आडवाणी जी अजी भोजन पर तो आते
अजी भोजन पर तो आते
आज एक आर्टिकल पढ़ा था बड़प्पन के बारे में उसने भी कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया कि हां वाक्ई कहीं ऐसा तो नही कि मैं भी इसी बड़प्पन का शिकार हो रही हूं . खैर चलिए छोड़ते हैं बड़ी बड़ी बातों को छोटी छोटी आम बातें करते हैं जिन्हे बेवजह बड़ा बनाने की जुगत बिठाता रहता हैं मीडिया। एक नेता ने बयान दिया, बयान क्या दिया ,मानो मुसिबत मोल ले ली, मीडिया बयान को इतनी बार दिखाएगी कि एक बार दिया हुआ बयान ब्रह्मवाणी की तरह बार बार गूंजता हुआ सुनाई देगा। कई बार तो अपने मतलब के बयान को नेता के मुंह से बुलवाने के लिए , इस तरह की ऐडिटिंग की जाती हैं कि नेता वो ही एक बात बार बार दोहराते नज़र आते हैं मानों नेता ना हो , कोई चाबी वाला गुड्डा या गुड़ियां हो , जो चाबी खत्म होने तक वहीं दोहराते रहेंगे। और अनगिनत बार तो बतंगड़ उस बात का बनाया जाता हैं जो नेता बोलते नही बल्कि बोलने की तमन्ना रखते हैं , नेता बेचारे तो बात गले में घोटं लेते हैं लेकिन मीडिया हैं कि उंगली हल्क में डाल देती है, ऐसे में नेता ठहरे मंझे हुए खिलाड़ी कुछ नही उगलते , पर मीडिया अपना करिशमा दिखाने के लिए नेता के कुछ ना बोलने को भी अल्फाज़ दे देते हैं और अल्फाज़ भी ऐसे तीखे , ज़हर में बुझे हुए कि जिस पर निशाना लगाए उसे मार ही डाले । यानी मीडीया की बिचौली की वजह से नेता की खामोशी उनकी ज़ुबान से ज्यादा खॉतरनाक साबित होती है।
वैसे आपको क्या लगता हैं क्या नेता इतने सीधे होते हैं कि इस बात को ना समझे की उनकी खामोशी कितनी खतरनाक हो सकती है। यहीं तो आप चूक गए दरअसल नेता भी मीडिया की इस खूबी से बखूबी वाकिफ होते हैं , इसी लिए जब किसी पर ब्रह्मअस्त्र चलाने की ज़रूरत पेश आती हैं तो बस खामोशी का चोला औढ़ लेते हैं और फिर वार करती हैं मीडिया।
आज प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बीजेपी के पीएम इन वेटिंग लाल कृष्ण अडवाणी को देखकर जो मौन वृत धारण किया, उससे इतना हंगामा बरपा की शाम होते होते सोमनाथ दा की विदाई में प्रधानमंत्री के घर दिए गए रात्री भोज पर भी जाने की हिम्मत नही जुटा पाए बीजेपी के मज़बूत नेता आडवाणी जी। यूं इस खामोशी की मीडिया में खूब चीर फाड़ हुई, कही ना दुआ ना सलाम की फब्तियां कसी गई , कही कहां गया वो हैं ज़रा खफा खफा, कहने वालों ने तो ये भी कहा कि पी एम और पीएम इन वेटिंग के पास बात करने का कोई मुद्दा ही नही था तो बात क्या करते , लेकिन इस खामोशी ने एक नई बहस जरूर शुरु की – मनमोहन सिंह को लेकर , औऱ उस बहस का मौज़ू ये नही हैं कि मनमोहन ,कमज़ोर या ताकतवर बल्कि ये है कि क्या मनमोहन एक अर्थशास्त्री का चोला उतारकर एक निपुण राजनीतिज्ञ का चोला पहन रहे हैं।
आज एक आर्टिकल पढ़ा था बड़प्पन के बारे में उसने भी कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया कि हां वाक्ई कहीं ऐसा तो नही कि मैं भी इसी बड़प्पन का शिकार हो रही हूं . खैर चलिए छोड़ते हैं बड़ी बड़ी बातों को छोटी छोटी आम बातें करते हैं जिन्हे बेवजह बड़ा बनाने की जुगत बिठाता रहता हैं मीडिया। एक नेता ने बयान दिया, बयान क्या दिया ,मानो मुसिबत मोल ले ली, मीडिया बयान को इतनी बार दिखाएगी कि एक बार दिया हुआ बयान ब्रह्मवाणी की तरह बार बार गूंजता हुआ सुनाई देगा। कई बार तो अपने मतलब के बयान को नेता के मुंह से बुलवाने के लिए , इस तरह की ऐडिटिंग की जाती हैं कि नेता वो ही एक बात बार बार दोहराते नज़र आते हैं मानों नेता ना हो , कोई चाबी वाला गुड्डा या गुड़ियां हो , जो चाबी खत्म होने तक वहीं दोहराते रहेंगे। और अनगिनत बार तो बतंगड़ उस बात का बनाया जाता हैं जो नेता बोलते नही बल्कि बोलने की तमन्ना रखते हैं , नेता बेचारे तो बात गले में घोटं लेते हैं लेकिन मीडिया हैं कि उंगली हल्क में डाल देती है, ऐसे में नेता ठहरे मंझे हुए खिलाड़ी कुछ नही उगलते , पर मीडिया अपना करिशमा दिखाने के लिए नेता के कुछ ना बोलने को भी अल्फाज़ दे देते हैं और अल्फाज़ भी ऐसे तीखे , ज़हर में बुझे हुए कि जिस पर निशाना लगाए उसे मार ही डाले । यानी मीडीया की बिचौली की वजह से नेता की खामोशी उनकी ज़ुबान से ज्यादा खॉतरनाक साबित होती है।
वैसे आपको क्या लगता हैं क्या नेता इतने सीधे होते हैं कि इस बात को ना समझे की उनकी खामोशी कितनी खतरनाक हो सकती है। यहीं तो आप चूक गए दरअसल नेता भी मीडिया की इस खूबी से बखूबी वाकिफ होते हैं , इसी लिए जब किसी पर ब्रह्मअस्त्र चलाने की ज़रूरत पेश आती हैं तो बस खामोशी का चोला औढ़ लेते हैं और फिर वार करती हैं मीडिया।
आज प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बीजेपी के पीएम इन वेटिंग लाल कृष्ण अडवाणी को देखकर जो मौन वृत धारण किया, उससे इतना हंगामा बरपा की शाम होते होते सोमनाथ दा की विदाई में प्रधानमंत्री के घर दिए गए रात्री भोज पर भी जाने की हिम्मत नही जुटा पाए बीजेपी के मज़बूत नेता आडवाणी जी। यूं इस खामोशी की मीडिया में खूब चीर फाड़ हुई, कही ना दुआ ना सलाम की फब्तियां कसी गई , कही कहां गया वो हैं ज़रा खफा खफा, कहने वालों ने तो ये भी कहा कि पी एम और पीएम इन वेटिंग के पास बात करने का कोई मुद्दा ही नही था तो बात क्या करते , लेकिन इस खामोशी ने एक नई बहस जरूर शुरु की – मनमोहन सिंह को लेकर , औऱ उस बहस का मौज़ू ये नही हैं कि मनमोहन ,कमज़ोर या ताकतवर बल्कि ये है कि क्या मनमोहन एक अर्थशास्त्री का चोला उतारकर एक निपुण राजनीतिज्ञ का चोला पहन रहे हैं।
Comments
हितोपदेश के अनुसार शत्रु के घर भोजन नहीं करना चाहिये
अजी इसी लिये खाने पर नहीं गये