्जा आती है।
पुरश्री : मैं इसको छोड़ और कुछ कदापि न लूँगा और मुख्य करके मेरा जी इसके लेने को बहुत ही चाहता है।
बसन्त : मैं इसके मोल लेने के ध्यान से वह बातचीत नहीं करता, इसमें कुछ और ही भेद है। वंशनगर के राज्य में जो अँगूठी सब से अधिक मूल्य की होगी उसे मैं सूचना देकर मँगवाऊँगा और आप के अर्पण करूँगा पर केवल इस अँगूठी के लिये आप मुझे क्षमा करें।
पुरश्री : बस महाशय बस, मैंने समझ लिया कि आप बातों के बड़े धनी हैं। पहले तो आपने मुझे भीख माँगना सिखलाया और अब यह ढंग बताते हैं कि भिखमंगे को किस भांति टालना चाहिए।
बसन्त : मेरे सुहृद, यह अँगूठी मुझे मेरी स्त्री ने दी थी और जिस समय कि उसने इसे मेरी उँगली में पहनायी तो मुझ से इस बात की प्रतिज्ञा ले ली कि न तो मैं इसे कभी बेचूँ, न किसी को दूँ और न खोऊँ।
पुरश्री : इस भाँति के चुटकुले प्रायः बहाना करने वालों के पास गढ़े गढ़ाए रहते हैं। यदि आपकी स्त्री पागल न होगी तो वह इस बात के कह लेने पर कि मैंने आप के साथ इस अँगूठी की लागत से कितना बढ़ कर सुलूक किया, इसके दे डालने पर आप से सदा के लिये शत्रुता कदापि न ठान लेंगी। अच्छा मेरा प्रणाम लीजिए।
(पुरश्री और नरश्री जाती हैं)
अनन्त : मेरे सुहृद बसन्त अँगूठी उन्हें दे दो। इस समय उनकी उपकार और मेरी प्रीति को अपनी स्त्री की आज्ञा से बढ़ कर समझो।
बसन्त : जाओ गिरीश, दौड़ कर उन तक पहुँचो, यह अँगूठी उनको भेंट करो और यदि बन पड़े तो उन्हें किसी भाँति अनन्त के घर पर लाओ, बस अब चले ही जाओ देर न करो! (गिरीश जाता है) आओ हम तुम भी वहीं चलें, कल बड़े तड़के हम दोनों विल्वमठ की ओर चलेंगे, आओ अनन्त।
(दोनों जाते हैं)


दूसरा दृश्य
स्थान-वंशनगर की एक सड़क
(पुरश्री और नरश्री आती हैं)
पुरश्री : जैन के घर का पता लगा कर उससे झटपट इस पाण्डुलिपि पर हस्ताक्षर करा लो। हम लोग आज ही रात को चलते होंगे, जिसमें अपने पति से एक दिन पहले घर पहुँच रहें लवंग इस लिपि को देखकर अत्यन्त प्रसन्न होगा।
(गिरीश आता है)
गिरीश : महाराज बड़ी बात हुई कि आप मिल गए। मेरे मालिक वसन्त ने अन्ततः सोच समझ कर वह अँगूठी आप की सेवा में भेजी है और प्रार्थना की है कि आज आप उन्हीं के साथ भोजन करें।
पुरश्री : मैं असमर्थ हूँ, हाँ उनकी अँगूठी मैंने सिर आँखों से स्वीकार की। तुम मेरी ओर से जाकर विनती कर देना। अब तुम इतनी कृपा और करो कि मेरे लेखक को शैलाक्ष का घर दिखला दो।
गिरीश : मैं प्रस्तुत हूँ।
नरश्री : (पुरश्री से) महाशय मैं आप से कुछ विनय किया चाहता हूँ। (अलग ले जाकर कहती है) देखिए मैं भी अपने पति की अँगूठी लेने का यत्न करती हूँ। मुझसे उन्होंने शपथ खाई थी कि में उसे जन्म भर अपने से पृथक् न करूँगा।
पुरश्री : अवश्य, चूकियो मत, हम लोगों को अच्छा अवसर हाथ आएगा। यह लोग शपथ खायँगे कि हमने अँगूठी पुरुषों को दी है परन्तु हम लोग उनकी एक न मानेंगी और आप सौगन्ध खाकर उन्हें झूठा बना लेंगी। बस अब चली ही जाव, तुम जानती हो जहाँ मैं ठहरी रहूँगी।
नरश्री : आइए महाशय, मुझे वह घर बतला दीजिए।
(दोनों जाते हैं)
पाँचवाँ अंक

पहिला दृश्य
स्थान-विल्वमठ, पुश्री के घर का प्रवेशद्वार
(लवंग और जसोदा आते हैं)
लवंग : आहा! चाँदनी क्या आनन्द दिखा रही है! मेरे जान ऐसी ही रात में जब कि वायु इतना मन्द चल रहा था कि वृक्षों के पत्तों का शब्द तक सुनाई न देता था, त्रिविक्रम दुर्ग की भीत पर चढ़ कर कामिनी की राह ताकता हुआ, जो यवनपुर के खेमे में थी, हृदय से ठण्डी साँस निकाल रहा था।
जसोदा : ऐसी ही रात में कादम्बिनी ओस पड़ी हुई घास पर डर डर कर कदम रखती थी कि यकायक सिंह की पर्छांई सामने देखकर बेचारी भय से भाग गई।
लवंग : ऐसी ही रात में जयलक्ष्मी समुद्र के किनारे खड़ी होकर छड़ी से अपने प्यारे को कामपुर लौट आने के लिये संकेत करती थी।
जसोदा : ऐसी ही रात में मालिनी ने जड़ी बूटियों को जंगल में एकत्र किया था, जिनके प्रभाव से बूढ़ा पुरुष जवान हो गया।
लवंग : ऐसी ही रात में जसोदा अपने समृद्ध पिता के घर से निकल भागी और एक दरिद्र पे्रमी के साथ वंशनगर से विल्वमठ को चली आई।
जसोदा : ऐसी ही रात में लवंग ने उससे चित्त से प्रेम करने की सौगन्ध खाई और निर्वाह का प्रण करके उसका मन छीन लिया परन्तु एक भी सच्चे न निकले।
लवंग : ऐसी ही रात में कामिनी जसोदा ने दुष्टता से अपने प्रेमी पर दोष लगाया और उसने कुछ न कहा।
जसोदा : क्या कहूँ मैं तो तुम को बात ही बात में बेबात कर देती यदि कोई आता न होता। देखो मुझे किसी के पैर की आहट जान पड़ती है।
(तूफानी आता है)
लवंग : रात के ऐसे सन्नाटे में कौन इतना शीघ्र चला आता है!
तूफानी : मैं हूँ, आप का एक मित्र।
लवंग : ऐं, मित्र? कैसे मित्र? भला मित्र, कृपा करके अपना नाम तो बताओ।
तूफानी : मेरा नाम तूफानी है। मैं यह समाचार लाया हूँ कि मेरा स्वामिनी आज मुँह अँधेरे विल्वमठ में पहुँच जायँगी। वह मंदिरों में घुटने के बल विवाह मंगल होने की प्रार्थना कर रही हैं।
लवंग : उनके साथ और कौन आता है?
तूफानी : कोई नहीं, केवल वह आप एक जोगिन के भेष में और उनकी सहेली। पर यह तो कहिए कि हमारे स्वामी अभी तक लौट आए या नहीं।
लवंग : न वह आए हैं न कुछ उनका हाल विदित हुआ है। पर आओ जसोदा हम तुम भीतर चलकर घर के स्वामी के शिष्टाचार का प्रबन्ध कर रक्खें।
(गोप आता है)
गोप : धूतू धूतू पिपी धूतू धूतू!
लवंग : कौन पुकारता है?
गोप : धूतू धूतू! तुम जानते हो कि लवंग महाशय और उनकी स्त्री कहाँ हैं? धूतू धूतू!
लवंग : अरे कान न फोड़े डाल, इधर आ।
गोप : धूतू धूतू! किधर? किधर?
लवंग : यहाँ।
गोप : उनसे कह दो कि मेरे स्वामी के पास से एक दूत आया है जिसकी तुरुही मंगल समाचारों से भरी हुई है, वह सवेरा होते होते यहाँ पहुँच जायँगे।
लवंग : प्यारी आओ, घर में चल कर उनके आने की राह देखें, या अच्छा यहीं बैठी रहो भीतर जाने की कौन सी आवश्यकता है। भाई तूफानी नेक भीतर जाकर लोगों से जना दो कि तुम्हारी स्वामिनी आती हैं और अपने साथ गवैयों को बाहर बुलाते लाओ।
(तूफानी जाता है)
इस बुरुज पर चाँदनी कैसी छिटक रही! आओ हम बैठकर गाना सुनें। एक तो सन्नाटा मैदान और दूसरे रात, यह दोनों राग का आनन्द दूना बढ़ा देेते हैं। बैठो जसोदा, देखो तो आकाश क्या शोभा दिखला रहा है, यह प्रतीत होता है कि मानो उसमें हजारों सोने के कुंकुमे लटकते हैं। जितने यह दृष्टि आते हैं इनमें से छोटे से छोटे की चाल से भी देवताओं के राग का सा शब्द आता है, मानो वह उनके शब्द के सात सुर मिलाते हैं। ऐसा ही सुरीलापन मनुष्य की निश्शब्द आत्मा में भी है परन्तु वह इस भौतिक वस्त्र को, जो नष्ट हो जाने वाला है, पहने है इसलिये हम उसके मीठे राग को सुन नहीं सकते।
(गाने बजाने वाले आते हैं)
इधर आओ और कोई राग ऐसा छेड़ो कि तानसेन भी नींद से चैंक उठे और जब तुम्हारे मीठे सुरों का आलाप तुम्हारी स्वामिनी के कान तक पहुँचे तो वह भी विवश होकर घर की ओर दौड़ी आवें।
जसोदा : मैं तो जिस समय अच्छा राग सुनती हूँ सब सुध बुध दूर भाग जाती है।
(लोग गाते हैं)
लवंग : इसका कारण यह है कि तुम अपना ध्यान जमाती और उस पर सोचती हैं। तुमने देखा होगा कि नये सीधे बछड़े जिन्हें किसी ने हाथ तक न लगाया हो आपस में क्या क्या कुलेलें करते, छलाँगें मारते और हिनहिनाते हैं जिससे उनके रुधिर की गर्मी जानी जाती है। परन्तु यदि संयोग से उनके सामने तुरुही या किसी दूसरे प्रकार का बाजा बजाया जाय तो यह शीघ्र ही सबके सब ठठक कर खड़े हो जायँगे और राग के प्रभाव से कुछ देर के लिये उनकी घबड़ाहट दूर हो जायगी। एक कवि का कथन ठीक है कि तानसेन के गाने का प्रभाव वृक्ष, पत्थर, जल पर भी होता था क्योंकि कोई वस्तु ऐसी कठोर और भयानक नहीं जिसकी प्रकृति-स्वभाव को अधिक नहीं तो थोड़ी ही देर के लिये राग बदल न देता हो। जिस मनुष्य के गाने का आनन्द नहीं और जिसके जी पर सुरीले शब्द का प्रभाव नहीं होता उससे अत्याचार, छल और चोरी इत्यािद जो कुछ न हो सब थोड़ा है क्योंकि ऐसे मनुष्य का चित्त नरक से अधिक अंधा और भ्रष्ट और बुरा होता है और वह कदापि विश्वास के योग्य नहीं होता। तुम ध्यान देकर गाना सुनो।
(पुरश्री और नरश्री कुछ दूर पर चली आती हैं)
पुरश्री : वह प्रकाश जो सामने दृष्टि पड़ता है मेरे ही दालान में हो रहा है। देखो तो एक छोटे से दीपक का प्रकाश कितनी दूर तक फैला हुआ है। इसी भाँति संसार में शुभकर्म चमकता है।
नरश्री : जब चाँदनी थी तो यह प्रकाश जान नहीं पड़ता था।
पुरश्री : इसी भाँति बड़ा तेज अपने सामने छोटे तेज को दबा लेता है। किसी कवि ने कितना ठीक कहा है-दिये (दीपकों) को तो प्रकट में चमक है, पर दिये (दान) का प्रकाश परलोक में भी है। राजा की अनुपस्थिति में उसके प्रतिनिधि ही की प्रतिष्ठा राजा के समान होती हैं परन्तु उसके सामने जैसे नदी की समुद्र के सामने कुछ गिनती नही उसका भी कोई मान नहीं होता। ऐं देखो, कहीं से गाने का शब्द आता है!
नरश्री : सखी यह आप ही के महल में गाना हो रहा है।
पुरश्री : इसमें सन्देह नहीं कि हर वस्तु के लिये एक नियत काल है और उसी समय वह भली जान पड़ती है। मेरी सम्मति में इस समय गाना दिन की अपेक्षा अधिक मनोहर होता है।
नरश्री : सखी यह आनन्द एकान्त के कारण से प्राप्त हुआ है।
पुरश्री : यदि कोई कान ही न दे तो कौवे का शब्द वैसा ही कोमल और मधुर है जैसा कोयल का और मेरी सम्मति में दिन को जब कि बत्तक काँव-काँव कर रही हों, बुलबुल हजार दास्ताँ का चहचहाना कोलाहल से बुरा है। कितनी वस्तुओं की सुन्दरता और उत्तमता समय ही पर जानी जाती है। बस बन्द करो, चन्द्रमा समुद्र के साथ सोने को गया और अभी उसकी आँख नहीं खुलने की।
(गाना बन्द हो गया)
लवंग : यदि मेरे कानों ने त्रुटि न की तो यह शब्द पुरश्री का है!
पुरश्री : मेरा शब्द तो इस समय मानो अंधे के लिये लकड़ी हो गया।
लवंग : ऐ मान्य सखी, आपके कुशलतापूर्वक लौट आने पर धन्यवाद देता हूँ।
पुरश्री : हम लोग अपने अपने स्वामी की कुशलता की प्रार्थना करती थीं और हम आशा करती हैं कि हमारी प्रार्थना स्वीकार हुई। वह लोग आए?
लवंग : इस समय तक तो नहीं आए हैं परन्तु उनके पास से अभी एक दूत समाचार लाया है कि वह लोग निकट ही हैं।
पुरश्री : नरश्री भीतर जाकर नौकरों से कह दो कि वह हमारे बाहर जाने के विषय में किसी से कुछ न कहें, लवंग तुम भी ध्यान रखना और तुम भी स्मरण रखना जसोदा।
(तुरुही की ध्वनि सुनाई देती है)
लवंग : आपके पति आन पहुँचे, मेरे कान में उनकी तुहही का शब्द आता है। हम लोग लुतरे नहीं हैं, आप तनिक भय न कीजिए।
पुरश्री : आज के सबेरे की दशा तो कुछ पीड़ित सी जान पड़ती है क्योंकि उसके मुंह पर नियम से अधिक पियराई छा रही है जैसा कि सूर्यास्त के समय दृष्टि आती है।
(बसन्त, अनन्त, गिरीश और उनके नौकर चाकर आते हैं)
बसन्त : यदि सूर्यास्त होने पर आप घूँघट उलट कर निकल आएँ तो हमको उसके अस्त होने की कुछ चिन्ता न हो।
पुरश्री : ईश्वर करे मुख की कान्ति आपको प्रकाशित कर सके परन्तु मेरी गति में चमक न आए क्योंकि चमक मटक छिछोरेपन का चिद्द है जिसका परिणाम यह होता है कि अन्त को स्वामी के चित्त में अपनी स्त्री की ओर से एक चमक आ जाती है, इसलिये ईश्वर मुझको इस आपत्ति से बचाए। आपका जाना हम लोगों को शुभंकर हो।
बसन्त : प्यारी मैं तुझे धन्यवाद देता हूँ, पर इस समय तुम मेरे मित्र के आने पर प्रसन्नता प्रकट करो। यही अनन्त है जिनका मैं अन्तःकरण से अत्यन्त उपकृत हूँ।
पुरश्री : इसमें कोई सन्देह है, आपको अवश्य उपकार मानना चाहिए क्योंकि जहाँ तक मैंने सुना है उन्होंने आप के साथ बड़ा उपकार किया है।
अनन्त : आप लोग इस कहने से मुझे व्यर्थ लज्जित करते हैं, मैंने तो जो कुछ सेवा की होगी उससे कहीं अधिक भर पाया।
पुरश्री : महाशय आपके पधारने से हमारे घर की शोभा और हम लोगों की प्रसन्नता दूनी हुई परन्तु मुख से कहना बनावट है और मैं अपने आन्तरिक हर्ष को बनावट की आवश्यकता नहीं समझती।
(गिरीश और नरश्री पृथक् बात करते जान पड़ते हैं)
अनन्त : शपथ है अपने प्राण की तुम मुझ पर झूठा दोष लगाती हो, मैंने सचमुच उसे न्यायकर्ता के लेेखक को दिया।
पुरश्री : वाह वाह आते ही झगड़ा होने लगा! यह क्या बात है।
गिरीश : एक सोने के छल्ले के लिये, एक टके की मुँदरी के लिये जो आपने दी थी और जिस पर यह वाक्य खुदा था जैसा प्रायः बिसातियों की छुरियों पर लिखा होता है-मुझसे स्नेह रक्खो और कभी जुदा न हो’।
नरश्री : तुम लिखने और मूल्य का क्या कहते हो। क्या तुमने लेने के समय शपथ नहीं खाई थी कि मैं उसे आमरण अपनी उँगली में रक्खूँगा और वह मेरे साथ समाधि में जायगी? यदि मेरा कुछ ध्यान न था तो भला अपनी कठिन सौगन्धों का तो ध्यान करते। हंह! न्यायी के लेखक को दिया! मैं भली भाँति जानती हूँ कि जिस लेखक को तुम ने दिया है उसके मुँह पर दाढ़ी कभी न निकलेगी।
गिरीश : क्यों नहीं, जब वह पूर्ण युवा होगा तो अवश्य निकलेगी।
नरश्री : हाँ, यदि स्त्री पुरुष हो सकती हो।
गिरीश : शपथ भगवान की, मैंने उसे एक लड़के को दिया, एक मझले कद के छोकरे को जो तुम से ऊँचा न था। यही विचारपति का लेखक था। उसने ऐसी मीठी मीठी बातें करके अँगूठी पारितोषिक में माँगी कि मैं अनंगीकार न कर सका और उसको सौंपते ही बनी।
पुरश्री : सुनो साहिब मैं स्पष्ट कहती हूँ कि इस विषय में सब दोष तुम पर है कि एक लड़के की बातों में आकर अपनी स्त्री का दिया हुआ पहला चिन्ह उसे दे डाला और वह वस्तु, जिस पर तुमने अपनी उँगली में पहनने के समय सौगन्ध की बौछार मचा दी थी और प्रतिज्ञा के ढेर लगा दिए थे, ऐसे सहज में दे डाली। मैंने भी अपने प्यारे स्वामी को एक अँगूठी दी है और उसने शपथ ले ली है कि उसे कभी जुदा न करे। यह देखिए यहाँ उपस्थित हैं। परन्तु उनकी सन्ती मैं शपथ खा सकती हूँ कि यदि कोई उन्हें कुबेर का भण्डार भी अर्पण करे तो यह उसे अपनी उँगली से न उतारें, दे डालना तो दूर है। तात्पर्य यह है कि गिरीश तुम ने अपनी स्त्री को व्यर्थ इतना बड़ा दुःख दिया। यदि मैं उसके स्थानापन्न होती तो इस समय क्रोध के मारे पागल हो जाती।
बसन्त : (आप ही आप) इस समय इससे उत्तम कोई उपाय नहीं कि मैं अपना बायाँ हाथ काट डालूँ और शपथ खा लूँ कि जहाँ तक बस चला रक्षा की परन्तु अन्त को जब हाथ कट गया तो उसी के साथ अँगूठी भी गई।
गिरीश : मेरे स्वामी बसन्त ने अपनी अँगूठी विचाराधीश को उसकी प्रार्थना पर दे दी और निस्सन्देह उसने काम भी ऐसा ही किया था। इस पर उसके लेखक ने लिखाई की सन्ती मेरी अँगूठी माँगी और अभाग्य यह है कि उसे और उसके स्वामी दोनों को इस बात का आग्रह हुआ कि सिवाय इन अँगूठियों के और कोई वस्तु हाथ से न छुएँगे।
पुरश्री : क्यों साहब आपने कौन सी अँगूठी दी? वह तो काहे को दी होगी जो आपने मुझ से पाई थी।
बसन्त : यदि मुझे झूठ बोल कर अपने अपराध को दूना कर देना स्वीकार हो तो हाँ निस्सन्देह अस्वीकार करूँ परन्तु तुम देखती हो कि मेरी उँगली में अँगूठी नहीं है, वह जाती रही।
नरश्री : ऐसे ही आपका निर्दय चित्त भी स्नेह से शून्य है। शपथ भगवान की, जब तक आप मेरी अँगूठी मेरे सामने लाकर न रखिएगा मैं आपके साथ अंक में सोना पाप समझूँगी।
पुरश्री : और मैं भी जब तक अपनी अँगूठी देख न लूंगी आपसे बात न करूँगी।
गिरीश से,
बसन्त : मेरी प्यारी पुरश्री, यदि तुम्हें विदित हो कि मैंने अँगूठी किसे दी, किसके लिये क्यों दी और कैसी निर्वशता से दी जब कि वह पुरुष सिवा उस अँगूठी के दूसरी वस्तु के लेने पर प्रसन्न ही नहीं होता था तो तुम्हारा क्रोध इतना न रह जाय।
पुरश्री : यदि आप को अँगूठी का गौरव विदित होता, या आपने उसके देने वाली को आधा भी दिया होता, या अपनी बात का कि मैं सदा अँगूठी प्राण सदृश रक्खूँगा नेक भी विचार किया होता तो आप उसे कभी अपने से जुदा न करते। भला कौन ऐसा मूर्ख होगा कि आप से निर्लज्जता के साथ एक रीति की वस्तु को माँग ले जाता, यदि आप ने कुछ भी चित्त से उसके न देने का यत्न किया होता। नरश्री का विचार मुझे यथार्थ प्रतीत होता है, मैं शपथ खा सकती हूँ कि आप ने अँगूठी अवश्य किसी स्त्री को दी।
बसन्त : प्यारी, मैं अपनी प्रतिष्ठा, अपने प्राण की शपथ खाकर कहता हूँ कि मैंने उसे किसी स्त्री को नहीं दिया वरंच एक वकील को, जिसने छ हजार रुपया लेना अस्वीकार किया और केवल वह अँगूठी माँगी। फिर भी मैंने निवेदन किया और उसे अप्रसन्न होकर चले जाने दिया यद्यपि यह वह पुरुष था जिसने मेरे प्यारे मित्र की जान बचाई थी। मेरी प्यारी तुम ही बतलाओ कि मैं क्या करता? मेरे शील ने सहन न किया कि ऐसे उपकारी को अप्रसन्न करूँ, मुझे बड़ी लज्जा पर्दे पड़ी और स्वभाव इस बात को सह न सका कि मैं अपनी मर्यादा में कृतघ्नता का धब्बा लगाऊँ। अन्त को मुझे विवश होकर अँगूठी उसके पीछे भेज देनी पड़ी। मेरी प्यारी मेरा अपराध क्षमा करो। शपथ है यदि तुम वहाँ होती तो अँगूठी को मुझ से छीन कर उस योग्य वकील को सौंप देती।
पुरश्री : अच्छा अब उस वकील की ओर से सचेत रहना और उसको मेरे घर के निकट कदापि न फटकने देना क्योंकि जिस वस्तु से मुझको प्रीति थी और आपने मेरे निहोेरे सदा अपने पास रखने की शपथ खाई थी वह उसके हाथ में आ गई तो मैं भी आप की भाँति उदारता पर कमर बाँधूँगी और जो कुछ वह मुझसे माँगेगा उसके स्वीकार करने से मुँह न मोड़ूँगी। पहिचान तो मैं उसको लूँ हीगी, इसमें किसी भाँति का सन्देह नहीं। अब आप को उचित है कि कभी रात के समय घर से बाहर न जायँ और आठ पहर मेरी रक्षा करते रहें। यदि आपने मुझे किसी दिन अकेला छोड़ा तो शपथ है अपने लज्जा की जिस पर अब तक किसी पुरुष की परछाईं नहीं पड़ी है, मैं उस वकील को अपने पास सुला लूँगी।
नरश्री : और मैं उसके लेखक को, इस लिये सावधान कभी मुझको मेरे भरोसे पर छोड़ कर न जाना।
गिरीश : अच्छा जैसा तुम्हारा जी चाहे करो, पर उस अवस्था में उसे मेरे पंजे से बचाए रहना नहीं तो लेखक साहब की लेखनी पर आपत्ति आ जायगी।
अनन्त : मैं ही अभागा इन झगड़ों का कारण हूँ।
पुरश्री : आप न उदास हूजिए, आपके आने की मुझे बड़ी प्रसन्नता है।
बसन्त : पुरश्री, इस बार मेरा अपराध जो निरी निर्वशता की अवस्था में हुआ क्षमा कर दो और अब मैं इन सब मित्रों के सामने तुमसे प्रतिज्ञा करता हूँ वरंच तुम्हारी आँखों की जिनमें मेरा प्रतिबिंब दृष्टि पड़ता है शपथ कर कहता हूँ कि-
पुरश्री : देखिए नेक आप लोग इस बात को विचारिए, वह मेरे दो नेत्रों में अपना दुहरा प्रतिबिंब देखते हैं यानी हर नेत्र में एक, इसलिये आप अपनी दुहरी सूरत की शपथ खाइए तो हाँ विश्वास हो।
बसन्त : अच्छा थोड़ा मेरी सुन लो। इस अपराध को क्षमा करो और अब मैं अपने जीवन की सौगन्ध खाता हूँ कि अब फिर कभी तुम्हारे सामने प्रतिज्ञा से भ्रष्ट न हूँगा।
अनन्त : मैंने एक बार रुपयों के बदले अपना शरीर इनके लिये धरोहर रक्खा था और यदि वह मनुष्य, जिसने आपके स्वामी की अँगूठी ली, न होता तो यह अब तक कभी का नष्ट हो गया होता। अब मैं इस बार अपने प्राण को जमानत में दे करके प्रतिज्ञा करता हूँ कि आपके स्वामी फिर कभी जान बूझ कर अपना वचन न तोड़ेंगे।
पुरश्री : तो मैं आपको उनका जामिन समझूँगी। अच्छा उन्हें यह अँगूठी दीजिए और शपथ ले लीजिए कि इसको पहली से अधिक सावधानी के साथ रक्खें।
अनन्त : लो बसन्त इसको लो और शपथ खाओ।
बसन्त : शपथ भगवान की यह वही अँगूठी है, जो मैंने उस वकील को दी थी।
पुरश्री : और मैंने भी तो उसी से पाई। बसन्त मुझे क्षमा करना क्योंकि इसी अँगूठी के स्वत्व से वह मेरे साथ आकर सोया था।
नरश्री : और मेरे सुहृद गिरीश आप भी मेरा अपराध क्षमा करें क्योंकि वही मझलाकद वकील का लेखक इस अँगूठी के बदले कल रात को मेरे साथ सोया हुआ था।
गिरीश : ऐं, यह तो मानो भरी बरसात में खेत को कुएँ के पानी से सींचना है। क्या हम लोगों में कोई दोष पाया जो हमारी स्त्रियों ने हमें अपना भँडुआ बनाया।
पुरश्री : इतनी असभ्यता से मत बको। आप लोग चकित हो गए। लीजिए यह पत्र पाण्डुपुर से बलवन्त के पास से आया है, इसे अवकाश के समय पढ़ियेगा, उससे आपको विदित होगा कि पुरश्री वकील थी और नरश्री उसकी लेखक। लवंग उपस्थित है वह साक्षी ही देंगे कि ज्योंही आप सिधारे मैं भी उसी क्षण चल दी और अभी चली आती हूँ, यहाँ तक कि घर में पैर नहीं रक्खा। अनन्त महाराज आपका आगमन मंगल, मैं आपको वह समाचार सुनाती हूँ जिसका आपको स्वप्न में भी ध्यान न होगा। इस पत्र की मुहर तोड़ कर पढ़िये, इसमें आप देखिएगा कि आपके तीन जहाज अनमोल माल से लदे हुए घाट (बन्दरगाह) में आ गए हैं। परन्तु मैं आपको यह न बतलाऊँगी कि मेरे हाथ यह पत्र क्योंकर लगा।
अनन्त : मेरे मुख से तो शब्द नहीं निकलता।
बसन्त : आप ही वकील थीं और मैंने पहचाना तक नहीं!
गिरीश : आप ही वह लेखक हैं जो मुझे जोरू का भँडुआ बनाया चाहती थीं?
नरश्री : जी हाँ, पर वह लेखक जिसकी इच्छा कभी ऐसा करने की नहीं परन्तु हाँ उस अवस्था में कि वह स्त्री से पुरुष बन सके।
बसन्त : मेरे सुहृद वकील अब आपको मेरे साथ सोना होगा और जब मैं न रहूँ उस समय मेरी स्त्री के साथ सोइए।
अनन्त : बबुई आपने जीवन और उसकी सामग्री दोनों मुझे दी, क्योंकि इस पत्र से विदित हुआ कि वास्तव में मेरे जहाज कुशलता के साथ बन्दरगाह में आ गए।
पुरश्री : लवंग, मेरे लेखक के पास आपके लिये भी कुछ सौगात प्रस्तुत है।
नरश्री : और मैं आपको बिना लिखाई लिए सौंपती हूँ, लीजिये यह उस धनी जैनी ने आपको और जसोदा को एक दानपत्र अपनी सारी संपत्ति का लिख दिया है, जिसके आप लोग उसके मरने पर उत्तराधिकारी होंगे।
लवंग : महाशय जी, यह मानो भूखों के सामने मोहनभोग का ढेर लगा देना है।
पुरश्री : सबेरा हो गया अब तक मेरी जान में आप लोगों को इन सब बातों के विषय पूरा तोष नहीं हुआ, इसलिये उचित होगा कि भीतर चल कर जो जो सन्देह हों उनके विषय मुझसे प्रश्न कीजिए और ब्योरेवार वृत्तान्त सुनिए।
गिरीश : बहुत ठीक-
है जब तक मेरे दम में दम डरूँगा हर घड़ी हर दम।
रहेगा रात दिन खटका नरश्री की अँगूठी का।

(सब जाते हैं)
इति


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