Posts

इस शाम ऐसे ही

मुझे हर बार एक बात का ग़म है मुझे हर रात उस उस बात का ग़म है.. सुब होते ही खो जाते हैं जब अपने मुझे बिखरे हुए गुलिस्तां का ग़म है सजो न पाया मैं कोई रिश्ता मुझे अपनो को, खोने का ग़म है.. ग़म न करो ऐ ग़मगीन हैदर इस दुनिया को तुम्हारे आने का ग़म है.।।

किसी ने कहा -8

मनुष्य भगवान की सर्वोत्तम कलाकृत्ति है । भगवान ने अपना यह सृजन बड़े मनोयोग और अरमानों के साथ किया है । वे उसे देर तक दयनीय स्थिति में रहने नहीं दे सकते । माली को बगीचा सौंपा तो जाता है पर उसके हाथों बेच नहीं दिया जाता । इस विश्व की व्यवस्था मनुष्य के हाथों सौंपी जरूर गई थी, वह उसे सुन्दर, सुरक्षित और समुन्नत रखे, यह उत्तरदायित्व दिया अवश्य गया था । पर यदि वह उसे सँभालता नहीं - व्यतिक्रम करता है, तो उसी की मनमर्जी नहीं चलती रहने दी जा सकती । माली बदलेगा, क्रम सुधरेगा या व़ह जो भी करेगा, अपने अरमानों के इस सुरम्य दुनियां को इस प्रकार अस्त-व्यस्त नहीं होने देगा, जैसा की हो रहा है, किया जा रहा है ।

मुंह चिढ़ाते गांधी जी

मुंह चिढ़ाते गांधी जी .... मन बार बार और ज़ार ज़ार रो रहा है । बहुत दिनों के बाद कुछ लिखने बैठा पर ऐसा लिखूंगा और क्या लिखूंगा कुछ पता नहीं ..पर वो ही ज़िंदगी के ऊतार चढ़ाव ..दुख दर्द का सिलसिला और खुशी के बस कुछ पल जो न जाने कब आते हैं और कब चले जाते हैं कुछ पता ही नहीं चलता ..ज़िन्दगी की एक सच्चाई एक हकीक़त ..पैसा ..न जाने ज़िन्दगी में कहां से आया और इतना महत्वपूर्ण हो गया कि कुछ भी और कोई भी इसके आगे सोचता ही नहीं ..तकलीफ होती है किसी के दर्द को देख कर और दुख होता है उस दर्द को कम न कर पाने का । क्यों इस दुनिया में लोग परेशान है क्यों लोग तकलीफ में हैं..जब जानने की कोशिश करते हैं तो अंत में काग़ज़ में छपे गांधी जी ही कारण दिखते हैं ..क्या बापू ने कभी सोचा होगा कि जो उन्होने सारे आंदोलन जिन गरीबों के लिए किये उन्ही गरीबों को नोटो में छपी उनकी शक्ल देखना नसीब भी न होगी ।।

दुर्भावों का उन्मूलन

कई बार सदाचारी समझे जाने वाले लोग आश्चर्यजनक दुष्कर्म करते पाए जाते हैं । उसका कारण यही है कि उनके भीतर ही भीतर वह दुष्प्रवृति जड़ जमाए बैठी रहती है । उसे जब भी अवसर मिलता है, नग्न रूप में प्रकट हो जाती है । जैसे, जो चोरी करने की बात सोचता रहता है, उसके लिए अवसर पाते ही वैसा कर बैठना क्या कठिन होगा । शरीर से ब्रह्मज्ञानी और मन से व्यभिचारी बना हुआ व्यक्ति वस्तुत: व्यभिचारी ही माना जाएगा । मजबूरी के प्रतिबंधों से शारीरिक क्रिया भले ही न हुई हो, पर वह पाप सूक्ष्म रूप से मन में तो मौजूद था । मौका मिलता तो वह कुकर्म भी हो जाता । इसलिए प्रयत्न यह होना चाहिए कि मनोभूमि में भीतर छिपे रहने वाले दुर्भावों का उन्मूलन करते रहा जाए । इसके लिए यह नितान्त आवश्यक है कि अपने गुण, कर्म, स्वभाव में जो त्रुटियॉं एवं बुराइयॉँ दिखाई दें, उनके विरोधी विचारों को पर्याप्त मात्रा में जुटा कर रखा जाय और उन्हें बार-बार मस्तिष्क में स्थान मिलते रहने का प्रबंध किया जाए । कुविचारों का शमन सद्विचारों से ही संभव है ।

किसी ने कहा-6

भीतरी दुनियाँ में गुप्‍त-चित्र या चित्रगुप्‍त पुलिस और अदालत दोनों महकमों का काम स्‍वयं ही करता है। यदि पुलिस झूठा सबूत दे दे तो अदालत का फैसला भी अनुचित हो सकता है, परंतु भीतरी दुनियाँ में ऐसी गड़बड़ी की संभावना नहीं। अंत:करण सब कुछ जानता है कि यह कर्म किस विचार से, किस इच्‍छा से, किस परिस्थिति में, क्‍यों कर किया गया था। वहाँ बाहरी मन को सफाई या बयान देने की जरूरत नहीं पड़ती क्‍योंकि गुप्‍त मन उस बात के संबंध में स्‍वयं ही पूरी-पूरी जानकारी रखता है। हम जिस इच्‍छा से, जिस भावना से जो काम करते हैं, उस इच्‍छा या भावना से ही पाप-पुण्‍य का नाप होता है। भौतिक वस्‍तुओं की नाप-तोल बाहरी दुनियाँ में होती है। एक गरीब आदमी दो पैसा दान करता है और एक धनी आदमी दस हजार रूपया दान करता है, बाहरी दुनियाँ तो पुण्‍य की तौल रुपए-पैसों की गिनती के अनुसार करेगी। दो पैसा दान करने वाले की ओर कोई आँख उठाकर भी नहीं देखेगा, पर दस हजार रूपया देने वाले की प्रशंसा चारों ओर फैल जाएगी। भीतरी दुनियाँ में यह नाप-तोल नहीं चलती। अनाज के दाने अँगोछे में बाँधकर गाँव के बनिए की दुकान पर चले जाएँ, तो वह बदले में गुड़ देगा, पर उ...

किसी ने कहा-6

भीतरी दुनियाँ में गुप्‍त-चित्र या चित्रगुप्‍त पुलिस और अदालत दोनों महकमों का काम स्‍वयं ही करता है। यदि पुलिस झूठा सबूत दे दे तो अदालत का फैसला भी अनुचित हो सकता है, परंतु भीतरी दुनियाँ में ऐसी गड़बड़ी की संभावना नहीं। अंत:करण सब कुछ जानता है कि यह कर्म किस विचार से, किस इच्‍छा से, किस परिस्थिति में, क्‍यों कर किया गया था। वहाँ बाहरी मन को सफाई या बयान देने की जरूरत नहीं पड़ती क्‍योंकि गुप्‍त मन उस बात के संबंध में स्‍वयं ही पूरी-पूरी जानकारी रखता है। हम जिस इच्‍छा से, जिस भावना से जो काम करते हैं, उस इच्‍छा या भावना से ही पाप-पुण्‍य का नाप होता है। भौतिक वस्‍तुओं की नाप-तोल बाहरी दुनियाँ में होती है। एक गरीब आदमी दो पैसा दान करता है और एक धनी आदमी दस हजार रूपया दान करता है, बाहरी दुनियाँ तो पुण्‍य की तौल रुपए-पैसों की गिनती के अनुसार करेगी। दो पैसा दान करने वाले की ओर कोई आँख उठाकर भी नहीं देखेगा, पर दस हजार रूपया देने वाले की प्रशंसा चारों ओर फैल जाएगी। भीतरी दुनियाँ में यह नाप-तोल नहीं चलती। अनाज के दाने अँगोछे में बाँधकर गाँव के बनिए की दुकान पर चले जाएँ, तो वह बदले में गुड़ देगा, पर उ...

किसी ने कहा -5

देखा गया है कि जो सचमुच आत्म-कल्याण एवं ईश्वर प्राप्ति के उद्देश्य से सुख सुविधाओं को त्याग कर घर से निकले थे, उन्हें रास्ता नहीं मिला और ऐसे जंजाल में भटक गये, जहाँ लोक और परलोक में से एक भी प्रयोजन पूरा न हो सका । परलोक इसलिए नहीं सधा कि उनने मात्र कार्य कष्ट सहा और उदात्त वृत्तियों का अभिवर्द्धन नहीं कर सके । उदात्त वृत्तियों का अभिवर्द्धन तो सेवा-साधना का जल सिंचन चाहता था, उसकी एक बूँद भी न मिल सकी । पूजा-पाठ की प्रक्रिया दुहराई जाती रही, सो ठीक, पर न तो ईश्वर का स्वरूप समझा गया और न उसकी प्राप्ति का आधार जाना गया । ईश्वर मनुष्य के रोम-रोम में बसा है । स्वार्थपरता और संकीर्णता की दीवार के पीछे ही वह छिपा बैठा है । यह दीवार गिरा दी जाय तो पल भर में ईश्वर से लिपटने का आनन्द मिल सकता है । यह किसी ने उन्हें बताया होता तो निस्सन्देह इन तप, त्याग करने वाले लोगों में से हर एक को सचमुच ही ईश्वर मिल गया होता और वे सच्चे अर्थों में ऋषि बन गये होते ।