जसबीर कलरवि की कविता- कवि.....
जसबीर कलरवि की कविता- कवि.....
कवि ------------
यह अपने आप में अनहोनी घटना
है के वो सारी उमर लिखता रहा
कभी नज़्म ,कभी ग़ज़ल और कभी कभी ख़त कोई ...
पर यह सच है उसकी कोई भी लिखत
ना किसी किताब ने संभाली न किसी हसीना के थरकते होठों ने ... ।
वो लिखता क्या था मैं आज आपको बताता हूँ
वो लिखता था एक कथा जो जन्म से पहले पिता के लिंग का मादा
था और फ़िर अपने बेटे के जिस्म में बसा ख़ुद वो ... ।
यह हंसती हुई गंभीर घटना तब शुरू
हुई जब उसने पहली बार पीड़ित देखा
अपने माथे पर चमकते चाँद के दाग का खौफ़ खौफ़ क्या था ?
बस यूँ ही जीए जाने की आदत का एहसास ... ।
वो बर्दाश्त नही करता था
अपनी सांस में उठती पीड़ा की हर नगन हँसी का
मजाक वो स्वीकार नही करता था इतिहास के किसी सफ़े पर अपने पिछले जन्म का पाप ... ।
उसका नित-नेम कोई कोरा -कागज़ था
और रोज़-मररा की
जरूरत हाथ में पकड़ी हादसाओं की कलम वो
बड़ी टेडी जिंदगी जी रहा था बे-मंजिल सफर सर कर रहा था
पर फिर भी वो जी रहा था लिख रहा था
और हर पल तैर रहा था शब्दों के बीचों -बीच आंखों के समंदर में ।
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