किसी ने कहा

एक दार्शनिक का कहना है कि - संसार में आधे उत्पात अनैतिकता के कारण और आधे मानसिक उद्विग्नता के कारण होते हैं । यदि आवेश एवं उद्वेग जैसी मानसिक दुर्बलता पर विजय प्राप्त कर ली जाय तो संसार में फैले हुये संकटों में से आधे तो तुरन्त ही समाप्त हो सकते हैं । अनैतिकता की तरह उद्विग्नता भी मानव जीवन के लिये समान रूप से हानिकारक है, इसलिए जहाँ हमें पापों को दूर करने और धर्म को बढ़ाने के लिये प्रयत्न करना है, वहाँ आवेश ग्रस्त होने के पागलपन को भी ध्यान में रखना है । यदि पाप मिट जाए और असहिष्णुता एवं तुनक मिजाजी इसी प्रकार बने रहे तो संसार की नारकीय स्थिति इसी प्रकार बनी रहेगी । गीताकार ने सुझाया है कि प्रत्येक विचारशील व्यक्ति को मानसिक संतुलन बनाये रहने का अभ्यासी होना चाहिये । प्रिय परिस्थितियों में न तो अहंकार एवं हर्षातिरेक में डूब जाना चाहिये और न थोड़ी सी प्रतिकूलता एवं अड़चन प्रस्तुत देखकर हड़बड़ा जाना चाहिये । दोनों ही स्थितियों में अपनी गंभीरता बनाये रखनी चाहिये और संसार के स्वरूप एवं प्रवाह को समझते हुये धैर्यपूर्वक सब कुछ सुनना, समझना और करना चाहिये ।

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